Thursday, October 29, 2009

मासूम माओवादी, और भूख दो कौर रोटी की. उफ!

मेरा दिल लरज रहा है. अभी-अभी माओवादी मासूमियत की कौशल गाथा पढ़ कर चुका हूं. मासूम, भोले, प्यारे, बेचारे नक्सली भूख से इतने बेहाल हैं कि छुरी-कांटों से लैस होकर (बंदूक तो वहां थी नहीं! कहते हैं कुछ खास लोग) ट्रेनों की पैन्टृी कार लूट रहे हैं.

मजबूरी की हद क्या होती है? जब 150-200 लोगों की भीड़ को एक साथ मिलकर ट्रेन रुका-रुकाकर कंबल और पैन्टृी कारें लूटनी पड़ें तो यह मजबूरी की हद नहीं, बेहद है.

लेकिन कितनी डिग्नीफाइड मजबूरी है: ट्रेन पर ग्राफिटी पोत-पात के, एक अदद पैन्ट्री कार लूट-लाट के, दो-तीन मुसाफिरों को सूत-सात के ही तसल्ली को प्राप्त हुई.

किसी को गोली नहीं मारी, ट्रेन जलाई नहीं… तारीफ! तारीफ! पुल बंधने ही चाहिये. बांध रहें है हमारे महान वामपंथी कर्मठ. इन पुलों से होकर एक क्रांति की गाड़ी चलेगी जो भूखे ट्रेन-पैन्ट्री-कार-लूटकों को खाना मुहैया करायेगी.

वैसे मजबूरी जो न कराये! पहले भी मजबूरियत के चलते नक्सलियों को क्या नहीं करना पड़ा, कुछ बानगी देखिये:

- 2008 में नयागढ़ में पुलिस अस्त्रागार पर हमला और लगभग 1100 बंदूको, Ak-57, कारतूसों की लूट. (ये भी खायेंगे!)
- 2008 में ही छत्तीसगढ़ में 131 नागरिक, 63 सुरक्षा कर्मी, 14 पुलिस आफिसर की हत्या. इलेक्शन के दौरान ही 20 सुरक्षा कर्मियों की हत्या.
- 2008 में ही झारखंड में नक्सलियों ने 400 से ज्यादा लूटपाट की वारदातें कीं.  250 से ऊपर लोगों की हत्या की गई.
- 2009 में पूरे लालगढ़ को भूखे नक्सलियों ने अपने कब्जे में ले लिया बाद में सेना ने छुड़ाया.
- इसी साल नक्सली हिंसा ने नये प्रतिमान छुये, कई नये प्रदेश इसकी गिरफ्त में.

नक्सलियों के भोलेपन की एक और उदाहरण दिया इनके एक नेता किशनजी ने, यह खुला चैलेन्ज दिया कि 2011 तक वह कलकत्ता में नक्सली संघर्ष शुरु करवा देगा.

नक्सली भूख भोजन नहीं, सत्ता की है
नक्सली नेताओं ने भूख को भुनाने का पुराना फार्मूला बस उपयोग भर ही किया है. इसके नाम पर चार-छ: क्रांती ये दूसरे देशों में करा चुके हैं. वहां के बड़े-बड़े पैलेसों में इनके नेता अब माल उड़ा रहे हैं लेकिन लोग अभी भी भूखें हैं. क्या है कोई नक्सली जो इस सच्चाई को भी झुठला सके?

नक्सली कहते हैं – जहां हक न मिले वहां लूट सही, जहां सच न चले, वहां झूठ सही

हक कि जो लड़ाई है उसे और भी रास्ते हैं लड़ने के. मौके इन्हें भी मिले है हक दिलाने के. मत भूलो कि नक्सलियों का गढ़ उसी प्रदेश में है जहां पिछले बीस साल से माओ के चेले ही काबिज हैं. क्यों है वही प्रदेश देश के सबसे भूखे, गरीब, अशि़क्षित प्रदेशों में?

जो बंदर-बांट नेता कर रहे हैं उसे रोकने का रास्ता इन्हें लोकतंत्र में नहीं दिखता. इन्हें नहीं दिखता कि नेता बदले जा सकते हैं.

इन्हें क्रांति का एक ही रास्ता पता है – क्रांति जो बंदूक की नली से निकले (माओ उवाच), लेकिन यह क्रांति भी सिर्फ सत्ताधारियों की जेबों में होगी, गरीब फिर भी लुटेगा for the pigs will be no different than the humans.

इन झूठों, प्रपंचकारियों, मक्कारों को भूखों की आवाज समझेंगे हम?

Reference:

http://www.ipcs.org/pdf_file/issue/IB93-Kujur-Naxal.pdf
http://en.wikipedia.org/wiki/Naxalite

Tuesday, October 27, 2009

बिकोज़ छत्रधर महतो इस ए गुड मैन

अपनी एक ट्रेन माओवादी आतंकवादियों के कब्जे में है. कई सौ यात्री हैं उस ट्रेन में उन सब की जिंदगी दांव पर है, और सौदा करने वाले हैं हमारे देश के नेता. माओवादी भी तैयार है सौदे के लिये, 1 के बदले 400. बोलो क्या कहती हो दिल्ली सरकार? छत्रधर महतो को छोड़ेंगे?

कंधार के नाम पर भाजपा सरकार को पानी पी-पीकर कोसने वाले यतींद्रनाथ के बदले एक सौदा पहले भी कर चुके हैं. माओवादी इमानदार साबित हुए. POW को छोड़ दिया. दोनों तरफ से अच्छी डील हुई, दोनों सौदागर इत्मीनान में है, पार्टी रिलायबल है, डील चलती रहे.

इसलिये माओवादियों की तरफ से ताजी आफर इतनी जल्दी आ गई, पहले 1 के बदले 10 थे, अब 500 के बदले सिर्फ एक – छत्रधर महतो. क्या अपनी सरकार को सौदा बुरा लगेगा?

{कंधार-कंधार-कंधार} बार-बार मुझे याद आता है कंधार. अब सरकार उन्हीं की है जिन्होंने कंधार का इतना गहन विश्लेषण किया. लेकिन फैसला दूसरा होगा इसकी अपेक्षा व्यर्थ है क्योंकि यतीन्द्रनाथ के मामले में एक उत्साहवर्धक precedent दिया जा चुका है.

मीडिया का गेम भी चालू हो चुका है. ट्रेन तक पुलिस/आर्मी पहुंचे न पहुंचे, कुछ चुनिंदा चैनलों के नुमाईंदे पहुंच गये. ऐसा लगता है जैसे तैयार बैठे थे.

कंधार में देश का हाथ मरोड़ा जा रहा था अजहर मसूद को छुड़ाने के लिये. वो तो एक आतंकवादी था. अब जो सामने है उसके गुट को कोई आतंकवादी नहीं कहता. देश का एक खास  कुबुद्धिजीवी वर्ग तो सिर्फ इनके दर्द में जीता, दर्द में मरता है. ये लोग गरीबों के मसीहा, सर्वहारा वर्ग को जिताने वाले, व दुखियों के हमदर्द हैं. तो भाई जब अजहर मसूद जैसे शैतान को छोड़ सकते हैं तो फिर छत्रधर महतो को क्यों नहीं, खासकर तब जब ‘ही इज़ ए गुड मैन’ जैसा कि एनडीटीवी में लगातार दिखाया जा रहा है.

थू ! थू sss

ताजा समाचार है कि छ्त्रधर के लोगों ने ट्रेन छोड़ दी. मतलब डील जमी नहीं, या यह सब एक जबर्दस्त पब्लिसिटी स्टंट था?

माओवादियों के पीछे आखिर बुद्धीजीवी दिमाग है न.

Saturday, October 17, 2009

क्या राष्ट्रवाद एक चुका हुआ विचार है?

वैसे तो देश और राष्ट्र का विचार मुझे प्रिय है, लेकिन जब सोचने बैठता हूं तो कभी-कभी यह भी लगता है कि कहीं यह अवधारणा भी गुटबाजी का एक और स्वरूप तो नहीं? किसी भी राष्ट्रवादी के लिये यह उहापोह बड़ी समस्या है. बात ऐसी है जैसे मदर टेरेसा ने कहा था कि मेरे पास 'faith' नहीं है. तो राष्ट्र में विश्वास करने वाले की तरफ से आज कुछ तर्क राष्ट्र के खिलाफ ही.

- राष्ट्र भी आखिर गुटबाजी का दूसरा स्वरूप ही तो है.
लगभग हर बड़ा mammal समूह में रहता है. भेड़, हिरण, बंदर, बबर शेर, ये सब समूह में ही रहते हैं. हर एक individual समूह में अपनी जगह बनाना चाहता है. मानव भी अपवाद नहीं. हम हर जगह गिरोहबन्दी के मौके ढूंढ़ते हैं. परिवार, सोसायटी, मित्र, रिश्ते-नाते, गोत्र, धर्म, छोटे बड़े समूह हमारे हर और है. धर्म या परिवार की तरह देश भी मानव की गुटबंदी का एक रूप भर ही तो है जिसमें हम सोचते हैं कि हमारा एक स्थान है, और उसमें से दूसरे को बाहर रखना है.

अगर में धर्म का समर्थन नहीं करता, तो राष्ट्र का समर्थन कैसे कर सकता हूं? समूह धार्मिक हो, या राष्ट्र के नाम पर उसके क्रिया-कलापों में एक रूपता है. हर समूह अपनी सीमा बढ़ाना चाहता है चाहे इसके लिये दूसरे समूह या वयक्ति को नुक्सान ही न पहुंचाना पड़े.

- जो राज्य थे, वही अब राष्ट्र हैं.
आखिर राष्ट्र क्या है? कैसे निर्धारण किया जा सकता है कि फलाना सारा इलाका एक राष्ट्र है, और उस इलाके में रहने वाले सारे व्यक्ति उस राष्ट्र का हिस्सा हैं? हमारी सीमा यहां खतम होती है, और दूसरे की यहां से शुरु. क्या आधार है? क्या सिर्फ राज्य? मतलब किसी वक्त में अगर एक खास राजा या किसी प्रकार की सरकार ने उस इलाके पर अधिकार जमा रखा हो तो उसे हक मिल गया है उसे किसी दूसरे इलाके से अलग करने का?

क्या राष्ट्र सेवा और राज्य सेवा में कोई फर्क नहीं होना चाहिये? किसी इलाके के लिये प्रतिबद्धता ही क्या राष्ट्रीयता है? अगर हां तो यह high moral कैसे हुआ? किसलिये इसे वह दर्जा इसको मिले?

- राष्ट्र स्वार्थीपन की पैदाइश हैं
राष्ट्र का जन्म क्या मानव स्वार्थ से ही नहीं हुआ? जिसकी जितनी शक्ति बन सकी उतना इलाका अपने कब्जे में कर वहां राज्य स्थापित कर उसे राष्ट्र का नाम दिया और फिर राज्य के नाम पर कर वसूल कर वहां के संसाधनों पर कब्जा किया और दूसरों को उनका फायदा उठाने से रोका. क्या यही राष्ट्रीयता की सच्चाई नहीं?

पंजाब में भारत नदियों को रोकता है, और चीन हिमालय में. इलाका उनका है, राष्ट्र भी लेकिन यह हक किसका है कि मानव को वंचित किया जाये राष्ट्र के नाम पर?

अमेरिका जैसे संसाधन संपन्न देश गरीब देशों से संसाधन नहीं बांटना चाहते. जिसके पास जो आ गया है उस पर वह काबिज होकर बैठा है. कोई नहीं चाहता कि उनके राष्ट्र के साधन बंटे.

- तो फिर राष्ट्रवाद का क्या मतलब रह जाता है?
अगर धर्म के नाम पर व्यक्ती की हत्या गलत है तो राष्ट्र के नाम पर सही कैसे हो सकती है? धर्म परिवर्तन रोकने के लिये सशस्त्र संघर्ष को रोका जाता है और इस तरह धर्म की सुरक्षा करने की निंदा सब करते हैं. मैं भी. तो फिर किसी राष्ट्र के नाम पर सेना और संघर्ष के खिलाफ मन क्यों नहीं हो पाता?

- राष्ट्रवाद भी एक कमजोरी रही
मानव का ध्येय अंतत: savagery से civilization की और बढ़ना है लेकिन यह मंजिल राष्ट्र से होकर नहीं जाती. राष्ट्र भी धर्म, जाती और रंग के समान एक बंधन ही है आखिर और मानव को सच्चे तौर पर सभ्य बनने के लिये इससे भी ऊपर उठना होगा.

