Sunday, November 30, 2008

मुम्बई के आतंकी हमलों में असल में कितने मरे? 200, या 1000?

सरकारी की बात मानें तो मुम्बई आतंकवादी कार्यवाही में मारे गये लोगों का ब्यौरा कुछ यूं है.

सी एस टी – 55 लोग मरे
ताज – 22 मरे
ओबेरॉय – 30 मरे
टैक्सी विले पार्ले – 4 लोग
पुलिस और सुरक्षाबल – 20 लोग

सरकार ने आतंकी कार्यवाही की लगभग शुरुआत से ही 150-180 के आंकड़े के आस-पास मरे लोगों की संख्या बतलाई है. लेकिन यह संख्या विश्वास योग्य नहीं है. क्योंकि अगर आतंकी कार्यवाही के स्तर का हिसाब लगाया जाये, और सभी कारकों पर ध्यान दिया जाये तो मरने वालों की संख्या इससे कुछ नहीं, बहुत ज्यादा बननी चाहिये.

बुधवार से लेकर अब तक सरकारी आंकड़े 172 पर ही अटके हैं, जबकी मरने वाले विदेशियों की संख्या 18 से 22 हो गई. क्या हिन्दुस्तानियों की संख्या इसी रेशियो में नहीं बढ़ी होगी (अगर सरकारी आंकड़े सही भी हैं तो)

मुझे लगता है कि चुनाव के साल में सरकार को चिंता है कि अगर मरने वालों की सच्ची संख्या ज्ञात हो, तो देशवासियों का गुस्सा और भी भड़केगा, और खामियाजा बहुत महंगा पड़ेगा. शायद इसी के चलते एक बहुत बड़ा कवर-अप आपरेशन चल रहा है जिससे की मरने वालों की सही संख्या का हिसाब न लगाया जा सके.

आपके लिये कुछ आंकड़े प्रस्तुत हैं: -

  1. ताज में कमरों की संख्या – 539
  2. ओबेराय में कमरों की संख्या – 327
  3. ट्राइडेंट में कमरों की संख्या – 541
  4. नरिमन हाउस में मंजिलों की संख्या – 5
  5. लियोपोल्ड कैफे में सीटें – 60

ताज में इसके अलावा कई और रेस्त्रां और मीटिंग रूम्स हैं. हमले के समय पर ताज में एक शादी भी चल रही थी जहां जाकर आतंकवादियों ने गोलियां चलाई. हिन्दुस्तानी शादी में कितने लोग आते हैं?

तीनों होटलों में कुल कमरों की संख्या – 1407. अगर साठ परसेंट आक्युपेंसी भी हो तो उस समय उन कमरों में से 844 में लोग हो सकते थे. बहुत सारे कमरों में एक से ज्यादा लोग भी हो सकते थे (परिवार, ग्रुप). इसमें शादी, मीटिगों, सेमिनारों के लोग भी जोड़िये जो वहां थे.

दूसरे दिन से ही हमें सुनने को मिला कि धमाकों में लगभग 200 लोग मरे, और सुई यहीं अटक गई. बल्कि एक बार तो official figure 195 से रिवाइज़ होकर 170+ पर पहुंचा और वहीं रुका है.

ताज में फायरिंग बहुत समय तक चली, और निकलने वालों की संख्या ज्यादा नहीं थी (आप में से जो टीवी देख रहे थे, जानते हैं कि कितने लोग बाहर आये, और कितनी बार). बीच में एक बार यह भी सुनने को आया की ताज में हर मंजिल पर लाशें मिल रहीं हैं, और एक बार तो एक कमरे में ही 40 लोग मिले ऐसी खबर थी.

ताज बालरूम में कितने लोग थे? इन आतंकवादियों के पास होस्टेज कितने थे? इन्होंने सउदी अरब के लोगों को तो छोड़ा (जिन्हें अबु आजमी लेकर आये), लेकिन बाकियों को तो नहीं छोड़ा था, वो कहां गये?

