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Thursday, November 20, 2008

मकोका लगाया इसलिये कि अब पुख्ता सबूत हैं,या सबूत हैं ही नहीं,

कहते हैं कानून की आंखों पर पट्टी बंधी है, कि वो गुनहगारों के बीच फर्क न कर सके. उसके सामने चाहे अमीर आये चाहे गरीब, चाहे हिन्दू या मुसलमान वो उन्हें पहचान न सके. पहचाने तो सिर्फ गुनहगार और बेगुनाह के बीच का फर्क. लेकिन अब इस देश के नागरिकों का इस छलावे भरी बातों पर विश्वास करना नामुमकिन है. हमें पता है कि यह पट्टी तो इसलिये बांधी गई है ताकि इस अंधे कानून को बेवकूफ बनाना आसान हो.

एटीएस ने भी कानून की आंखों पर बंधी इस पट्टी का फायदा उठाया, क्या खूब उठाया. आखिरकार मालेगांव के कथित अपराधियों पर मकोका लगा दिया गया, इसलिये नहीं की एटीएस के पास अब पुख्ता सबूत हैं, बल्कि इसलिये की सबूत हैं ही नहीं, और मकोका का इस्तेमाल कर एटीएस और वक्त खरीद रही है, और इस साजिश में हमारा तीसरा खंबा, हमारा सूचना तंत्र भी शामिल दिखता है. ऐसे माहौल में उम्मीद किसके दम पर की जाये. तो कुछ बेहद नाउम्मीदी भरी बातें ही करते हैं.

1. पुलिस और कानून सत्ताधारीयों के कब्जे में कुछ भी कर सकता है
राजनेता
तो हर पांच साल में बदल जाते हैं, लेकिन पुलिस और अफसरशाही बनी रहती है, पर फिर भी पुलिस और सारा सरकारी तंत्र उन पांच सालों के लिये राजनेताओं का बंधक बन जाता है. मालेगांव धमाकों के मामले में पूरी तरह यह देखने को मिला. पुलिस ने पहले बिना सबूतों के प्रज्ञा ठाकुर को हिरासत में रखा, बार-बार नारको टेस्ट किये, और फिर भी सबूत न मिलने के बावजूद मकोका लगा दिया ताकि रिहाई आसान न रहे.

यह सब एक राजनैतिक दल कांग्रेस के इशारे पर हुआ, क्योंकि उसे एक दूसरे राजनैतिक दल समाजवादी पार्टी से अपने वोट बैंक को छीनना था. इससे कांग्रेस को सचमुच समाजवादी को करारी चोट पहुंचाने में सफलता मिली है.

क्या देश की सेवा की कसम खाकर ड्यूटी ज्वाइन करने वाले हमारे यह जवान इतनी जल्दी अपनी कसम भूलकर नेताओं की सेवा में ऐसे ही लगते रहेंगे?

2. प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी अपने देश नहीं, राजनैतिक दल के हित के प्रति है
सुना है की देश के प्रधानमंत्री ने विपक्ष प्रमुख आडवाणी को फोन करके पूछा की वह प्रज्ञा ठाकुर की हिरासत के विरुद्ध क्यों है. सही है, प्रधानमंत्री आतंकवाद से लड़ने की प्रतिज्ञा ले चुके हैं. लेकिन फोन लगता है तो आडवाणी को, वो भी प्रज्ञा के विरुद्ध, एक ऐसी साध्वी जिसके खिलाफ अब तक तो सबूत भी नहीं मिले.
क्या प्रधानमंत्री ने अपने ही मंत्रीमंडल के सदस्य अर्जुन सिंह जो फोन लगाया था जिसने दिल्ली के बम विस्फोट के आरोपियों को बचाने के लिये खुले कदम उठाये.
इस फोन की खबर से यकीनक एक खास वर्ग के कुछ लोगों को सुकूं पहुंचा होगा. ये तो अपनी पार्टी को फायदा पहुंचाने की कवायद से ज्यादा और कुछ नहीं. क्या एक संवैधानिक पद का जाती फायदे के लिये इस्तेमाल ऐसे ही होता रहेगा?

3. पत्रकार सत्य नहीं खबर और अपने संस्थान के मालिकों के झुकाव के लिए समर्पित है
2 दिन पहले अभिनव भारत की एक सार्वजनिक सभा को एक चैनल पर बार-बार यह कहकर दिखाया गया यह वही सभा है जहां विस्फोटों का षडयंत्र हुआ. पता नहीं वो पत्रकार क्या स्थापित करना चाहते थे, लेकिन वो चिल्ला इस तरह रहे थे जैसे कि उन्होंने उन लोगों को षडयंत्र करते सुना हो.

उससे एक दिन पहले दयानंद पांडेय का एक विडियो दिखाया गया जिसमें वह देश के उन मुद्दों के बारे में वही चिंतायें जाहिर कर रहा था जो हम सभी की हैं. चाहे वो कश्मीर में पनपता अलगाव-वाद हो, देश के बहुसंख्यक नागरिकों के खिलाफ पक्षपात, या एक खास धर्म के आतंकवादियों को आश्रय. यह वही कुछ था जो हमने आपने रोजाना कहा लिखा, लेकिन ऐसा करने के लिये दयानंद पांडेय को बार-बार आतंकवादी ठहराया गया.

क्या देशभक्ती की बातें करना जुर्म है?

4. सत्ताधारी वही कानून देंगे जिसका वह इस्तेमाल कर सकें
यूपी में मायावती, और गुजरात में मोदी ने आतंकवाद के खिलाफ कड़े कानून की मांग की, लेकिन केन्द्र ने उनकी मांग को नकार दिया कि उस कानून का गलत इस्तेमाल होगा. बल्कि उस तरह के कानून को ही मानवता विरुद्ध ठहराया गया. लेकिन फिर भी उसी सत्ताधारी दल का एक हिस्सा वैसे ही कानून का इस्तेमाल लगातार कर रहा है. क्या गुजरात में जो जानें जाती हैं उनकी कीमत महाराष्ट्र में गई जानों से कम है?

5. देश को वर्गों में बांटकर और उनमें दुश्मनी बढ़ाकर राजनैतिज्ञ अपना राज बचाते रहेंगे
जब रहेंगेजब स्वामी दयानंद सरस्वती ने कहा था कि कितने भी अच्छे विदेशी राज से स्वराज हमेशा बेहतर है, तो उन्होंने यह कल्पना नहीं की होगी कि हमारे राजनेताओं के समान निकृष्ट व्यक्ति सत्ता में होंगे. पिछले 60 सालों में हमारे बहुत पीछे से शुरुआत करने वाले देश हमसे बरसों आगे निकल गये, और हम भी देश से ऊपर अपनी जात-धर्म को रखे बैठें है.

असल में यह साजिश राजनेताओं की ही है, जो भूलने ही नहीं देती की कोई भी व्यक्ति किस जाती, किस धर्म का है. अगर वह भूलना भी चाहे तो बार-बार उसे याद दिलाया जाता है, टीवी पर, अखबार में, चुनाव पर, भाषणों में. लोगों को बताया जाता है कि तुम्हारी जाति, तुम्हारा धर्म खतरें में है. उनकी पहचान देशवासी नहीं, जाति और धर्म वालों के तौर पर गहरी की जाती है. फिर क्यों आश्वर्य होता है जब देश के लोग देश पर ही घात करते हैं?

क्या जिस जन्मभूमी को स्वर्ग से भी अधिक महान कहा जाता है, उस पर लगातार वही लोग प्रहार करते रहेंगे जिन्हें उसका पोषक बनाया गया?