Wednesday, May 20, 2009

अमर सिंह की कांग्रेस को धमकी

खबर के अंदर की खबर पढ़ना भी एक कला है. अब राजनीति से दो-चार होते कई साल बीत चुके हैं तो राजनेताओं की चालों का अंदाजा लगाना भी अब कुछ-कुछ समझ में आने लगा है. amarsinghnishanchiबात है अमर सिंह की. ये पुराने चालबाज हैं. इनके पत्ते सधे होते हैं और अपने काम निकालने के लिये यह हर प्रपंच कर लेते हैं. इसी कला में निपुण होने के चलते यह मुलायम के लिये अपरिहार्य हो गये. भाई अब तो हालात यूं है कि आजम खान ने भी इनसे पंगा लिया तो उनकी चला-चली हो गई.

तो बात है अमर सिंह के कल के बयान की. विश्वास मत के इतने दिनों बाद, चुनाव के भी बाद अब अमर सिंह के अंदर का ईमान जाग गया और उन्होंने खुलासा कर ही डाला की सोमनाथ चटर्जी ने उनसे कांग्रेस समर्थन को कहा था.

क्यों? अब कैसे इन पुरानी बातों को याद कर लिया? क्या दुश्मनी हो गयी ताजी-ताजी सोमनाथ से? बुढऊ की मिट्टी क्यों खराब करने पर तुले हैं?

यह सोमनाथ से दुश्मनी नहीं है, सोमनाथ तो घुन है जो पिस गया क्योंकि अमर सिंह अपनी रोटियां सेंकने के लिये आटा बनाने में लगे हैं.

यह गूढ़ बात है. चेतावनी है अमर सिंह कि कांग्रेस को. अगर तुमने हमें लपेटा तो बर्रों के छत्ते को खोल डालूंगा. राजफाश कर दुंगा. पर्दानशीं रहस्यों को बेपर्दा कर दूंगा.

सोमनाथ को लपेट कर उन्होंने सैम्पल दिखाया है कि असल माल पोटली में बंद है, बोलो तो खोलूं.

अमर सिंह कांग्रेस के लिये नोट बांट रहे थे विश्वास मत के दौरान (आइबिएन ने छुपाते-छुपाते भी दिखा डाली). किसके कहने पर?

इतने राज दफन हैं अमर सिंह के सीने में कि जो खुल जायें तो ऐसी पिक्चर का मसाला तैयार हो जाये जिसे हिट कराने के लिये बड़े भैया अमिताभ की भी जरुरत न रहे.

और आप क्या सोच रहे थे? सोमनाथ को बेफालतू में निपटा दिया अमर सिंह ने? नहीं यह निशान्ची अब सारे गुर सीख चुका है, अब यह प्यादों पर वक्त बर्बाद नहीं करता, सीधे वज़ीर का शिकार करता है.

Sunday, May 17, 2009

आडवाणी जी का फैसला सही है

आडवाणी जी ने फैसला किया है कि वह अब विपक्ष के नेता नहीं होंगे. बीजेपी में अभी भी नये स्तरीय नेतृत्व की कमी है, और शायद इतनी जल्दी भरपाई भी नहीं होगी, लेकिन फिर भी आगे की राजनीति के हिसाब से मुझे लगता है कि आडवाणी जी का फैसला सही है.

आडवाणी जी जानते हैं कि यह पांच साल बीजेपी को बहुत काम करना है जिससे वह अगले पांच सालों में वह जिम्मेदारी निभा पाये जिसे निभाते हुये हम उसे देखना चाहते हैं.

इन पांच सालों में बीजेपी को उभरते हुये नेतृत्व की जरुरत है, आडवाणी जी को एक नये नेतृत्व को उभरने का मौका देना है और उसे मदद करनी है.

उन्हें देखना होगा कि बीजेपी सही राह पर चले… लेकिन अगली लड़ाई, अगली पीढ़ी के लिये होगी.

जय हिंद.

Wednesday, May 13, 2009

माओ कि मसखरियां

माओ इतने सालों तक चीन के सर्वोच्च पद पर रहे. इतने बड़े देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचे लोगों से अपेक्षा यह तो है ही कि उनमें ‘common sense’ नाम की uncommon चीज थोड़ी मिले, लेकिन विश्व के बाकी देशों से चीन अपवाद क्यों बने. अपने देश समेत हर देश में सनकी, गैर जिम्मेदार, और नाकाबिल लोग ही सर्वोच्च पदों पर ज्यादा पहुंचते हैं. खैर बात उनकी नहीं माओ की हो रही है. तो आज याद करते हैं माओ कि कुछ ऐसी मसखरियों को जिनकी कीमत चीन के लोगों ने गहरी चुकाई.maomaomao सचमुच माओ ने कुछ ऐसे अजीब फैसले लिये जिन्हें भीषण अदूरदर्शिता और सनक ही मान सकते हैं. देखिये तो जरा: -

1. चिड़ीमार माओ

माओ को सब लोग विश्व के पूंजीपतियों के दुश्मन के रूप में जानते हैं (यह वही ‘महान’ नेता हैं जिन्होंने स्तालिन को विश्वास दिलाया था कि वो पूंजीपति देशों के विनाश के लिये 30 करोड़ चीनीयों को कुर्बान करने से पीछे नहीं हटेंगे.) लेकिन कितने लोग यह जनते हैं कि प्यारे कम्युनिस्ट माओ चिड़ियों के भी कट्टर दुश्मन थे.

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भैया पांच चिड़िया मार दीं, अभी और कित्ती मार के माओ अंकल खुश होंगे?

1958 में उन्हें पता चला कि चीन के चावल चिडियां खा रहीं है इसलिये चीनी भूखें हैं. तो उन्होंने हुक्म पारित करा दिया – ‘मार चिड़िया’. चीन के किसानों, पदाधिकारियों को कहा गया कि चिड़िया उड़ाओ, चिड़िया के घोसले ढूंढ़-ढूंढ़ के तोड़ो, अंडे फोड़ दो, गुलेल से मार दो. तो लोग लग गये और चीन में लाखों चिड़ियाओं ने अपनी जानें गंवा दीं.

तो क्या चीन के चावल चिड़ियों से बच गये? लोग भूखे नहीं रहे?

नहीं भाई, बाद में बात खुली कि जितने चावल चीन की चिडि़या खातीं थीं उससे ज्यादा तो वे उन कीड़ों को खाती थी जो फसल बर्बाद करते थे. चिडि़यां मरीं तो कीड़ों की ऐश हो गयी. चिड़िया रहित चीन में टिड्डियों की संख्या में अचानक बढ़ोतरी हुई और इस हद तक बढ़ोतरी हुई कि फसलें टिड्डियों के पेट में गईं और चीन में अकाल पड़ा.

चीन के चावल टिड्डियां खा गईं.

2. गरीबमार माओ

माओ के धत्करम चिड़ियां मार कर ही रुक जाते तो क्या गनीमत होती, इन्होंने तो अपने देश के बाशिंदों को भी नहीं बख्शा. माओ को नारे गढ़ने का शौक था, चीनी भाषा में खूब आऊं-माऊं नारे गढ़े उन्होंने, उसमें से एक था ‘The great leap forward’ मैं इसका अनुवाद करूंगे ‘जेsss लंबी छलांग’.

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हमाला प्याला चेअलमैन माओ अंकल हमें छलांग लगवा लहे हैं

तो पहले माओ ने चीन को चलाया, फिर कुदवाया और तब भी दिल नहीं भरा तो ‘जेsss लंबी छलांग’ लगवायी.

इस जेsss लंबी छलांग में माओ ने चीन की कहानी कुछ यूं कर दी

1) स्वाधीन खेती के पर कतर दिये और किसानों को मजबूर किया कि वो झुंड के झुंड में पब्लिक खेती पर काम करे. इसके लिये उन्हें मजबूर किया गया कैद करके.

2) किसानों से सस्ते दरों में अनाज खरीद कर महंगे में बेचा, किसानों को सिर्फ सरकार को ही अनाज बेचने की इजाजत थी

3) घर-घर में गांव वालों को मजबूर किया गया कि वो लोहा बनाने के लिये भट्टी लगवायें और उन्हें लोहा बनाने का टार्गेट दिया गया. इस काम में लोग सब तरफ लकड़ी काटते डोलते रहे और टार्गेट पूरा करने के लिये लाखों ने अपने घर के बर्तन-भांडे गला डाले. नहीं करते तो माओ क्या करते वो हम बताना पड़ेगा आपको?

तो किसान को किसानी नहीं करनी दी, दे दनादन बेगार कराई (जिससे बचाने के लिये सत्ता में आये थे अपने कम्युनिस्ट शोषक). इसका असर यह हुआ कि खेत में अनाज पड़ा का पड़ा रह गया. लोगों को पार्टी के गुंडो ने परेशान किया (जैसा आजकल बंगाल में कर रहे हैं सीख कर) और गिनिये 1, 2, 3, नहीं पूरे 4.3 करोड़ लोग उस अकाल में मर गये जो इस सब नौटंकी के कारण पड़ा. कहते हैं उस बार चीन की 55 प्रतिशत भूमी अकाल ने चपेट डाली.

माओ की चंपू सरकार ने कितने ही लोगों को इस सब अत्याचार के बारे में खबर लीक करने के अपराध में मौत के घाट उतार दिया.

भाइ अगर हिन्दुस्तान में ऐसा होता तो इतना तो है कि सरकार गिर जाती, लेकिन अपने कम्युनिस्ट एक बार काबिज होते हैं तो हटते हैं कहीं? उन्हें तो उखाड़ना पड़ता है.

3) यारमार माओ

इत्ता सब माओ ने करवा डाला तो कहीं से विरोध तो होना था? कुछ लोगों में तो होती है इतनी दम कि मृत्यु की कीमत पर भी गलत बात का विरोध किया जाये, तो ऐसे लोग उभरने लगे जो माओ की गलतियों के बारे में खुलकर बात करने लगे. आखिरकार जब माओ ने देख लिया कि सबको वो नहीं मार सकता तो माओ सत्ता के केंद्र से उतर गया और नाम का सत्ता अध्यक्ष हो गया, लेकिन माओ को क्या यह स्वीकार्य होता कि डेंग ज़ियाओपिंग और लिउ शाउकि देश को चला पायें.

lalsenagoonsतोड़ो, मारो, पीटो, खसोटो, अपना इतिहास बच न जाये

तो जब यह लोग सत्ता के केंद्र में आये तो माओ ने अपने इन पुराने दोस्तों की जड़ें खोखली करने का प्लान बनाय. उसने एक ‘सांस्कृतिक क्रांति’ करवाने के नाम पर नौजवान पीढ़ी को उकसाया, उन्हें गुटबंदित किया और एक नयी शक्ति बनाई जिसे नाम दिया गया ‘लाल रक्षक’ (The Red Guard).

तो क्या रक्षा की होगी इस ‘लाल सेना’ ने? इन लोगों ने क्रांति के नाम पर चीन के इतिहास को मिटा डालने में कसर नहीं छोड़ी. इन्होंने मूर्तियां तोड़ दीं, पुरातन इमारते ध्वस्त कर दीं, पुरानी बहुमूल्य किताबें जला दीं, यहां तक की परिवारों तक के लिखित इतिहास को मिटा दिया. ये था माओ का सांस्कृतिक कार्यक्रम.

ये इस हद तक हुआ कि जब यह लाल रक्षक चीन के ऐतिहासिक नगर ‘फोर्बिडन सिटी’ की तरफ बढ़ने लगे तो इस धरोहर के भी नष्ट हो जाने के डर से डेन्ग ज़ियाओपिंग ने शहर के दरवाजे बन्द करवा कर सेना तैनात करवा दी.

इस सेना ने के लोगों ने जासूसी कर के बहुत सारे लोगों को ‘क्रांति विरोधी’ करार देकर मौत के घाट उतरवाया. चाहे सरकार के उच्च अधिकारी हो, या निचले स्तर के, हर कोई डर में जीता था कि कब किसी भी बात पर उसे क्रांति विरोधी का नाम देकर टपका देंगे.

आखिरकार ये लाल सेना खुद ही गुटों में बंट गई और चीन की आधिकारिक सेना के हथियार आदी छीन कर जब उन्होंने आपस में लड़ना शुरु किया तो सरकार हरकत में आई और इस नालायकी का अंत किया.

तो माओ कि कुछ ऐसी दास्तानें आपने सुन ली जो ‘ईमानदार’ (या ईनामदार) कम्युनिस्ट लेखक आपको नहीं बताते. कम्युनिस्ट कारनामें और भी हैं, क्या-क्या कहें, क्या-क्या सुनायें.