सड़क पर फायरिंग में (मेट्रो के पास, कामा हास्पीटल के पास, जीटी हास्पीटल के पास) भी फायरिंग की खबर थी. उसमें लोग मरे? कितने?

कोई भी (सरकार, या मीडिया) आतंक में मरे लोगों का विस्तृत (कहां कितने लोग मरे) ब्यौरा क्यों नहीं दे रहा?

मुझे लगता है कि इस आतंकवादी कार्यवाही में 200 नहीं, उससे कहीं ज्यादा लोग मरे हैं, जो हो सकता है इस संख्या दे दुगुने, या 5 गुने भी हो सकते हैं, क्योंकि एक बार जब आतंकवादी कार्यवाही शुरु हुई उसके बाद बहुत कम लोग बाहर निकले थे.

इस समय मृतकों की संख्या में clarity नहीं है, और

हर कीमत पर खबर,
सबसे आगे
सच दिखाते हैं

…. जैसे स्लोगन देने वाला मीडिया भी इस बात पर conveniently चुप है.

तो कौन बतायेगा की मुम्बई के आतंकी हमलों में मरने वालों की सही संख्या क्या थी? क्या मीडिया में कोई यह सवाल भी उठायेगा?

विलासराव देशमुख देखने गये थे कि आतंकवादियों ने 200 लोगों को कैसे मारा... और साथ ले गये थे राम गोपाल वर्मा को

vilasrao_deshmukh
यही रोकेंगे आतंकियों का अगला हमला.
हमारे महान मुख्यमंत्री

विलासराव देशमुख महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री है, आतंक के जिन 59 घंटो को आपने और मैंने जिया. मौत और खून की जिन तस्वीरों को देखकर हमारी आंखें पानी नहीं खून से भर उठी थीं उस दर्द को विलासराव देशमुख के दिल ने भी महसूस किया था? अपने राष्ट्र और अपने महाराष्ट्र की यह दुर्गति देखकर उसका खून भी खौला था? 200 लोग मरे, 14 जवान मरे, और कितने ही लोग घायल हुये, मुम्बई वीटी का प्लेटफार्म खून से लाल हो गया, यह देखकर विलासराव का खून गरम हुआ होगा?

घटनाक्रम के खत्म होने के एक दिन बाद विलासराव को मृतकों कि याद आई, तो आया वो अपने जिम्मेदारी निभाने. देखने कि किस तरह अपने देश के दुश्मनों ने देशवासियों की हत्या की... और साथ लेकर आया अपने एडवाइज़रों की टीम? वो लोग जो यह देखते और विलासराव कि मदद करते यह सब रोकने में?

यह है विलासराव की संवेदना देश और मृतकों के प्रति

विलासराव देशमुख लेकर आया रामगोपाल वर्मा को
विलासराव देशमुख लेकर आया रितेश देशमुख को

तो अब सुनिये विलासराव की कृपा से रामू की अगली फिल्म के बारे में

रामगोपाल की छब्बीस-ग्यारह!

रितेश देशमुख - संदीप उन्नीकृष्णन के रोल में.

विलासराव देशमुख के पीछे सुरक्षा सलाहकार नहीं राम गोपाल चल रहा था.

विलासराव देशमुख को देश की नहीं, राम गोपाल की अगली फिल्म की चिंता थी

विलासराव देशमुख को देश को नहीं, रितेश देशमुख को आगे बढ़ाना है?

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क्यों रोये हम और आप वो तीन दिन. क्यों हम तड़पे देश के लिये. विलासराव देशमुख को तो यह चिंता थी कि रामगोपाल वर्मा की अगली फिल्म की गोटी फिट हो सके और रितेश देशमुख के लिये धंधा बना पायें.

यह है महाराष्ट्र के मुखिया.
यह है वो आदमी जिसे हमने चुन के भेजा था कि हमारा भला करो, हमारा ख्याल रखो.

