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Monday, February 22, 2010

नक्सलीयों के 72 दिन शांति नहीं, अपने बचाव की कारवाई. हिन्दुस्तानी सरकार क्या तुम जाल में फंसोगी?

किशन 'जी?' की 72 दिन की शांति की पेशकश से पहले ही नक्सली कुत्तों का सामुहिक रूदन शुरु हो चुका है. कुछ ने तो इस पेशकश को भारतीय सरकार के लिये घोर गनीमत बना दिया है, कि नक्सली तुम्हारे पृ्ष्ठभाग पर जो कदमताल कर रहे हैं लो उनकी दया पर 72 दिन आराम कर लो. लेकिन क्या इस पेशकश की सच्चाई क्या है?

क्या नक्सलीयों का हॉलिडे सीज़न चल रहा है कि साल भर इतने लड़ाई-लफड़े के बाद जा कर हिल-स्टेशन पर आराम किया जाये?

या

वो महीनों से काम में लगे पुलिस वालों को छुट्टी के 72 दिन देना चाहते हैं?

साल भर कत्ले-आम करने वाले नक्सली आखिर चिदंबरम को 72 घंटे क्यों भेंट करना चाहते हैं? किसी भी तरह की पेशकश सुनने से भी पहले इस पर विचार कर लेना चाहिये, क्योंकि सच्चाई वह नहीं है जो किशनजी नाम का आतंकवादी कह रहा है और सच्चाई वह भी नहीं है जो इस आतंकी समूह के 'बुद्धुजीवी' चमचे पेश कर रहे हैं.

सच्चाई है:

नक्सलियों को चाहिये 72 दिन जंगलो से बचकर भाग जाने के लिये.

असल में नक्सली आतंकी झारखंड और छत्तीसगढ़ के जिन जंगलो में छिपे हैं वो जंगल में मुख्यत: साल के पेड़ है. यह वह समय है जब साल के पेड़ों पर से पत्ते झड़ते हैं और जंगल के जंगल बेरंग हो जाते हैं. साल के घने वृक्षों में छिपे नक्सलियों के लिये एक-दो हफ्तों के बाद शरण दुर्लभ होने वाली है, क्योंकि अप्रेल-मई तक साल के वृक्षों में नये पत्ते नहीं आने वाले.

वृक्षों से पत्ते झड़ जायें इससे पहले नक्सली कातिल भाग कर सुरक्षित ठिकानों में छिप जाना चाहते हैं. इसलिये उन्हें चाहिये 72 दिन. अगर सरकार ने यह पेशकश मान ली तो नक्सलियों के लिये बच के निकल जाना बेहद आसान हो जायेगा.

यह पेशकश मानना अक्षम्य अपराध होगा उन लोगों और पुलिस वालों के साथ जिन्होंने अपनी जान नक्सलियों के खिलाफ संघर्ष में दी है.

अब वक्त है कि सरकार सही फैसला ले और नक्सलियों के खिलाफ संघर्ष को वह तेजी दे जो साल भर नहीं दी, ताकी नंगे होते जंगलों में छुपे नक्सलियों को वक्त रहते खत्म किया जा सके. यह वह दुर्लभ मौका है जो साल में एक बार आता है, और त्वरित कार्यवाही से निश्चित है बहुत से नक्सली कातिल पकड़े/मारे जा सकेंगे.

चिदंमबरम, तुम हर हत्याकांड के बाद आंसू बहाते हो. अब फैसला तुम्हें करना है, और देखना हमें है कि तुम्हारे आंसू घड़ियाली हैं, या तुम आतंक को सचमुच मिटाने की कोशिश करोगे.

Saturday, January 9, 2010

उस आयोजित कार्यक्रम के बाहर खड़े थे कुछ प्रायोजित बच्चे

"नक्सलियों नें मेरी आखों के आगे बेरहमी से मेरे मां-बाप को मार दिया, वो याद करके आज भी मैं थर्रा जाता हूं"
- राजेन्द्र कुमार (अब अनाथ आदीवासी बच्चा), दन्तेवाड

"मैं भी बड़ा होकर पुलिस बनूंगा, जिन नक्सलियों ने मेरे पापा को मारा, मैं उन्हें मार दूंगा"
- अभिषेक इन्दुवर (उस पुलिस आफिसर का बेटा जिसका सर काट कर फेंक दिया गया)

छत्तीसगढ़ में एक आयोजित कार्यक्रम के बाहर खड़े थे कुछ तथाकथित “प्रायोजित" बच्चे. वह बच्चे जो अब अनाथ हैं. मार दिया उनके मां-बापों को मानवाधिकार वालों के चहेते नक्सलवादियों ने.

अब यह बच्चे इन्तज़ार करते हैं मानवाधिकार वालों की 'कारों' के आगे ताकि वह पूछ सकें - "मुझे अनाथ करने वालों को आप क्यों बचाना चाहती हैं आंटी़?",

कोई तो हो जो इनसे बात करने के आगे इनकी बात करने की भी सोचे.

कोई तो हो जो इन बच्चों के विरोध को प्रायोजित कहने से पहले यह भी सोचे की नक्सलियों और उनके हिमायतियों के आयोजनों का प्रायोजन कौन करता है?

जो लोग नक्सलियों के शिकार बच्चों को प्रायोजित कहते हैं वो नक्सलियों के चमचों के आयोजन को इतनी आसानी से इजाजत क्यों दे देते हैं?

क्या सिर्फ फोटो खिंचवाने की आस में?

छप गई फोटो. अब तो आपकी ही जये हे, जय हे, जय हे.

क्या आयोजन, प्रायोजन, अपनी बात कहने का अधिकार सिर्फ नक्सलियों को है?

अगर आपको प्रायोजित करना हो तो किन्हें चुनेंगे, ये बच्चे या नक्सलियों के मददगार मानवाधिकारवादियों को? बताइयेगा जरूर.

medha
ये हैं वो ‘प्रायोजित’ अनाथ (फोटो साभार: पत्रकारिता ब्लाग)