Sunday, May 3, 2009

वो एक कमजोर कौम थी…

हिन्दू और यहूदी धर्म में वैसे तो कोइ समानता नहीं, लेकिन फिर भी आज दोनों धर्म समान धरातल पर खड़े दिखते हैं. यहूदी धर्म से जहां इस्लाम और इसाइयत दोनों का ही उद्भव हुआ, वहां हिन्दू धर्म तो खुद ही बहुत सारे धर्मों का समागम है, और भी कई दूसरे धर्मों का जन्म उससे हुआ.

दोनों ही धर्म पुराने हैं लेकिन जहां यहूदी धर्म अब धरातल से लगभग मिट चुका है (इसके सिर्फ 1 करोड़ बीस लाख मानने वाले ही दुनिया में हैं) वहां हिन्दू धर्म अब भी प्रबल रूप से जीवित है (लगभग 85 करोड़ मानने वाले). दोनों ही धर्म अब मुख्य रूप से एक राष्ट्र में सिमट चुके हैं और दोनों पर ही अब्रामिक धर्म (इस्लाम और इसाइयत) की टेढ़ी नजर है.

दोनों ही धर्मों का जोर प्रसार और लोगों को अपने धर्म में शामिल करने पर नहीं है.

किसी जमाने में यहूदी बेहद कमजोर कौम हुआ करती थी. यह कौम पूरे युरोप में बिखरी हुई थी और अमेरिका में अपना प्रभाव बनाना शुरु ही किया था. संख्या में कम, लेकिन आर्थिक रूप से संपन्न और पढ़े-लिखे लोगों की यह कौम बहुत से इसाइयों की आंखों में खटकती थी. पूर्वाग्रह की हद क्या होगी यह इससे ही समझ सकते हैं कि शेक्सपीयर तक ने अपने नाटक मर्चेन्ट आफ वेनिस में यहूदी व्यापारीयों को खुल कर कोसा था. याद है आपको शाइलॉक? ये भी याद करिये कि जोर उसके उस खास वर्ग के होने पर बहुत था.

असल में इसाइयत का यहूदियों से पुराना बैर था, उनके नबी (जीसस) को भी आकर यहूदियों के कहने पर ही कत्ल किया गया था. बहुत दिनों तक इसाई यहूदियों द्वारा दमित भी रहे, लेकिन रोमन राजा के इसाई धर्म अपनाने के बाद इसाईयत का जोर युरोप में जो हुआ वह अब तक चालू है. धीरे-धीरे यहूदी और युरोप के बाकी धर्म हाशिये पर चले गये. यहूदी भी इस नई व्यवस्था में मिल गये. अब वह न शासक रहे न शोषक, वर्ण व्यवस्था में भी उनका स्थान दोयम था, लेकिन अपनी मेहनत लगन और अक्ल से वह समाज में आगे रहे.

लेकिन उनके पास न सामरिक शक्ति थी, ना राजनैतिक, और यह बात उन्हें बहुत महंगी पड़ी. द्वितीय विश्वयुद्ध में 30 लाख यहूदियों को हिटलर और दूसरे यहूदी विरोधियों ने मार दिया और यहूदी कुछ नहीं कर पाये. वह एक कमजोर कौम थी जिसपर जो चाहे, जैसा चाहे अत्याचार कर सकता था. हिटलर ने यह्युदियों को शहर से दूर अलग इलाकों में रहने पर मजबूर किया, और हर यहूदी को अपनी पहचान के लिये खास मार्क पहनना होता था (स्टार) जिस तरह आज तालिबानी पाकिस्तानी में इस्लाम को न मानने वालों को पहनना होता है.

यहूदियों ने बुरे दिन पहले भी देखे थे, लेकिन हर बार वो आगे बढ़ गये और पुराने दुख भूलते गये. लेकिन जिन्हें यह यहूदियों कि कमजोरी लगी, उन्होंने इसे कायरता सामझा. उस समाज में यह बात प्रचलित थी कि यहूदी में हिम्मत नहीं होती. वह डरपोक होता है. जबर मुस्लिम और इसाई दोनों ही इस कमजोर कौम को दबा-कुचल कर खुश थे.


यह मौसम्बी/संतरे नहीं यहूदियों को मारना चाहता है,
बेशक हिज्जे न आते हों, नफरत आती है


  1. यहूदियों ने एक भी युद्ध नहीं लड़ा.
  2. उनकी कोई सेना नहीं थी.
  3. वो सब के सब गैर सैनिक नागरिक थे जिन्हें द्वितीय विश्व युद्ध में पकड़-पकड़ कर मारा गया, उनके साथ कैम्पों में अमानवीय व्यवहार किया गया और गैस चैम्बरों में भर दिया गया.
बिना युद्ध लड़े एक कौम के 30 लाख लोगों की हत्या?
जो उस समय कुल यहूदी जनसंख्या की आधी थी!
मतलब एक कौम को आधा साफ कर दिया गया!

जिन कमजोर और बेबस यहूदियों को इतनी आसानी से मौत दी गई आज वह कहा हैं?
  • उनका प्रभुत्व अमेरिका की राजनीति पर है.
  • दुनिया का हर रैडिकल यहूदियों के नाम से कांप उठता है.
  • यहूदी लड़ाके दुनिया में सबसे ज्यादा खतरनाक हैं.
  • यहूदीयों के अस्त्र-शस्त्र बहुत उन्नत हैं.
आज यहूदी ऐसी जगह रहते हैं जहां वो हर तरफ से दुश्मनों से घिरे हैं. फिर भी उनका वजूद प्रबल है. उनका हर दुश्मन उनसे घबराता है और उनके आगे पानी मांगता है.

क्यों?
क्योंकि 30 लाख लोगों को खोने के बाद यहूदियों ने फैसला किया –

Never again!

दोबारा कभी नहीं.

यही उनकी जीवनशैली है – दोबारा कभी नहीं!
आज के यहूदियों में मुझे कल के हिन्दुओं का चेहरा दिखाई देता है.
क्योंकि दुनिया में यह भी इतने ही अकेले हैं जितने की यहूदी. रैडिकल इस्लाम और इसाइयत का जितना दबाव हिन्दुओं पर पढ़ रहा है उसकी वजह से हिन्दू धर्म ने जो राह पकड़ी है वह शायद उसी मोड़ पर रुकेगी जिस पर आज यहूदी हैं.

सरकार को पता है कि स्विस बैंको में माल किसका है, लेकिन आपको पता नहीं चलेगा

कांग्रेस के काम में भी बात है. वह जो भी करते हैं खुल्ले में, पूरे शानो-शौकत गाजे-बाजे के साथ करते हैं और कहते हैं, लो बेट्टा, कल्लो जो करना है. अपने पूर्व वित्तमंत्री चिदम्बरम जी ने पहले कहा कि उन्हें जर्मन सरकार ने नाम नहीं दिये – ‘लीगल प्रोसेस है भाई, समय लगता है’. लेकिन सुप्रीम कोर्ट में दर्ज ताजे हलफनामे में सरकार ने कहा की हां हमें नाम मालूम है.

खबर यहां पढ़ सकते हैं :

पहले ही पैरा में लिखा है : सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को हलफनामा दिया कि हमारे पास जर्मनी से स्विस बैंको के खातेदारों के ब्यौरे हैं, लेकिन हम 'confidentiality' की वजह से नाम जाहिर नहीं कर सकते.

नाम मालूम हैं?

मतलब उन्हें पता है कि किस-किस ने देश का धन चोरी किया.

piles_money बहुत सही खबर सुनाई है सरकार है. नाम पहले ही पता चल गये होंगे. उधर आडवाणी चिल्ला रहे थे कि भाई नाम लाओ, नाम लाओ इधर तो सारा कार्यक्रम हुआ बैठा है बिना बात को चिल्लाये आडवाणी. चलो जब सरकार को इन बेईमानों के नाम मालूम पड़ गये तो हमें भी चैन मिला. अभी सरकार करेगी प्रेस कान्फ्रेंस और छपेगी सारे नामों की लिस्ट. फिर जनता भी नेताओं वाले जूते लगा-लगाकर इन चोरों के सर सुजा देगी.

सही प्लानिंग है न भाई? अरे.. कहां चले? जूता खरीदने? जरा ठहरो भाई जरा बाकी एफिडेविट तो पढ़ लें.

ओये! यह क्या लिखा है? सरकार कहती है कि जनता को नहीं बतायेंगे कि किन-किन के नाम है.

जनता को नहीं बतायेंगे? क्यों नहीं बतायेंगे? क्या इसमें भी देश की सुरक्षा में जंग लग जायेगी? आतंकवादी छोड़ने पड़ेंगे?

नहीं, चोर पकड़ने पड़ेंगे.
भाई जब सरकार को मालूम पड़ गया है कि चोर कौन-कौन है तो क्या हम यह अपेक्षा कर सकते हैं कि सरकर धरे उन्हें? सरकार ने कह तो दिया कि कर विभाग करेगा, लेकिन कब करेगा?

आपने सुना कि कोई बड़ा आदमी पकड़ा गया?
कहीं टैक्स बाबू रेड डालने गये? या फिर ये सिर्फ हमें आपको परेशान करने के लिये हैं.

चुनाव होते-होते तक सरकार ने कभी नहीं कहा कि हमें पता है,
वो कहते रहे कि ‘क्यों बोला, भई क्यों बोला’ अब जब चुनाव हो चले, वोट डल चुके तो सरकार ने कह दिया, हमें पता है, लेकिन हम कुछ नहीं करेंगे बोलो क्या कल्लोगे?

तो वोट दे दिया आपने? पेटी बंद. अब जाओ नहीं लाते देश का पैसा वापस. नहीं बताते चोरों के नाम

क्यों नहीं बताते?
भाई हिन्दू संस्कृति है, बीवियां अपने शोहरों के नाम नहीं लेती. हमारी सरकार कोई खसमानूंखानी थोड़े ही है.


confidentiality? किसको बचा रही है सरकार?

Thursday, April 30, 2009

राष्ट्रवाद क्यों?

राष्ट्रवाद क्या है? जमीन के एक टुकड़े से प्यार? किसी जगह की सभ्यता, वहां रहने वाले लोगों, वहां की हर चीज के लिये दिल में जज्बा? क्यों हो हमें राष्ट्र नाम के इस टुकड़े से लगाव? क्यों हम बात करें इसके लिये, क्यों हम लड़ें राष्ट्र के लिये? क्यों हम विरोध करें उनका जिन्हें हमारे राष्ट्र से विरोध है और जो लगें है इसे खोखला करने?

यह है हमारा राष्ट्र भारत, हिन्दुस्तान, इन्डिया

आखिर क्यों किसी राष्ट्र के सभी नागरिकों का अपने राष्ट्र के प्रति समर्पित और राष्ट्रवादी होना जरूरी है? क्या हम कोई दूसरा रास्ता नहीं चुन सकते, जैसे कुछ लोग साम्यवादी होते हैं, कुछ पूंजीवादी, आखिर इतने सारे ‘वाद’ हैं तो राष्ट्रवाद को इतना बड़ा क्यों समझें? राष्ट्रवादी न होना इतनी दिक्कत वाली बात क्यों है?

क्योंकि

The Nation is your first line of defense

राष्ट्र आपकी सुरक्षा का पहला घेरा है
अगर राष्ट्र सुरक्षित है तो प्रांत सुरक्षित है
अगर प्रांत सुरक्षित है तो शहर सुरक्षित है
अगर शहर सुरक्षित है तो ग्राम सुरक्षित है
अगर ग्राम सुरक्षित है तो मोहल्ला सुरक्षित है
अगर मोहल्ला सुरक्षित है तो घर सुरक्षित है
अगर घर सुरक्षित है तो आपका परिवार सुरक्षित है

यह मत समझिये की राष्ट्रवादी होना एक बहुत महान फिलासफी का पालन करना है. राष्ट्रवादी होना अपने परिवार व खुद अपनी सुरक्षा के प्रति सजग होना है. जो राष्ट्रवादी नहीं है वह खुद अपने परिवार की सुरक्षा के लिये खतरा है और दूसरों के भी.

बार-बार देखा गया है कि जो लोग अपने देश की राष्ट्रद्रोही ताकतों को रोकने में असफल रहे उन्होंने सब कुछ खो दिया, सम्मान, सुरक्षा, परिवार.