अब मत करो इस देश की चिंता, क्योंकि उसका कोई फायदा नहीं. देश को हमने पहले ही कुत्तों के हवाले कर दिया.

Thursday, November 27, 2008

राजू, चल राजू, अपनी मस्ती में तू... कोई जिये या मरे, क्या हमको बाबू

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पहले मैं मुम्बई को लेकर परेशान था, इतना की जब भी अपने देश की हालत बारे में सोचता था तो सिर में कहीं दर्द सा हो रहा था. फिर मूझे इस परेशानी का सही हल सूझा, तो आपसे भी शेयर कर रहा हूं.

मैंने न्य़ुज़ देखना छोड़ दिया, अखबार नहीं पढ़ रहा हूं, आसपास जब भी कोई इस बारे में बात करना शुरु करता है मैं फौरन दोनों हाथ कान पर रख कर चिल्लाना शुरु करता हूं - "वां-वां-वां-वां, वां-वां-वां-वां" तो सामने वाला घबराकर दूर हट जाता है.

तो आप भी यही करो. जैसे ही कुछ भी ऐसा सुनने को मिले जिससे आपके अन्दर के हिन्दुस्तानी को कष्ट पहुंचे तो दोनों हाथ कान पर रख के चीखो -- 'वां-वां-वां-वां'

मुझे नहीं सुनना कितने लोग मरे
मुझे नहीं सुनना कितने लोग छूटे
मुझे नहीं सुनना कितनी आग लगी
मुझे नहीं सुनना कितनी गोलियां चलीं
मुझे नहीं सुनना कितने बम फूटे
मुझे नहीं सुनना घायलों की चीख, घबराहट
मुझे नहीं सुननी सायरनों की आवाज़
मुझे नहीं सुनना मरने वालों के परिवार का विलाप
मुझे नहीं सुनना राजनेताओं की भोथरी बातें
मुझे नहीं सुनना न्य़ुज़ एंकरों की भड़काऊ रिपोर्टिंग

मुझे नहीं देखनी भड़कती हुई आग
मुझे नहीं देखना स्टेशन पर बहता खून
मुझे नहीं देखने हत्यारों के भोले मगर दहशतनाक चेहरे
मुझे नहीं देखने कमरों से हाथ हिलाते हुये मजबूर लोग
मुझे नहीं देखना होटल से आते हुये स्ट्रेचर
मुझे नहीं देखना जान के जोखम पर बिल्डिंग में जाते जवान
मुझे नहीं देखने विस्पोटों की आवाज़ सुनकर डर से उछलते एंकर
मुझे नहीं देखना सड़क पर गोलियां बरसातीं जीपें

तो इसलिये कानों पर हाथों के साथ आंखे भी जोर से मींच ली हैं

वां-वां-वां-वां
वां-वां-वां-वां

वां-वां-वां-वां
वां-वां-वां-वां

वां-वां-वां-वां
वां-वां-वां-वां

वां-वां-वां-वां
वां-वां-वां-वां

वां-वां-वां-वां
वां-वां-वां-वा

"जग में जो बुरा है, हम देखें न सुनें,
कांटो को हटा के, फूलों को हम चुनें"
http://www.youtube.com/watch?v=NStDcbAx02w

Saturday, November 22, 2008

शिवराज पाटिल ने कहा, "पुलिस सवालों के जवाब न दे, और चुप रहे, तो समस्या कम हो जायेगी"

आज एक चैनल पर शिवराज पाटिल का बयान सुना, वो बात कर रहे थे हाल के पुलिसिया घटनाक्रम के बारे में. बयान तो अंग्रेजी में था, लेकिन सार यह है.

"अगर पुलिस कोई बात कोर्ट को बताये, और वह कोर्ट से मीडिया तक पहुंचे तो यह जायज है. लेकिन अगर पुलिस मीडिया से लगातार सीधे लीक कर रही है तो नहीं. वो बहुत सवाल पूछेंगे, लेकिन पुलिस सवालों के जवाब न दे, और चुप रहे तो समस्या कम हो जायेगी."