इसलिये जो राष्ट्रद्रोह की बात करे, या जिनसे राष्ट्र की सुरक्षा प्रभावित हो उन्हें रोकना जरूरी है. अगर कोई राष्ट्र की सुरक्षा को हानि पहुंचाने वाले तत्वों का समर्थन कर रहा है और आप बिना प्रतिवाद करे सुन रहे हैं तो आप अपने देश ही नहीं अपने पूरे वजूद को, हर उस चीज को जिससे आपको प्यार है, खतरे में डाल रहें हैं.

इसलिये राष्ट्र के खिलाफ बात को देख-सुन कर निकल मत जाइये, प्रतिवाद कीजिये, विरोध कीजिये, अपनी बात संयत और संतुलित शब्दों में कहिये लेकिन जो गलत है उसे गलत कहने से डरिये मत, शब्दों को क्षीण मत करिये.

राष्ट्र की सुरक्षा ही व्यक्ति की सुरक्षा है.

Wednesday, April 22, 2009

धर्म ने दुनिया को क्या-क्या दिया

धर्म ने दुनिया को क्या-क्या नहीं दिया. आज जो भी कुछ है इस दुनिया में सब धर्म की ही वजह से है. धर्म न होता तो वह सब भी नहीं होता जो हमारी सभ्यता की निशानी है. फिर दुनिया शायद एक अलग ही जगह होती. लेकिन धर्म की वजह से वह सब है, जो ऐसे नहीं होता. क्या-क्या नहीं दिया धर्म ने दुनिया को.

दिया:

1. पुराने कबीलाई असभ्य अत्याचारी कानूनों को शरिया, या धार्मिकता के नाम पर लागू कर मानवों से आधारभूत स्वतंत्रता भी छीन लेने का हक.

2. जाति के नाम पर धर्म के बंटवारे से पूरे समाज में इतनी बड़ी खाईयां जिन्होंने इन्सान को इन्सान नहीं क्षत्रिय, ब्राह्मण, बनिया, शूद्र बना दिया, और इतने पूर्वाग्रह हर जाति के अंदर भर दिये कि उनसे बाहर निकल कर इन्सान को इन्सान समझना मुश्किल हो गया.

3. अपने धर्म के प्रसार के लिये हर जायज नाजायज तरीके का इस्तेमाल करना और उसे सही समझना.

विज्ञान ने दुनिया को उर्जावान किया और धर्म ने शक्तिहीन. विज्ञान की ऊर्जा का इस्तेमाल धर्म ने युद्ध के लिये किया. अब धर्म इस मोड़ पर मानव सभ्यता को पहुंचा चुका है कि इसी रास्ते पर आगे चलने की कीमत अपनी सभ्यता खोकर ही चुकानी होगी.

जिस धर्म में नये तौर-तरीकों के कपड़े पहनना मना है, नये मनोरंजन के साधन इस्तेमाल करना मना है, नये युग में जीना मना है, वो बड़ी आसानी से नये तरीके के हथियार, असले और युद्ध सामग्री इस्तेमाल कर लेता है, और उसमें उन्हें कोई कोन्ट्राडिक्शन नहीं दिखता.

क्या एटम बम का वजूद मात्र ही इस बात का सबूत नहीं है कि

खुदा नहीं है

भगवान नहीं है

ईसा नहीं है

और भगवान का हर वो रूप नहीं है जिसे हमने माना

तो कब तक इस झूठ के सहारे इन्सानों पर अत्याचार होगा?

allbornatheiststheistarcj1

Saturday, April 18, 2009

व्हाट अ कान्फीडेन्ट मैन!

ये सारे वो ‘कान्फीडेन्ट मैन’ हैं. इनका कान्फीडेन्स का राज इनका खुद पर नहीं अपने गुर्गों पर भरोसा है.

akshay pratap singh 
अक्षय प्रताप सिंह

anna shukla
अन्ना शुक्ला

Baleshwar Yadav
बालेश्वर यादव

Brij Bhushan Sharan Singh
बृज भूषण शरण सिंह

Munna Shukla 24 criminal charges
मुन्ना शुक्ला

owaisi
सलाउद्दीन ओवैसी

     afzalansari
अफज़ल अंसारी

dpyadav
डी पी यादव

guddu pandit   
गुड्डू पंडित

Pappu Yadav
पप्पु यादव

taslimuddin
तस्लीमुद्दीन

prabhunath singh
प्रभुनाथ सिंह

dadan
ददन पहलवान

shahabuddin    
शहाबुद्दीन

conf1
मुख्तार अंसारी

surajbhansingh
सुरजभान सिंह

ये सब आपका वोट चाहते हैं, ज्यादातर अपने लिये, और जिन्हें कानून के चुनाव लड़ने के लिये अयोग्य घोषित किया है वो अपने रिश्तेदारों के  लिये.

  इन सबके चेहरे को देखिये

इनके चेहरे पर तारीख गवाही दे रही है. क्या आप उसे पढ़ सकते हैं?

Friday, April 17, 2009

कसाब को किस कानून के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया है?

अजमल कसाब जब पहले-पहल पकड़ा गया तो रो-रोकर उसने मांग की कि उसको मार दिया जाये, लेकिन थोड़ी ही देर बाद रोना अस्पताल में इलाज करवाने के लिये था. जेल गया तो पहले सारा कच्चा चिट्ठा उगल मारा. बाप-भाई, बहनोई सबके पते दे दिये, लेकिन हिन्दुस्तानी मेहमाननवाजी तो पूरे जग में प्रसिद्ध है, थोड़े दिन सरकारी मुर्ग खाये तो मुटिया गया, हिन्दुस्तानी कानून का हाल-बेहाल भी पता चल गया, इसलिए आजकल वो अपराधी नहीं नेताओं की तरह मांगे कर रहा है.

मुझे यह दो, मुझे वह दो, यह कैदी भी सुविधापरस्त हो चला है. जब ऐसी टोटल ऐश हो तो क्या डर कानून का, इसलिये अदालत में मजे से अपने बयान से मुकर गया. उसने कहा कि बयान तो दबाव में दिया था मैंने.

अगर इसकी जगह कोई और देश होता (जैसे चीन या रूस) तो पट से ट्रायल, और फटाक से फांसी तक पहुंच चुका होता कसाब. कसाब के अपराध को साबित करने के लिये भी लंबा मुकदमा चाहिये?

चलिये अब मुद्दे की बात पर आते हैं. आखिर कौन से कानून हैं वो जिनका उल्लंघन कसाब ने किया जब वो मुम्बई में लोगों की जानें लेने निकला (पूरे 166 लोगों को मारा इन इस्लामिक आतंकवादियों ने).

1. किसी व्यक्ति की जान लेना.
2. देश के खिलाफ युद्ध
3. लूट
4. खूब सारे और छोटे-मोटे कानून...

कानूनों कि लिस्ट लंबी है, और कसाब पर फाइल की गई चार्जशीट भी.... दिल थाम के सुनिये .... 1000, 2000, 3000.... नहीं, पूरे 11,000 पेज की है (पाकिस्तान के बाबा आजम के भी दद्दु गजनी के ताऊ से शुरु की होगी गपड़चौथ)

इस चार्जशीट को पढ़ने और समझने में लगेंगे जज को 20 साल, फिर मामला सुप्रीम कोर्ट तक जाते-जाते और फैसला होते-होते कसाब भी अपनी हूरें कब्जाने जन्नतनशीन हो चुका होगा (बुढ़ापे से मरेगा)

अच्छा वो कानूनों की सूची पढ़ ली थी न आपने? सही सूची है न? कुछ कमीबेशी?.... नहीं है?

भाई आपको बता दें कि महाराष्ट्र (कांग्रेस का शासन है जी इधर) में एक धांसू कानून और है जिसे कहते हैं मकोका (MCOCA). नाम याद रखना. इस धांसू कानून के अंतर्गत कुछ और आतंकवादी बंद हैं जिन पर फौरन कांग्रेस के सेक्युलर सरकार ने मकोका चिपका दिया था और वो जेल में सड़ रहें हैं. वो थे 'हिन्दू आतंकवादी' प्रज्ञा ठाकुर और कर्नल पुरोहित. कांग्रेस को भरोसा है कि प्रज्ञा और पुरोहित कसाब से ज्यादा खतरनाक हैं जिन पर ज्यादा कठोर कानून लगना चाहिये.

वैसे ये भी पता होना चाहिये कि अगर कसाब पर मकोका लगा होता तो वह आज अदालत में मुकर नहीं पाता क्योंकि मकोका के अंतर्गत उच्च पुलिस अधिकारी के आगे दिया बयान मान्य होता है. अब जब कसाब अपने हल्फिया बयान से मुकर गया तो पुलिस की सारी कार्यवाही नये सिरे से होगी (मतलब अफजल को नया हमसाया मिल गया).

और भी जबर्दस्त खबर सुनेंगे?

कसाब के वकील (वही जो दाउद के गुर्गों के मुकदमे लड़ता रहा है) ने कहा कि भैया कसाब तो एकदम बच्चा है. उस पर मुकदमा बच्चों के कोर्ट में चलाया जाये, इस कोर्ट को कोई हक नहीं सुनवाई की. अब समझे वाघमारे को हटाने का राज? जैसे-जैसे केस पुराना होगा, कसाब के खिलाफ तथ्य हल्के होंगे और उसके पक्ष में मजबूत.

अब तो यह सोचता हूं कि क्यों तुकाराम ओंबले ने जान देकर इस हरामखोर को जिंदा पकड़ा, ठोक देना था वहीं.

क्या आप में से कोई मुम्बई की चुनी हुई सरकार से पूछेगा कि उसे कसाब मकोका के लायक क्यों नहीं लगा?

Thursday, April 16, 2009

एक तितली के पंखों की फड़फड़ाहट क्या तूफान ला सकती है

ये कोई राजनैतिक लेख नहीं. अस्फुट, असंग्रहित विचार हैं. जो भी कुछ हम सोचते हैं, कहतें हैं, करते हैं क्या उस सब का कोई परिणाम कोई consequence भी होता है? या फिर पानी में गिरने वाले पत्थर उठी लहरों के समान कुछ पलों के बाद ही सब कुछ शांत हो जाता है, जैसा था बिल्कुल वैसा.

gulal 
ज़िंदगी के नये अनुभव, जानकारी और इनसे पैदा होने वाले विचार और सोच, उनमें से कुछ ही तो हम बांट पाते हैं, और जो बांट भी पाये उसमें भी पता नहीं चलता कि आपने जो कहा उसमें से कितना शब्दों के घालमेल में से निकल कर गंतव्य तक पहुंचा. कुछ पहुंच भी गया तो फौरन भुला दिया जाता है. जो भुला न सके उसे दिमाग के एक कोने में सड़ने के लिये छोड़ दिया जाता है.

फिर भी अपनी बात पहुंचाने की जिद क्यों? क्या ये megalomania है जो हमें विश्वास दिलाती है कि एक ऐसा संदेश है आपके पास जिसका दूसरों तक पहुंचना जरूरी है. या फिर ये optimism है जो आपको विश्वास दिलाता है कि आपके कहे का दुनिया के भीषण-चक्र पर कुछ असर होगा? या फिर यह philanthropy का एक temporary दौरा है जो आपको मजबूर कर रहा है अपने समय का अपव्यय करने को? या फिर यह उस राष्ट्र या समाज के लिये जिम्मेदारी या guilt का एहसास है जिससे आपने इतना कुछ लिया? ये भी हो सकता है कि यह आपकी male chauvinist जिद हो दुनिया का अपना perception दुनिया पर थोपने की?

आज सब कुछ थोड़ा inconsequential लग रहा है. इन्सानी फितरत में mood swings भी फितरती होते हैं, जब चाहे आते हैं, चाहे जिस कारण से आते हैं. इसलिये चाहते हुए भी, जो लिखना चाहता हूं उसके लिये ऊर्जा नहीं मिलती.

आज हलके, शाम से ही गुलाल फिल्म का गाना Youtube पर देखते-सुनते गुजार दी.

1. http://www.youtube.com/watch?v=e50WqCFthAM&feature=related

जो कुछ लिखा-कहा, इसलिये कि यह विश्वास करता हूं एक तितली के पंखों की फड़फड़ाहट भी तूफान ला सकती है (बकौल Chaos theory का Butterfly effect).

आज विश्वास इस गाने के नीचे दब गया, इसलिये वह नहीं लिख पाया जो लिखने बैठा था... आज यही सही.

कल नया दिन है.

Wednesday, April 15, 2009

पंजे से हाथ मिला कर उन्होंने कमल का फूल सूंघा, और साइकल से होकर हाथी पर चढ़ गये

उत्तर प्रदेश की राजनीति बेमिसाल है. इसलिये नहीं कि यहां के नेता या जनता कोई बहुत अच्छा काम कर रही है, बल्कि इसलिये कि घटिया नेतृत्व और जातिभक्त जनता इतनी बेदर्दी से प्रदेश को खसोट रही है कि इसकी मिसाल नहीं मिलेगी.

यहां वोट चलता है बनिया, ब्राहम्ण, दलित, लोध, ठाकुर, यादव, मुसलमान का, इनकी जाती का कोई जानवर भी अगर चुनाव में खड़ा हो जाता है तो आंख बंद कर बटन दबा देते हैं. इसलिये यहां इमानदार की कोई कीमत नहीं. कीमत है ऐसे भेड़िये की जो अपने चारों और गिरोह खड़ा कर सके. खुद एक जाती से हो और दूसरी जाती के एकाध का समर्थन हासिल कर लो तो चुनाव जीता ही जीता.

इसलिये इस प्रदेश में जातिवाले गुन्डों और माफिया कि बन आई है. मुख्तार अंसारी, अफजल जैसे माफिया... गुड्डू पन्डित जैसे बालात्कारी और डीपी यादव जैसे बदमाशों निर्बाध रूप से यहां चुनकर आते हैं. और ये लोग जब सभायें करते हैं तो भीड़ की भीड़ जुटती है.

इन्हें टिकट कौन देता है? वही पार्टियां जो गरीबों की आवाज उठाने का दम भरती हैं. समाजवादी पार्टी के राज में गुन्डो की तूती बोलती थी... क्या होता होगा इससे ही सोच लीजिये कि निठारी भी समाजवादी पार्टी के बड़े भैया को छोटी-मोटी घटना लगी थी.

गुन्डाराज से परेशान जनता को मायावती ने छलावा दिया - “चढ गुन्डन की छाती पर, मोहर लगाना हाथी पर.” बेवकूफ लोगों ने विश्वास कर लिया, और हाथी का बटन दबा दिया. मायावती ने शुरुआत में गुन्डों से मुकाबले की तत्परता का जो परिचय दिया अब वो बीते दिनों की बात है. सारे गुन्डे दल बदल कर अब मायावती के साथ हैं और वहां से बहन जी का भरपूर लाड़ पा रहें है. मुख्तार अंसारी पर बसपा के राजू पाल और भाजपा के कृष्णानंद राय के कत्ल का इलजाम है, मायावती ने एक वक्त पर उसे सबक सिखाने की कसम खाई थी, लेकिन आज उसे गरीबों का मसीहा कहती हैं.

असल में इस खेल में कोई भी पार्टी साफ दामन वाली नहीं रही. एक वक्त पर तो इस समय भारत के प्रधानमंत्री पद के सर्वश्रेष्ट उम्मीदवार आडवाणी भी डी पी यादव जैसे माफिया को पार्टी में लाने को तत्पर दिखे थे. शुक्र है कि लोगों के दबाव के चलते यह नहीं हुआ.

मतलब बात यह है कि सत्ता की चाभी उत्तर प्रदेश में अब नेताओं के हाथ से निकल कर गुन्डों के हाथ में जा पहुंची है. या तो इनके समर्थित उम्मीदवार चुन कर आते हैं, या फिर यह खुद ही चुनाव में खड़े होकर चुन लिये जाते हैं.

और इसके लिये जिम्मेदार और कुछ नहीं यहां कि वो घटिया जनता है जो जाति, या किसी भी और वास्ते पर (जिसमें देश कहीं नहीं आता) बार-बार इन्हें वोट दे रही है.

ऐसा नहीं हैं कि इमानदार उम्मीदवार नहीं हैं. हर चुनाव में निर्दलीय खड़े होते हैं. कई अच्छे लोग भी होते हैं. लेकिन जाति के सरमायों के द्वारा समर्थित नहीं होते.

भविष्य अंधेरा दिखता हैं क्योंकि गुन्डे पंजे से हाथ मिलाकर, कमल की खुशबू सूंघते हुए साइकल पर सवार होकर हाथी पर चढ़ चुके हैं.

इस समय एक नये आंदोलन की जरुरत है, एक नये भविष्य की.. किसी ऐसे संघटन की जो अपराधियों से नहीं जनता से वास्ता रखे.

और उत्तर प्रदेश की जनता के लिये एक संदेश है. अगर अब भी जाति के नाम पर वोट देना जारी रखोगे तो पहले नेताओं वाला एक-एक जूता खुद को लगाओ फिर वोट देने जाओ.

Tuesday, April 14, 2009

तालिबान से लड़ने का सबसे सही तरीका… हथियार डाल दो… वो भी डाल देंगे

हां जी. तालिबान से लड़ने के एक ही तरीका है, हथियार डाल कर आत्मसमर्पण कर लीजिये, और वो जो करें करने दीजिये. कम से कम पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसफ अली जरदारी का यही ख्याल है, इसलिये उन्होंने पाकिस्तान के एक हिस्से को तालिबान के शरिया कानून को सौंपने वाले बिल पर दस्तखत कर दिये.

taliban_hangingयही कानून अतिवादी भारत में चाहते हैं. क्या आप इन्हें वोट देंगे?

अब अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान से खदेड़े गये तालिबानी पाकिस्तान में अपने नये घर में चैन से महिलाओं को पीट सकेंगे. पाकिस्तान के इस हिस्से में लगभग 30 लाख लोग हैं. इन सबको तालिबानियों को सौंपने से पहले कोई भी मत या चुनाव नहीं कराया गया कि आप लोग क्या चाहते हैं.

पाकिस्तान को भरोसा है कि इससे स्थितियां सुधरेंगी. कैसे सुधरेंगी? शरिया को कानून बना कर तालिबानी आतंकवादियों को इस सूबे में मनमानी हुकुमत चलाने का लाइसेंस देने से पाकिस्तान की सुरक्षा कैसे हो सकती है? जो लोग पहले स्वात और फिर इस सारे हिस्से पर कब्जा कर चुके हैं, वो पूरे पाकिस्तान को धीरे-धीरे निशाना बनायेंगे. उनका लक्ष्य यही है.

हद तो यह है कि पाकितान के पूरे प्रशासन में तालिबान समर्थक लोग घुस आये हैं. उनमें से एक अमीर इज्जत खान ने कहा कि इस बात से खुश होकर तालिबानी लड़ाके हथियारों का त्याग करेंगे.

“तालिबानी लड़ाके हथियारों का त्याग करेंगे”?
तेंदुआ की खाल पर धब्बों के बजाय धारियां उभरेगीं?

जरदारी का मीडिया डिपार्टमेंट बोला “राष्ट्रपति संविधान का पालन बनाये रखने के लिये प्रतिबद्ध हैं.” संविधान क्या है आपका? जोकबुक? जब चाहे कोई आता है और दरिया में डाल देता है आपका संविधान.

पाकिस्तानी सरकार अमेरिका से जिन आतंकवादियों से लड़ने के लिये पैसा बटोर रही है, सबसे पहले उन्हें एक सुरक्षित ठीया दिया है. वहां से बैठ कर वो पूरे पाकिस्तान को तालिबानिस्तान बनायेंगे.

ऐसे माहौल में जब पाकिस्तानी एटमी हथियार तालिबानों के हाथ आने से बस कुछ ही देर दूर हैं, दुनिया को फैसला करना होगा कि वो एक बहुत बड़ा सरदर्द चाहते हैं, या फिर इससे छुटकारा.

मुझे लगता है कि पाकिस्तानी राष्ट्रपति को अगर तालिबान पर भरोसा है, या फिर वो समझते हैं कि यह खूनी भेड़िये किसी भी हद तक रुकने वाले हैं तो फिर वह परले दर्जे के अहमक हैं. और अगर वो तालिबानी फितरत को जानते हुये भी ऐसा कर रहे हैं तो पहले नम्बर के देशद्रोही.

वैसे पाकिस्तान के किसी प्रमुख से और आशा भी क्या की जा सकती है.

खबर यहां पढ़ी थी http://www.google.com/hostednews/afp/article/ALeqM5gE05mvzP8ISwLgn3GrmmxNMRXCJw

Monday, April 13, 2009

हिमाकत देखिये… गलत वक्त पर सही बात!

चुनाव का समय है, आजकल नेतादर्शन कुछ ज्यादा ही हो रहे हैं. नेतागण टीवी पर भारी डिबेटें कर रही हैं और उसमें लचर-लचर दलीलें आंय-बांय बक रहे हैं, हम मुंह फाड़े झेल रहे हैं.

ऐसी ही एक दलील का पोस्टमार्टम करते हैं

दलील है – गलत वक्त पर सही बात

बानगी पेश है : आडवाणी ने देश का पैसा वापस मंगाने की बात अब ही क्यों उठाई… क्यों उठाई अब? बोलो? जवाब दो… अब ही क्यों?

chup karटेप लगा दो मुंह पर, फिर नहीं बोलेगा. 

क्यों भैया कोई खास मुहुर्त चल रहा है इस समय जिसमें देश कि भलाई की बात करना मना है? भाई मेरे तुम ये न पूछ रहे कि बाकियों ने अब भी क्यों नहीं उठाई, तुम ये पूछ रहा हो कि जिसने उठाई उसने भी क्यों उठाई?

घसियारा लाजिक है. बल्कि घास चरके लीद किया हुआ लाजिक है.

देश हित की बात है. देश का पैसा है. टैक्स दिये बिना, घूस-वूस में कमा के देश के बाहर भेज दिया. कोई लाख-दो लाख नहीं 25 हजार करोड़ है. अगर कोई आदमी चुनाव के समय ही सही, अगर यह कहे की भैया देशचोरों से पैसा वापस लाना है तो इन्हें ऐतराज है?

खबर तो पिछले साल से है कि जर्मन सरकार नाम बतलाने के लिये तैयार थी. यहां तक की नवंबर में मैंने भी इसका जिक्र किया था (http://wohchupnahi.blogspot.com/2008/11/blog-post_22.html, नीचे जा के पहला पाइंट देखिये) अपने पत्रकार भाई लोग तो बिना बात की बकवास करके नोट जुटाने में चिपे थे… तो भैया तब तो न उन्होंने, न तुमने इस बात का जिक्र किया. तकिये के नीचे दबाकर बैठे थे. अब अगर बात उठी है तो इसे उड़ाने की बजाय बिठाकर गौरवान्वित कर रहे हो़? नेता लोग तो पहले ही अजब-गजब थे, और अब अपने देश के पत्रकार गजब-अजब हो रहे हैं.

इधर कोई चिल्ल मचा रहा है ‘ऐं क्यों बोला अब..’ उधर कोई बिलबिला रहा है ‘ओये.. अब क्यों बोला..’

सच्ची-सच्ची बोलूं?

बात यह नहीं है कि अब ही क्यों बोला.. बात यह है कि भैया -- क्यों बोला!… बोला ही क्यों! --  क्यों ही बोला!…

अब नहीं भी बोलता तो जब भी बोलता तब भी ‘अब बोला?’ कर देते अपने गुणीजन.

अबे थोड़ी तो शर्म करो… क्या इसी दिन के लिये देश का नमक खा कर बड़े हुये हो?

Sunday, April 12, 2009

समाजवादियों का मेनिफेस्टो… हंसी के गुलगुले

लोग सपा के मेनिफेस्टो पर हंस रहे हैं बहुतों का कहना है कि ऐसी बेवकूफी पहले नहीं देखी. इन्टरनेट पर जिस भी जगह मेनिफेस्टो के बारे में पढ़ा तो उस टिप्पणी करने वालों ने गुस्सा नहीं हंसी का इजहार किया. सचमुच अमिताभ के छोटे भाई, अनिल अंबानी के दोस्त ने जो गुल खिलाया है उससे गुलगुली होती है.

लेकिन भाई जरा टेक्स्ट का सबटेक्स्ट पढ़ना सीखो. इस मेनिफेस्टो की अपील कहीं और ही है. जरा इसके प्रस्तावों पर गौर करते हैं. होली की भांग का नशा, चढ़ा हुआ है अब तक. बेचारे


होरी की भांग अब तक
ना उतरी भैया
  1. अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा बंद करेंगे. (यह देशभाषा प्यार है?)
    तालिबान ने भी अफगानिस्तान में अंग्रेजी शिक्षा बंद करा दी थी हम करा देंगे तो अपन को कुछ खास वोट तो मिलेंगे.