सही नब्ज पकड़ी है समस्या की शिवराज पाटिल ने. समस्या यह नहीं है कि आतंकवाद है. समस्या यह नहीं है कि अत्याचार है, समस्या यह नहीं है कि देश में विभेद हैं. समस्या है जानकारी. समस्या हैं सवाल. अगर लोगों तक जानकारी नहीं पहुंचे तो समस्या ही नहीं रहेगी. क्योंकि जो समस्या इतने ढंग से छुपी हो जिसके बारे में किसी को पता ही न चले तो वह इन राजनेताओं के लिये समस्या है ही नहीं. सोचिये अगर गुजरात में विस्फोट हो, और आपको दिल्ली में पता ही न चले, तो आप बेखबर मजे में समय बिताते रहेंगे. इस खबर की वजह से ही तो आपका दिन खराब होता है. इस खबर की वजह से ही तो आप सोचने पर मजबूर होते हैं.

तो पुलिस को सही बात कही है पाटिल ने. सवालों के जवाब मत दो. यह नहीं कहा कि अत्याचार मत करो. यह नहीं कहा की निर्दोषों को सताओ मत. यह नहीं कहा की मजबूरों की रपटें दर्ज करो. यह नहीं कहा कि जिन्हें मदद की जरुरत है उनकी मदद करो. यह नहीं कहा की अपराधिओं को बचाना बंद करो. कहा की सवालों का जवाब मत दो. जब-जब तुम्हारी जवाबदेही मांगी जाये, जब-जब तुमसे पूछा जाये की बताओ,ऐसा क्यों हुआ तो चुप साध के बैठ जाओ. आखिर जवाबों के अभाव में सवाल भी तो मर जाते हैं. सारे सवाल मर जायेंगे, और तुम बच जाओगे.

पाटिल चाहे कितना ही अकर्मण्य प्रशासनिक हो, राजनीतिज्ञ कुशल है. तभी तो पिछले पांच सालों में उनकी कुर्सी अडिग रही, देश की अखंडता चाहे कितनी ही डिगी हो.

तो जिनके मन में सवाल मंडरा रहे हों, उनके सभी से गुजारिश है कि मर जाने दो हर सवाल को बिना जवाब के और मूक बन के देखो इस नंगे विद्रुप को.

और कुछ सवाल जिनके जवाब नहीं दिये जाने चाहिये.

1. क्यों सरकार नहीं पूछती स्विस बैंको से हिन्दुस्तानी खातेदारे के ब्यौरे? (जिनके बारे में कहा है कि सरकार पूछे तो वे देंगे)
2. जिन बिल्डरों ने पिछले पांच साल में करोड़ों का फायदा बनाया (sez, और उठते भू-दामों के कारण) उन्हें मंदी के आते ही दनादन छूटें क्यों दी गईं, जबकी विदर्भ के मरते किसानों के लिये कुछ नहीं किया?
3. क्यों किसी भी विस्फोट की जांच निष्कर्ष निकालने में हमेशा निष्फल रहती है और अपराधी खुले घूमते हैं, और चैन से जिंदगी काट रहे हैं?
4. सरकारी तंत्र दिन-ब-दिन, और, और क्यों सड़ रहा है?
5. बड़े उद्योगों के पैरों पर लोट लगाने वाला वित्त मंत्रालय छोटे उद्योंगो पर लगातार प्रहार क्यों कर रहा है?
6. जिन सड़कों पर करोड़ों हर साल खर्च किया जाता है, वो बार-बार टूट जाती हैं?
7. सांसद अपनी निधी किस बिना पर खर्च करते हैं? और उसका हिसाब कौन जांचता है?
8. क्यों हर नेता लगातार अमीर, और अमीर होता जा रहा है? इनकी स्कोर्पियो, फोर्ड इन्डीवरों से सड़कें भर गयी है, और पार्टियों के झंडे हर गाड़ी पर लगे हैं. कहां से आ रहा है यह पैसा?