  2. सारे आफिसों में से अंग्रेजी गायब करा देंगे.
    क्या चलायेंगे जनाब? उर्दू या हिंदी यह भी बता देते.

  3. सारे कम्पयुटरों को आफिसों और शिक्षा स्थलों से गायब कर देंगे
    वैसे भी ज्यादातर मदरसे कम्प्युटर क उपयोग नहीं करते (सिवाय उनके जहां समझदार लोग हैं).

  4. सारे कृषि उपकरण बंद करा देंगे. ट्रेक्टर की जगह बैल चलायेंगे
    बहुत अच्छे, इन बुलों से बुलशिट लेकर देश में बांटने में आसानी होगी

  5. शेयर बाजार बंद कर देंगे
    फिर अनिल अंबानी का क्या होगा? छोटा भाई नाराज हो जायेगा.

  6. बड़े-बड़े वेतन पाने वाले लोगों के खिलाफ कार्यवाही करेंगे
    भाई देश में बस एक ही अमर अर्रे… अमीर आदमी चलेगा… और कौन अपने अमीर सिंह (भैया 7 मिलियन डालर की मिल्कियत वाला तो खुद को खुल्ले में कहते हैं अमीर सिंह जी)

  7. मालें बंद करा देंगे
    शुरुआत सहारा माल से कराओगे चाचा या बत्ती दे रहे हो?

  8. सारी प्राइवेट कम्पनी में कम से कम मजदूरों के स्तर का वेतनमान करा देंगे
    सही है इनकी सरकार बनी तो वैसे भी पूरे देश को यही वेतनमान नसीब होगा.

  9. सारी महंगी शिक्षा बंद करा देंगे
    वैसे भी देश में इंजीनियर, वैज्ञानिक, डाक्टर ज्यादा हो गये हैं.

  10. पाकिस्तान और बांग्लादेश से दोस्ती बढ़ायेंगे
    हमारे भविष्य के वोटर वहीं से तो आने हैं. है न अमीर सिंह जी?

  11. सांप्रादायिक ताकतों पर वार कर आतंक को जड़ से मिटा देंगे
    देश के सारे हिंदुओं को नष्ट कर दिया जाये तो किसके खिलाफ होगा आतंक?

  12. बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता देंगे
    रोजगार देने से ज्यादा आसान है.

  13. वकीलों और व्यापारियों के लिये योजनायें बनायेंगे
    वकीलों कि तो जरुरत पड़ेगी अगर यह सब कर दिया भैया, और व्यापारी जब आप उनका भरता बना दोगे तो भत्ता देना होगा न.

  14. किसानों की समस्याओं पर ध्यान देंगे
    देना, ध्यान देना बहुत समस्यायें मिलेंगी जब उनके ट्रेक्टर छीन कर, उनके कृषी उपकरण हथिया कर आप उन्हें आदिम युग में धकेल दोगे.

Saturday, April 11, 2009

आइये, वापस कंधार चलें

आजकल गलती से कोई न्यूज़ चैनल खुल जाये तो कोई न कोई कांग्रेसी दिख जाता है एनडीए के पांच साला शासन को याद करते हुये. चाहे वो कपिल सिब्बल हो, दिग्विजय, राहुल, सोनिया, मनमोहन, या कोई और, सब एनडीए की यादों में खोये हुये हैं, ऐसा लगता है कि पिछले 5 सालों में भी शासन भाजपा का ही रहा है.

Debating एक कला है और उसमें कांग्रेस ने जो तरीका अपनाया है उसे कहते हैं ‘Tu Quoque’ (you too) इसका मतलब है कि हम तो चोर हैं सनम, तू भी चोर ही है. मतलब अगर सोनिया गांधी एनडीए के राज में हुये विस्फोटों का हवाला दें तो वो इस argument के जरिये कांग्रेस के शासन काल में हुये विस्फोटों को justify कर रही हैं.

kandahar

लेकिन एक बात याद रखिये, गलती चाहे कोई भी करे, कितनी भी बार की जाये, गलती तो गलती है. इसलिये कांग्रेस की यह दलील कि तुम भी चोर ही हो सिर्फ वाद-विवाद प्रतियोगिता में ही अंक दिला सकती है. मतलब कांग्रेस के शासन में हुये मुम्बई, दिल्ली, अहमदाबाद, बंगलुरु, आसाम, में हुई घटनाओं के लिये यह सफाई काफी नहीं.

1. हर incompetence, हर असफलता, हर बेईमानी का जवाब यह नहीं कि उनके शासन काल में भी ऐसा हुआ था. अगर ऐसा था कांग्रेस, तो हम उन्हें ही क्यों न चुनें? आपको क्यों चुनें?

वैसे एनडिए के शासनकाल इतना सफल रहा कि जब उसका अंत आया तो india shining था, और आज जब कांग्रेस के यूपीए के शासनकाल का अंत हो रहा है तो india whining हो रहा है. इसकी जिम्मेदारी भाजपा नहीं कांग्रेस के सर ही है.

और अब बात करें मुख्य मुद्दे की, बात करें कंधार की. कांग्रेस ने कंधार के नाम पर एक ऐसा दाग लगाया है भाजपा पर जिसका जवाब मुश्किल ही देते बनता है. लेकिन मैं कहता हूं कि कंधार का सबक एनडीए को मिला जरूर, लेकिन उसके पीछे का कारण भाजपा की कमजोरी नहीं शासन की तुरत-फुरत कार्य करने की क्षमता की विफलता थी. यह एक ऐसी शासन प्रणाली की देन थी जिसे भाजपा को विरासत में दिया गया था, और जो घटनाक्रम उस समय बना, उसमें शायद दूसरा फैसला कर पाने की शक्ती भाजपा में ही नहीं, देश में भी नहीं थी.

में उस घटनाक्रम की तुलना करूंगा black September से, जिसके बाद इज़राइल की नीतियों में बहुत बड़ा बदलाव आया. उस घटना में इज़राइल के 11 खिलाड़ी जर्मनी के ओलम्पिक खेलों में इस्लामिक आतंकवादियों द्वारा अपहृत कर लिये (PLO द्वारा) और उनकी मांगे एक नहीं इज़राइल की जेलों में सड़ रहे सभी आतंकवादियों को छोड़ने की थी.

उस मामले पर बात चालू थी, और कहते हैं कि इज़राइल की सरकार कुछ लोगों को छोड़ने के लिये तैयार भी हो गई थी (सभी को नहीं), म्युनिख के हवाई अड्डे पर उन्हें हैलिकाप्टर भी दिया गया, लेकिन जर्मन सेना की जल्दबाजी से सारे खिलाड़ी मारे गये. उस समय इज़राइली प्रधानमंत्री गोल्डा मायर को बहुत criticism का सामना करना पड़ा और उन्हें ऐसा कसाई भी कहा गया जिसने उन खिलाड़ियों को मरने छोड़ दिया. आज जरुर उन आतंकवादियों को न छोड़ने पर गर्व किया जाता है.

कंधार के घटनाक्रम में 11 नहीं, 110 नहीं 200 से ज्यादा लोग उन आतंकवादियों के कब्जे में थे. कौन भूल सकता है उन लोगों के बिलखते हुये परिजनों को जिन्हें हिन्दुस्तानी टीवी चैनल लागातार दिखा रहे थे. एक शो में मैंने एक फैशन डिज़ाइनर को रो-रोकर अपने दोस्त/भाई/कुछ और को छुड़वाने के लिये कहते सुना, शब्द कुछ ऐसे याद पड़ते हैं “कुछ भी करो, मान लो उनकी बातें.. बचा लो… बू हू… बचा लो”

सेना के एक शहीद की बेवा ने जब कहा कि आतंकवादियों को नहीं छोड़ना चाहिये तो उसे डपटकर चुप करा दिया गया. मतलब उस समय पूरा देश सहानूभूती से लबरेज था. देश की सरकार पर बहुत जबर्दस्त दबाव था उन लोगों को बचाने का, प्रेस की मुहिम भी यही थी.

उधर जहाज हमारे बुर्जुआ हो चुके सुरक्षा तंत्र के अव्यवस्था के चलते कंधार पहुंच चुका था. तालिबान के इस्लामिक आतंकवादियों के बीच, उनके हवाई अड्डे पर. वो न हमें कोई बात करने देने को तैयार थे, न कोई सैनिक आपरेशन चलाने देने के. असल में वो उन आतंकवादियों के ही साथी थे. कोई और देश होता, तो वो नहीं होता जो हुआ.

उस समय को याद कीजिये, उस समय में खुद अपनी अनुभूतियों को याद कीजिये, और याद कीजिये उस दर्द को सबने महसूस किया. उस समय की सबसे बड़ी priority आतंकवादी या आतंकवाद से मुकाबला नहीं उन 200 लोगों को बचाने की बन चुकी थी. और इसलिये कंधार हुआ.

क्या आप सोचते हैं कि भाजपा ने जो किया उस घटनाक्रम में कांग्रेस कुछ अलग कर पाती?

लेकिन अब बात करते हैं उसकी जो नहीं हुआ, जो भाजपा ने भी नहीं किया और कांग्रेस ने भी नहीं. बात करते हैं black September के बाद हुये उस घटनाक्रम की जिसने सारे इस्लामिक आतंकवादियों के दिल दहला दिये.

इज़रायल की सुरक्षा एजेंसी मौसाद ने 16 लोगों के बारे में पता लगाया जो काले सितंबर के जनक थे और उनमें से 11 को कार्यवाही में मारा.

  1. क्यों जीवित है अब तक हिन्दुस्तान के दुश्मन?
  2. रॉ जिसके नाम से सारा पाकिस्तान कांपता है क्यों दाउद इब्राहिम को देश में नहीं ला पाई, या विदेश में ही खत्म नहीं कर पाई.
  3. जिन्होंने कंधार आदी को अंजाम दिया, उन्हें हम क्यों सजा नहीं दे पाये.

मैं मानता हूं कि भाजपा और कांग्रेस की विफलता भी यही है… जो कंधार के बाद हुआ. कंधार विफलता नहीं विवशता थी.

क्या हम अपेक्षा करें की अगली चुनी हुई सरकार देश के दुश्मनों की दुश्मन बनकर दिखायेगी?

Friday, April 10, 2009

कश्मीर पाकिस्तान का मर्ज नहीं, उसका लक्षण भर है… तो आखिर असली बीमारी क्या है?

पश्चिम में कुछ लोगों को लगता है कि पाकिस्तान की समस्या कश्मीर है, और अगर कश्मीर हल हो जाये तो पाकिस्तान कि सारी मुसीबतें मिट जायेंगीं. वहां अचानक शांति कि आमद हो जायेगी, और फटाफत सारे आतंकवादी हथियार रख के हल-हंसिया थाम लेंगे.

पश्चिम सारे विश्व को अपने अमेरिकी चश्मे से देख रहे हैं बिना समझे की जिस तरह आतंकवादी सोचता है, उस तरह से एक सामान्य नागरिक नहीं सोच सकता.

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खेल भी तो किस चीज से?…

इसलिए वो आशा करते हैं कि पाकिस्तान के जनमानस में स्वात में लड़की की पिटाई के लिये स्वत: स्फुट सहानुभूती के ऐसे स्वर उठेंगे की तालिबान भी बह जायेगा. शायद उनके दिमाग में यह विचार भी नहीं आया होगा कि बहुत सारे पाकिस्तानियों के लिये यह शर्म नहीं गर्व की अनुभूति लेकर आयी घटना है. गर्व अपनी शरिया और शूरा के अक्षरश: पालन करवा पाने का.

लेकिन अमेरिकि लिबरलों के लिये यह समझ पाना मुश्किल है, इसलिये जब अमेरिकि दूत हिलब्रूक ने कहा कि वो भारत पर कश्मीर की समस्या के बारे में बात करने के लिये जोर नहीं डालेंगे तो अमेरिका में ही इसके विरोध के स्वर गूंजने लगे. अचानक आवाजें आने लगीं कि अगर कश्मीर पाकिस्तान की शांति का रास्ता है.

उन्हें लगता है कि कश्मीर न पाने की बेबसी और बांग्लादेश के कट जाने का दर्द पाकिस्तानी जनमानस को खाये जा रहा है, और यही कारण है पाकिस्तानी युवाओं का आतंकवाद की तरफ जाने का. उन्हें लगता है कि कश्मीर हल हो जाये तो यह बिगड़ैल लड़के घर लौट जायेंगे और धीरे-धीरे आयेगी… शांति...

काश अगर ऐसा होता तो कश्मीर देकर भी देख लेते. आखिर विश्व शांति से बड़ा क्या होगा यह अत्यंत महंगा जमीन का टुकड़ा जो हर साल भारत के कई सौ करोड़ खा रहा है.

काश ऐसा होता…

असल में पाकिस्तान की समस्या कश्मीर या बांग्लादेश भी नहीँ. पाकिस्तान की समस्या है सांप्रादायिकता. वहां पर रहने वाले लोगों में इस्लामिक साम्प्रादायिकता इस हद तक है कि उन्हें इस्लामिक धर्म, इस्लामिक विचार, इस्लामिक जीवनशैली (जो शरिया के अनुसार है) के अलावा कुछ स्वीकार्य ही नहीं.

हर वाक्य में इंशा-अल्लाह कहकर अल्लाह का अपमान करने वाले कठमुल्लों को जाने क्यों भरोसा है कि जिसे इस्लाम पर भरोसा नहीं, उस पर अल्लाह का करम नहीं. उनका निर्णय एक ही है, उनका लक्ष्य एक ही है. सारे विश्व में एकक्षत्र उनका मनमाना फतवेगिरी का कानून, कश्मीर का एजेंडा वक्ती है. सिर्फ इसलिये ताकी जिन लोगों कि भावनायें धर्म नहीं भड़का पाता, उन्हें राष्ट्र के नाम पर भड़का दिया जाये.

थोड़ा सोचकर देखें की पाकिस्तान के हाथ कश्मीर लग जाये तो क्या होगा.

बताईये

1 क्या पाकिस्तान की औकात है कि कश्मीरियों को जिस सुविधाओं की आदत है वह उसके लिये खर्च कर पाये?

2 जो आतंकवादी पाकिस्तान ने पाल पोस कर बड़े किये हैं, वो बेरोजगारी में क्या करेंगे?

3 पाकिस्तान के जिस तबके को उसने इतने दिन भारत के खिलाफ नफरत का जहर पिला-पिला कर पैदा किया, वो कश्मीर के बाद क्या मांगेगा?

पाकिस्तान में मशहूर जोकर है जिसका नाम है जायद हमदी. इसने पहले ब्रासटेक्स नाम के प्रोग्राम में मुंबई विस्फोट के बाद उल्टे सीधे बयान दिये थे. इसने थोड़े दिन पहले भारत के भरत वर्मा से कहा कि ‘फिर हम पानीपत में मिलेंगे’

जायद हमदी इतिहास में इतना पीछे चला गया, लेकिन हालिया इतिहास भूल गया. भारत से युद्धों में करारी हार और भारतियों की दया पर छूटने वाले करगिल के घुसपैठियों का सबक यह भूल गया.

अब भी नये घुसपैठिये आ चुके हैं और हमारे सैनिक सीमाओं पर लड़ रहे हैं. पूरे गांव के गांव कश्मीर में खाली करा दिये गये हैं. चुनाव का मौसम है, इसलिए आप इस बारे में कम सुन रहे हैं. लेकिन हालात गंभीर हैं.

पाकिस्तान की दुश्मनी कश्मीर के लिये नहीं. पाकिस्तान की दुश्मनी देश या राष्ट्र के लिये नहीं. पाकिस्तान की दुश्मनी इससे भी गहरी है. पाकिस्तान की दुश्मनी धर्मांध है, उनकी दुश्मनी उनके विधर्मियों के साथ है जिनका यह वजूद मिटा देना चाहते हैं. इसलिये पाकिस्तान का दुश्मन हर वो देश है जहां उसके धर्म से इतर लोगों का शासन है, और इसलिये वह हर उस देश में आतंकवाद का निर्यात कर रहा है.

जब तक आप यह स्वीकार नहीं करते, तब तक आप पाकिस्तान के आतंकवाद का न कारण समझेंगे, न उसके निवारण का रास्ता ढूंढ़ पायेंगे.


जाते-जाते:

दिग्विजय सिंह (वहीं जिन्होंने 10 साल तक म.प्र. का ऐसा विकास किया कि जहां बिजली-पानी आता भी था, बंद हो गया) ने कहा कि स्विस असोशियेशन और आडवाणी, दोनों के द्वारा बताये गयीं भारतियों कि स्विस बैंकों में जमा राशी गलत हैं.

सही है, दिग्विजय के सोर्स ज्यादा भरोसेमंद हैं, उन्हें जरूर पता है कि कितना-कितना पैसा जमा है… आखिर पैसा भी तो पिछले 60 सालों में उन्हीं….

Sunday, March 29, 2009

हम क्या कहते हैं, वो क्या सुनते हैं, वो जो सुनते हैं, हम कब कहते हैं

आडवाणी की प्रेस कांफ्रेंस का लाइव टेलेकॉस्ट देख के हटा हूं, अच्छा हुआ की लाइव देख ली वरना इन  पत्रकारों की ताजी बदतमीजी को समझ नहीं पाता. पता नहीं ये किस आटे का पिसा खाते हैं. क्या ये उसी समाज की उपज हैं जहां उन लोगों का जन्म हुआ जो अपने कर्तव्य और देश के लिये बड़ी से बड़ी कुर्बानी दे गये.

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आज आडवाणी ने प्रेस कांफ्रेस बहुत महत्वपूर्ण मुद्दे के लिये बुलवाई थी मुद्दा था देश का 25 लाख करोड़ रुपया जो कि काला धन बनकर स्विस बैंको में चला गया है.

कुछ समय पहले जर्मन गर्वनमेंट के हाथ उन लोगों की जानकारी लगी जिनका पैसा स्विस बैंकों में जमा है, उन्हें यह भी पता लगा कि किसका कितना पैसा है वहां. तो उन्होंने सारी दुनिया में ऐलान किया कि जो-जो देश हमसे पूछेगा, हम उन्हें बतायेंगे कि वहां पर किस आदमी का कितना-कितना धन इन बैंकों में है.

इस बात को कई महीने हो गये, एक दो अखबारों में खबरें भी छपी (लेकिन सत्ता के गुलाम पत्रकारों को देशहित नहीं दिखता, इसलिये यह खबरें उतनी तक नहीं दिखाई गयी जितना ये लोग बार गर्लों को दिखा देतें हैं). बिरादर, देश का 25 लाख करोड़ रुपया बाहर भेज दिया गया, और यह भी जानिये कि हम महान हिन्दुस्तानीयों को एक और रुतबा हासिल है, सारे देशों में पैसे जमा करने में हमारा नंबर 1 है, मतलब भारतियों का सबसे ज्यादा पैसा जमा है वहां. वाह रे देश की सरकारों, बहुत रुकवाया करप्शन तुमने पिछले 60 सालों में.

जिस समय यह खबर आई उस समय आडवाणी ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर जर्मनी से उन हिन्दुस्तानियों के नाम पूछने का सुझाव दिया जिनका पैसा वहां जमा है, तो बिरादर अपने महाशक्तिशाली प्रधानमंत्री तो नहीं, लेकिन वित्त मंत्रालय की तरफ से टालू जवाब आ गया.

तो आडवाणी ने प्रेस कांफ्रेस बुलाई थी इसलिये कि वो कहें कि है बलशाली प्रधानमंत्री मनमोहन जी, आप जी-20 सम्मेलन में जा रहे हैं वहां मिलेंगे आप जर्मनी के चांसलर से भी, तो हे मनमोहन जी वहां इस बात को उठायियेगा, वहां कहियेगा कि बिरादर दे दो हमें उन लोगों की सूची जिन्होंने देश का पैसा बाहर जमा कर रखा है. और यह बात पब्लिक फोरम पर आडवाणी ने इसलिये कही कि पिछले पत्र की तरह यह भी दबा न दी जाये.

पूरी प्रेस कांफ्रेंस में आडवाणी ने बताया की किस तरह इस पैसे का इस्तेमाल देश की बेहतरी के लिये होना चाहिये, और उन्होंने इसे चुनावी मुद्दा भी बनाया, और यह भी कहा कि वो जरूर पूछेंगे जर्मनी से कि बताओ उन लोगों के नाम जिन्होंने देश को चूना लगा लगा कर पैसा स्विस बैंकों में भेज दिया.

एक पत्रकार ने उनसे कहा कि अगर उन लोगों के नाम पता चल गये जिनका इतना पैसा जमा है तो भूचाल आ जायेगा. तो आडवाणी ने उससे कहा कि मैं चाहता हुं कि ऐसा हो, उन लोगों के नाम खुलें जिससे देश का पैसा देश में वापस आ पाये.

उन्होंने इस प्रेस कांफ्रेंस में यह भी बताया कि बीजेपी की सरकार बनने पर वो देश में शिक्षा के लिये काम करने के लिये प्रतिबद्ध हैं, और देश में उच्च कम्प्युटर शिक्षा लाने के लिये प्रतिबद्ध हैं.

लगभग 45 मिनिट चली यह प्रेस कांफ्रेस, और बातें सारी यहीं हुईं, लेकिन अंत होते-होते एक सयाने पत्रकार ने पूछ लिया कि वरुण गांधी पर क्या खयाल हैं, तो आडवाणी ने वही कहा जो वह कहते हैं आ रहे हैं, कि वरुण ने कहा है कि बयान मेरा नहीं है.

और भाई मेरे, इन महान पत्रकारों की जमात ने 45 मिनिट की कांफ्रेंस में से क्या निष्कर्ष निकाला सिर्फ आखिरी पांच मिनट? इन्होंने निकाला

'आडवाणी ने वरुण का बचाव किया'

  • इन्होंने यह नहीं सुना कि आडवाणी ने कहा कि देश का 285 करोड़ रुपया काला धन बन चुका है
  • इन्होंने यह नहीं सुना कि आडवाणी ने मनमोहन से उन लोगों का नाम पूछने को कहा जिनका पैसा है यह
  • इन्होंने यह नहीं सुना कि इस पैसे को देश में वापस लाना है
  • इन्होंने यह नहीं सुना कि आडवाणी ने कहा कि भूचाल आये तो भी उन लोगों के नाम जगजाहिर होने चाहिये
  • इन्होंने बस वही सुना जिसे सुनने की परमिशन इनके आकाओं ने दी.
  • इन्होंने सुना बस वरुण, देश को यह भूल गये

जिस-जिसने यह प्रेस कांफ्रेस देखी हो, और बाद में इसके बारे में पत्रकारों की कवरेज देखी हो, उसका खून आज खौल उठा होगा.

जय चौथा खंभा...

और बीजेपी, वक्त आ गया है कि तुम भी whitehouse की तरह से Youtube पर अपना चैनल लगाओ और अपने भाषण, वक्तव्य और प्रेस कांफ्रेसों के विडियो वहां डालो. कम से कम देश अगर कोई रेफ्रेंस चाहे, तो वह तो मिले.

Friday, March 27, 2009

क्या आपको 25 करोड़ रुपये चाहिये?

हां, सचमुच. 25 करोड़ रुपये आपकी गिरफ्त में बस आना ही चाहते हैं. आप तो बस सोचना शुरु कर दीजिये की इनका करना क्या है. कौन सा बंगला आप खरीदेंगे, अपनी मर्सिडीज़ कहां रखेंगे, या फिर आपको फैरारी चाहिये? तो अब आप जानना चाहते हैं कि 25 करोड़ के लिये क्या करना होगा? कौन सा क्विज शो दे रहा है यह इनाम?

gunmasterगनमास्टर को मिलेंगे करोड़ों

तो चलिये बता देते हैं. यह है ‘The great Maulana Taukeer sweepstakes’ और इस रकम को आपके देने के लिये बकौल मौलाना तौकीर रजा, हर सच्चा मुसलमान एक-एक रुपया मिलाने वाला है.

आत्मविश्वास से लबरेज मौलाना साहब ने काम दिया है जार्ज बुश का सर लाने का. वो कहते हैं सर लाने वाले को हिन्दुस्तान के सारे मुसलमान पैसे जोड़कर 25 करोड़ रुपया देंगे जो सच्चे मायनों में कोई छोटी रकम नहीं है यहां तक की खासी अमीर अमेरिकी सरकार भी ओसामा बिन लादेन पर सिर्फ 13 करोड़ रुपये (25 मिलियन डालर) का इनाम देने में ही खुद को समर्थ पा सकी.

तो अगर आप मौलाना तौकीर रजा की यह छोटी सी शर्त पूरी कर सकें तो यह मोटी से रकम आप कब्जा सकते हैं. वैसे जार्ज बुश अब अमेरिकी राष्ट्रपति भी नहीं रहे, अब तो सुरक्षा घेरा पहले जैसा नहीं होगा.