क्यों...
क्यों...

नहीं, इनके भी जवाब मत देना.

Thursday, November 20, 2008

मकोका लगाया इसलिये कि अब पुख्ता सबूत हैं,या सबूत हैं ही नहीं,

कहते हैं कानून की आंखों पर पट्टी बंधी है, कि वो गुनहगारों के बीच फर्क न कर सके. उसके सामने चाहे अमीर आये चाहे गरीब, चाहे हिन्दू या मुसलमान वो उन्हें पहचान न सके. पहचाने तो सिर्फ गुनहगार और बेगुनाह के बीच का फर्क. लेकिन अब इस देश के नागरिकों का इस छलावे भरी बातों पर विश्वास करना नामुमकिन है. हमें पता है कि यह पट्टी तो इसलिये बांधी गई है ताकि इस अंधे कानून को बेवकूफ बनाना आसान हो.

एटीएस ने भी कानून की आंखों पर बंधी इस पट्टी का फायदा उठाया, क्या खूब उठाया. आखिरकार मालेगांव के कथित अपराधियों पर मकोका लगा दिया गया, इसलिये नहीं की एटीएस के पास अब पुख्ता सबूत हैं, बल्कि इसलिये की सबूत हैं ही नहीं, और मकोका का इस्तेमाल कर एटीएस और वक्त खरीद रही है, और इस साजिश में हमारा तीसरा खंबा, हमारा सूचना तंत्र भी शामिल दिखता है. ऐसे माहौल में उम्मीद किसके दम पर की जाये. तो कुछ बेहद नाउम्मीदी भरी बातें ही करते हैं.

1. पुलिस और कानून सत्ताधारीयों के कब्जे में कुछ भी कर सकता है
राजनेता
तो हर पांच साल में बदल जाते हैं, लेकिन पुलिस और अफसरशाही बनी रहती है, पर फिर भी पुलिस और सारा सरकारी तंत्र उन पांच सालों के लिये राजनेताओं का बंधक बन जाता है. मालेगांव धमाकों के मामले में पूरी तरह यह देखने को मिला. पुलिस ने पहले बिना सबूतों के प्रज्ञा ठाकुर को हिरासत में रखा, बार-बार नारको टेस्ट किये, और फिर भी सबूत न मिलने के बावजूद मकोका लगा दिया ताकि रिहाई आसान न रहे.

यह सब एक राजनैतिक दल कांग्रेस के इशारे पर हुआ, क्योंकि उसे एक दूसरे राजनैतिक दल समाजवादी पार्टी से अपने वोट बैंक को छीनना था. इससे कांग्रेस को सचमुच समाजवादी को करारी चोट पहुंचाने में सफलता मिली है.

क्या देश की सेवा की कसम खाकर ड्यूटी ज्वाइन करने वाले हमारे यह जवान इतनी जल्दी अपनी कसम भूलकर नेताओं की सेवा में ऐसे ही लगते रहेंगे?

2. प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी अपने देश नहीं, राजनैतिक दल के हित के प्रति है
सुना है की देश के प्रधानमंत्री ने विपक्ष प्रमुख आडवाणी को फोन करके पूछा की वह प्रज्ञा ठाकुर की हिरासत के विरुद्ध क्यों है. सही है, प्रधानमंत्री आतंकवाद से लड़ने की प्रतिज्ञा ले चुके हैं. लेकिन फोन लगता है तो आडवाणी को, वो भी प्रज्ञा के विरुद्ध, एक ऐसी साध्वी जिसके खिलाफ अब तक तो सबूत भी नहीं मिले.
क्या प्रधानमंत्री ने अपने ही मंत्रीमंडल के सदस्य अर्जुन सिंह जो फोन लगाया था जिसने दिल्ली के बम विस्फोट के आरोपियों को बचाने के लिये खुले कदम उठाये.
इस फोन की खबर से यकीनक एक खास वर्ग के कुछ लोगों को सुकूं पहुंचा होगा. ये तो अपनी पार्टी को फायदा पहुंचाने की कवायद से ज्यादा और कुछ नहीं. क्या एक संवैधानिक पद का जाती फायदे के लिये इस्तेमाल ऐसे ही होता रहेगा?

3. पत्रकार सत्य नहीं खबर और अपने संस्थान के मालिकों के झुकाव के लिए समर्पित है
2 दिन पहले अभिनव भारत की एक सार्वजनिक सभा को एक चैनल पर बार-बार यह कहकर दिखाया गया यह वही सभा है जहां विस्फोटों का षडयंत्र हुआ. पता नहीं वो पत्रकार क्या स्थापित करना चाहते थे, लेकिन वो चिल्ला इस तरह रहे थे जैसे कि उन्होंने उन लोगों को षडयंत्र करते सुना हो.

उससे एक दिन पहले दयानंद पांडेय का एक विडियो दिखाया गया जिसमें वह देश के उन मुद्दों के बारे में वही चिंतायें जाहिर कर रहा था जो हम सभी की हैं. चाहे वो कश्मीर में पनपता अलगाव-वाद हो, देश के बहुसंख्यक नागरिकों के खिलाफ पक्षपात, या एक खास धर्म के आतंकवादियों को आश्रय. यह वही कुछ था जो हमने आपने रोजाना कहा लिखा, लेकिन ऐसा करने के लिये दयानंद पांडेय को बार-बार आतंकवादी ठहराया गया.

क्या देशभक्ती की बातें करना जुर्म है?

4. सत्ताधारी वही कानून देंगे जिसका वह इस्तेमाल कर सकें
यूपी में मायावती, और गुजरात में मोदी ने आतंकवाद के खिलाफ कड़े कानून की मांग की, लेकिन केन्द्र ने उनकी मांग को नकार दिया कि उस कानून का गलत इस्तेमाल होगा. बल्कि उस तरह के कानून को ही मानवता विरुद्ध ठहराया गया. लेकिन फिर भी उसी सत्ताधारी दल का एक हिस्सा वैसे ही कानून का इस्तेमाल लगातार कर रहा है. क्या गुजरात में जो जानें जाती हैं उनकी कीमत महाराष्ट्र में गई जानों से कम है?

5. देश को वर्गों में बांटकर और उनमें दुश्मनी बढ़ाकर राजनैतिज्ञ अपना राज बचाते रहेंगे
जब रहेंगेजब स्वामी दयानंद सरस्वती ने कहा था कि कितने भी अच्छे विदेशी राज से स्वराज हमेशा बेहतर है, तो उन्होंने यह कल्पना नहीं की होगी कि हमारे राजनेताओं के समान निकृष्ट व्यक्ति सत्ता में होंगे. पिछले 60 सालों में हमारे बहुत पीछे से शुरुआत करने वाले देश हमसे बरसों आगे निकल गये, और हम भी देश से ऊपर अपनी जात-धर्म को रखे बैठें है.

असल में यह साजिश राजनेताओं की ही है, जो भूलने ही नहीं देती की कोई भी व्यक्ति किस जाती, किस धर्म का है. अगर वह भूलना भी चाहे तो बार-बार उसे याद दिलाया जाता है, टीवी पर, अखबार में, चुनाव पर, भाषणों में. लोगों को बताया जाता है कि तुम्हारी जाति, तुम्हारा धर्म खतरें में है. उनकी पहचान देशवासी नहीं, जाति और धर्म वालों के तौर पर गहरी की जाती है. फिर क्यों आश्वर्य होता है जब देश के लोग देश पर ही घात करते हैं?

क्या जिस जन्मभूमी को स्वर्ग से भी अधिक महान कहा जाता है, उस पर लगातार वही लोग प्रहार करते रहेंगे जिन्हें उसका पोषक बनाया गया?

Friday, November 14, 2008

तो अच्छा हुआ कि विकास थम गया, और मंदी आ गयी

sales_graph देश और दुनिया के विकास कि वो तेजी, ऐसी की सुधिजन-गुणीजन वाह कर उठे हैं. पिछले 20 सालों में हमारा देश ने क्या सर्रर प्रगति की. शहरों किन-किन तरह की कारें दौड़ उठी हैं. ऐसा ही 20 एक साल और चल जाये तो इंडिया का 2020 हो जाये.

बेरोक-टोक विकाश विश्व का किस कदर दुश्मन हो सकता है, यह जानने से पहले यह जान लिया जाये कि दुनिया का विकास किस कदर हुआ.

विश्व अर्थव्यवस्था का आकार (मिलियन $ में)
1950 - 5336101
1973 - 16059180
1998 - 33725635
2008 - 65000000

मतलब लगभग हर बीस साल में विश्व की अर्थव्यवस्था का आकार दुगुना होता रहा है, और पिछले समय में नये उभरते बाज़ारों के कारण इस गति में किसी कमी के आने के आसार भी नहीं थे. खासकर चीन और भारत में इतने बड़े नये बाजार बन रहे हैं कि आने वाले समय में वो अमेरिका और युरोप के बाजारों से सीधी प्रतिस्पर्धा करेंगे.

लेकिन अर्थव्यवस्था का मतलब सिर्फ उत्पादन ही नहीं, इसका मतलब उपभोग भी है. अर्थव्यवस्था, या उत्पादन के बढ़ने के साथ ही उपभोग भी बढ़ रहा है. मतलब हर बीस साल में उपभोग भी दुगुना हो रहा है.

तो अर्थव्यवस्था के साथ ही हर चीज के उत्पादन की संख्या बढ रही है

कुर्सी, फूलदान, किताबें, डब्बे, दवाईयां, खाद्य, पेय, कपड़े, कारें, जूते, टीवी, बोतलें, विद्युत, गैस, सर पर लगाने का तेल... हर चीज को ज्यादा, ज्यादा, और ज्यादा संख्या में लगातार बनाया जा रह है. और यह सब कैसे बनता है? प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करके.

1998 से 2005 तक प्राकृतिक संसाधनो के इस्तेमाल में 30 प्रतिशत की बढ़त हुई. (http://www.swivel.com/graphs/show/21865778)

सात सालों में 30 प्रतिशत की बढ़त!

तेजी से बढ़ती विश्व अर्थव्यवस्था (याद रखिये, हमारी बढ़त साल-दर-साल है. हर साल 10% की बढ़त से सिर्फ आठ सालों में अर्थव्यवस्था दुगुनी से भी बड़ी हो जाती है) की कीमत हमारी पृथ्वी चुका रही है. हम इतनी तेजी से जमीन, धातुओं, तेल, पेड़, आदी का इस्तेमाल कर रहे हैं की पृथ्वी के लिये इसकी भरपाई कर पाना असंभव है. इस तरह की बढ़त लगातार बनाये रखना तो असंभव है, लेकिन जब तक हम उस मोड़ पर पहुंचेगे कि आगे बढ़त पर संसाधनों की कमी से रोक लगे, तब तक हमारी दुनिया को अपूर्ण क्षति हो चुकि होगी.

हममें से हर किसी का मकसद अपने जीवन स्तर को उठाना है, लेकिन अगर हममें से हर व्यक्ति का जीवन स्तर उतना हो जितना की किसी साधारण अमेरिकी का होता है, तो हमें इस जैसी दस पृथ्वियों के संसाधनों की जरुरत होगी.

कहां से लायेंगे हम ये सारे संसाधन?

आने वाले 100-150 सालों तक यही दोहन चलता रहा तो वैसे भी संसाधनो का उपयोग इतना महंगा हो जायेगा कि वो हर किसी को मयस्सर नहीं होंगे, तो कम संसाधनों में रहना तो विश्व के जनमानस को सीखना ही है. लेकिन उस समय तक अति-दोहन के कारण हम downward spiral में प्रविष्ट कर चुके होंगे. प्रदुषण और संसाधनों को नष्ट करने से बहुत बड़ी crisis भी पैदा होगी.

मतलब, अगर मानवों का जीवन स्तर बढ़ेगा, तो जो बोझ पड़ेगा, उसे पृथ्वी सह नहीं सकती. तो फिर कैसे हम हासिल करें सभी मानवों के लिये सही जीवन स्तर, कैसे सबको प्रदान करें एक अच्छी और गौरवशाली जिंदगी, कैसे जब कि पृथ्वी पर साधन इतने कम है?

तो जवाब है एक सूक्ती

"यह पृथ्वी सभी की जरुरत को पूरा कर सकती है, लेकिन एक भी आदमी के लालच को नहीं"

फिलहाल तो इस मंदी को झेलें, और इसे एक मौका मानें यह समझने का कि कैसे हम विश्व की अर्थव्यवस्था को उत्पादन नहीं, मानव के विकास से नाप पायें.

भूटान की GNH (Gross National Happiness) की तरह.

Monday, November 10, 2008

'हिन्दू' शब्द बोलते वक्त दीपक चौरसिया के मुंह में गोबर का सा स्वाद आता है क्या?

स्टार टीवी के दीपक चौरसिया स्टार बन चुके हैं, जिस फार्मूले का उपयोग कर उनके सामने ही सामने कितने लोग बड़े-बड़े पुरुस्कृत पत्रकार बन गये, उसका उपयोग करके अगर वो एक-दो अवार्ड अपने कन्ने कर लें तो क्या बुरा?

तो आज स्टार पर धमाल मचा रखा है, जुबान अटक गई है - 'हिन्दूवादी नेता', 'हिन्दूवादी नेता'. ऐसा घमासान मचा रहे हैं कि लगता है कि जब बचपन में जब बोलन सीखा तो क-ख की जगह हिन्दूवादी नेताओं से निपटने का ककहरा सीख लिया.

deepakc1 सुदूर क्षितिज की ताक में.
वहीं से अगली खबर निकलेगी जिससे अपने आकाओं को खुश करने का मसाला निकालेंगे.

और ये स्टार (Fox News वाले, अरे वही जो जार्ज बुश के सबसे बड़े चमचे रहे हैं) के सुपर-स्टार जब 'हिन्दू' बोलते हैं तो चेहरे पर भाव बदल-बदल कर, कभी ऐसे जैसे गोबर चख रहे हैं, लेकिन जब साथ में जब 'वादी नेता' बोलते हैं तो ऐसा लगता है कि अभी किसी बिल्ले को दो सेर मलाई चटा दी. बड़ा घणा मौका मिला है इन्हें, सारे रात हिन्दूवादी नेता का भजन करें, तो भी संतुष्टी को प्राप्त नहीं होंगे.

ये वहीं पत्रकार हैं जो 'इस्लामिक अतिवादी' पर अलग ही प्रतिक्रिया देते हैं. जोर देते हैं कि जिन मुस्लिम आतंकवादियों को गिरफ्तार किया जाये उन्हें धर्म से न जोड़ा जाये. लेकिन खुदा-न-खास्ता अगर हिन्दूवादी नेता के हाथ होने का अंदेशा भी मिले तो हिन्दूवाद शब्द बड़े जोर दे-देकर, बड़े अंदाजों-खम के साथ बोला जाता है.

घटिया पत्रकारिता के झंडाबरदार ये बेशर्म लोग चाहे कितनी भी शर्मनाक नौटंकी न करें, इनके लिये ताली पीटने वाले चमचों की भी कमीं नहीं. इसलिये इनकी दुकान चलती रहेगी, चाहे इनके पाखंड पर कितना ही गुस्सा न आये.