अच्छा अगर आप सोच रहे हों कि अगर काम निकाल के मौलाना तौकीर बात से मुकर गये तो? तो बिरादर चिंता न करें. मौलाना सच्चे मुसलमान कहते हैं खुद को जो कौल से नहीं फिरते.

इतने सच्चे हैं यह, और अपने समाज में इतने मशहूर कि इनके मुहल्ले में इनके ईमान की कसमें यहां-वहां छोटी-मोटी बातों पर लोग खाते मिल जायेंगे. इसलिये कांग्रेस (हां जी वही UPA की सबसे मोटी पार्टी) ने इन्हें लोकसभा चुनाव में साथी बना लिया.

क्या आप आश्चर्यचकित हैं? बुश के सर कटवाना गलत लगता है? तो भाई आपको लगे तो लगे, कांग्रेस को कोई शिकायत नहीं. उन्हें हिन्दुओं की सांप्रादायिकता से शिकायत हो तो हो, इस्लामिक सांप्रादायिकता तो वैलकम, वैलस्टे, वैलडन है.

तो जी हाथ कटवाने वाले वरुण गांधी को जेल भेज देते हैं, और गला कटवाने वाले तौकीर मिंया को लोकसभा चैंपियन बना देते हैं. और बिरादर अगर आप इस मुगालते में हो की कांग्रेस वाले जानते ही नहीं थे तो आज शाम को ही सिंघवी भैया बोल रहे थे टीवी पर की ऐसे (मौलाना के) ‘बयानों से हम सहमत नहीं.’ बयानों से सहमत नहीं. मौलाना से सहमत हैं. यह तो सही है. बाइबल में भी लिखा है पाप से नफरत करो, पापी से नहीं. तो कांग्रेस इधर के पापियों को भरपूर प्यार दे रही है.

और अगर आपका 25 करोड़ से दिल न भरे, तो कुछ और इनाम भी हैं जिन्हें आप कब्जा सकते हैं.

Lars Vilks – 100,0000 Dollars (5 करोड़ रुपये) और ये 5 करोड़ और
Ulf Johansson – 50,000 Dollars (2.5 करोड़ रुपये)
Salman Rushdie – Pound 80,0000 and $150000
Taslima Nasrin – 5 Lakh Rs
Ehud Barak, Amos Yadlin, Meir Dagan - $1 Million (5 करोड़ रुपये)
Rod Parsely - $50,000. (2.5 लाख रुपये)

मतलब इस धंधे में तो माल ही माल है. और हां साथ में जन्नत की stay फ्री. जन्नत कहां? वहीं जहां खूबसूरत कुंवारी हूरें मिलती हैं.

Monday, March 23, 2009

जीत सत्य की नहीं होती, जो जीतता है वही सत्य है

कहते हैं कि जीत अंतत: सत्य की होती है -- गलत कहते हैं. यह समाज का idealist विश्लेषण है, realist नहीं. असली जिंदगी में जो जीतता है वही सत्य होता है. पूरी जीत की पहचान ही यही है कि आपके विपक्षी का पक्ष ही न बचे. अगर बच गया तो जीत अधूरी है. विपक्षी सभ्यता को अपने अंदर पूर्ण रूप से आत्मसात कर लें तो फिर आप ही आप बचेंगे, और सत्य कुछ होगा ही नहीं. data चाहे रावण हो या दुर्योधन, जो हार गया उसके साथ क्या सहानूभूति रखना. वो खुदा नहीं हो सकता, खुदा तो होगा जीतने वाला. वो राम होगा, वो कृष्ण होगा. बेशक किसी आत्मग्लानी के पल में हम दुर्योधन और रावण को स्वर्ग भी भेज दें, लेकिन स्वर्ग में बैठकर इतिहास नहीं लिखा जाता. इतिहास लिखा जाता है विजेता होकर. इसलिये मर्यादा पुरुषोत्तम सिर्फ विजेता ही बनता है, और धर्मराज वही होता है जिसके पक्ष में विजेता हों.

असल में जीत सत्य की नहीं, जीत ही सत्य होती है. और जो इसे सत्य नहीं मानते, वो सत्य नहीं जानते.

मध्य एशिया और पुरे युरोप में किसी जमाने में पारसी धर्म, यहूदी धर्म, ईजिप्ट के पुरातन धर्म, सूर्य उपासकों का बोलबाला था, लेकिन उनमें धर्म के प्रति वो उन्माद नहीं था जो नव-क्रिस्तानों और बाद में मुसलमानों में रहा. इसलिये वो धर्म के लिये लड़ नहीं पाये, वो या तो मरे, या खुद इन नव-धर्मों में शामिल हो गये. अब उन पुरातन धर्मों के अवशेष भी नहीं मिलते. सांस्कृतिक इतिहास वहीं से शुरु होता है जहां से ईसा का जन्म हुआ, या जहां मुहम्मद आये. उससे पहले सिर्फ लड़ाइयों की कहानी है, कल्चर नदारद है. विजेता यही करता है. पराजित की संस्कृति का लोप.

जीतने वाले सत्य के दम पर हिटलर की क्रूरता का भान सभी को है, लेकिन लगभग उतनी ही मौतों के जिम्मेदार एलीज़ हीरो बन जाते हैं. जो जीत जाते हैं सत्य उनका गुलाम हो जाता है. इसलिये ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर चर्चिल सुपरमैन की तरह याद किये जाते हैं.

वर्तमान इतिहास की ही प्रतिबिम्ब है, और इस प्रतिबिम्ब में हम क्या देखते हैं, क्या समझते हैं इसी के दम पर भविष्य का निर्माण होता है. सत्य को जीत मान लेना बहुत आसान है, लेकिन इस गफलत में पढ़कर हम सत्य को नहीं जीत को बढ़ावा दे रहे हैं. हम यही कह रहे हैं कि चाहे तुम जो हो, अगर तुम जीत गये तो हम तुम्हें स्वीकार कर लेंगे. तो तुम बन जाओगे हमारे लिये खुदा, या खुदा समान.

जो शक्तिशाली और किस्मतवाला होगा, जीत उसकी होगी. लेकिन वो सही भी हो यह जरूरी नहीं. हमारे इतिहास में विजेताओं की फेरहिस्त बहुत लम्बी है, अगर कुछ विजेता इधर के उधर हो जायें को कुछ खास फर्क नहीं पड़ेगा, बस हमारे कुछ नायक बदल जायेंगे.

अगर भविष्य को बेहतर बनाने की चाहत है तो इतिहास को वैसा ही स्वीकार करना होगा जैसा वो सचमुच है. पराक्रम को सत्य से जोड़न एक असभ्य समाज की निशानी है जिसमें अब भी इतनी परिपक्वता नहीं की सत्य को उसकी ही योग्यता पर स्वीकार्यता दे सके और उसमें जीत के सहारे को जोड़ने के लिये बाध्य न हो.

Saturday, March 21, 2009

क्योंकि प्रभू ईसा को मानने वाले हत्या कर ही नहीं सकते

यीशू ने अपना खून बहाकर सबको बचाया. उन सबको जो उनपर विश्वास करते हैं, जो कहते हैं कि हे मेरे आसमानी बाप तूने अपना बेटा भेजा कि वो हम पापियों को बचा सके. लेकिन यीशू के अनुयायी हमें बताते हैं कि बचाया सिर्फ उन्हीं पापीयों को है जिन्हें यीशू के बचाने पर यकीन है. बाकी पापी सड़ेंगे अनंत नर्क की आग में.

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सही है, दयावान यीशू ने हमें बचाया, और सिखाया कि हिंसा मत करो, दया करो, प्रेम करो, अपने दुश्मन से भी प्रेम करो.

तो यीशू के अनुयायियों ने यह सीख लिया. इसलिये उन्होंने कभी किसी की हत्या नहीं की (वैसे करते भी तो भी चलता क्योंकि प्रभु यीशू ने पहले ही सारे पाप माफ कर रखे हैं).

- न तो उन्होंने अफ्रीका में लाखों लोगों को गुलाम बनाने के लिये और कई लाखों का कत्ल किया,
- न उन्होंने मेक्सिको और पूरे साउथ अफ्रीका में फैले आज्टेक और माया प्रजाती के लोगों की हत्या सिर्फ इसलिये की क्योंकि उन्होंने ईसा पर विश्वास नहीं किया,
- उन्होंने लाखों मूल अमेरिकियों की भी हत्या नहीं की, और उनके मूल धर्म का समूल विनाश भी नहीं किया.
- उन्होंने मध्य एशिया के मुसलमानों के खिलाफ 'क्रूसेड' (धर्मयुद्ध/जेहाद) भी नहीं किया, और उसमें करोड़ों लोगों को मारा नहीं.
- आज भी कोई इसाई समुदाय धर्म के लिये कहीं कोई हत्या या हिंसा नहीं करता

इसलिए जब ओड़िसा की सरकार कहती है कि प्रभात पाणीग्रही की हत्या में इसाईयों का हाथ नहीं था तो दिल बिना किसी दिक्कत के स्वीकार कर लेता. इतने उज्ज्वल अतीत और उससे भी ज्यादा उज्ज्वल वर्तमान वाला यह धार्मिक समुदाय हत्या कर ही नहीं सकता.

इसलिये न तो लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या में इसाई हाथ था, और न इसी हफ्ते हुई संघ के प्रभात पाणीग्रही की हत्या में इनका हाथ होने की कोई संभावना है (इसलिये पुलिस से आशा भी मत करिये इस दिशा में जांच की, क्योंकि जब ऐसा हो ही नहीं सकता तो पुलिस वाले क्यों अपना समय वहां बरबाद करें). तो जांच हो रही है और कातिल भी इसाई धर्म से इतर कहीं न कहीं मिल जायेंगे.

लेकिन शायद हिन्दुओं को ईसा संदेश नहीं पहुंचा है. इसलिये यह बर्बर हिन्दू उतारू हैं इसाईयों की हत्या पर. इसाई कुछ नहीं करते, लेकिन फिर भी पगलाये हिन्दू उन्हें सता रहे हैं.

यकीनन इतनी बर्बरता असहनीय है और बीजद के नवीन पटनायक भी यह सह नहीं पाये. क्योंकि ये सारे बर्बर हिन्दू बीजेपी की पैदाइश हैं इसलिये बीजद ने बीजेपी से छुटकारा पाना बेहतर समझा. अब उन बेचारे इसाईयों को वह यह संदेश दे सकते हैं कि भाई तुम्हारे हिन्दुओं की हत्या न करने में हमारा पूरा सहयोग रहेगा.

वैसे यह भी बता दूं कि निरीह इसाई विरोध की यह अजब-गजब बीमारी ओड़िसा के हिन्दुओं को कैसे लगी. असल में हिन्दुओं में जो दो-चार इन्सान हैं वो कूद-कूद कर, बच-बचाकर, किसी भी तरह, किसी भी कीमत पर इसाई बनना चाहते हैं, और हिन्दू उन्हें बनने नहीं दे रहे हैं.

घोर अधर्म है यह. न तो इसाई किसी तरह का प्रलोभन दे रहे हैं, न वो कुप्रचार का सहारा ले रहे हैं, न वो झूठे चमत्कार और नकली 'चंगाई' फैला रहे हैं, न वो पैसा बांट रहे हैं, न वो भोले आदिवासियों को बरगला रहे हैं, फिर भी पागल हिन्दू उनके खिलाफ चिल्ला रहे हैं.

वैसे ज्यादातर लोगों को शायद प्रभात पाणीग्रही की हत्या के बारे में पता भी न हो. प्रभात पाणीग्रही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता थे जिन्हें दो दिन पहले 20 लोगों ने आ कर गोली मार दी वो लोग जो जो यकीनन इसाई नहीं थे.

अखबारों में बहुत पढ़ा होगा कि कंधमाल में इसाइयों को गांव में घुसने नहीं दे रहे, यह नहीं करने दे रहे, वह नहीं करने दे रहे. फीचर पर फीचर छपते हैं. लेकिन प्रभात पाणीग्रही की हत्या की बात किसी बड़े अखबार ने उस तरह नहीं उठाई जिस तरह वह एक निरीह इसाई के गांव बदर होने की बात करते हैं.

जाते-जाते कुछ लिंक दे चलूं, कि आप खबर तो जानें

और भी जाते-जाते एक खबर और – पोप ने कहा की अंगोला के लोग अपना धर्म छोड़ कर इसाई बनें

Tuesday, March 3, 2009

फरिश्ते सारे पाकिस्तानी होते हैं

पाकिस्तान में 10-12 आतंकवादी 15 मिनट तक गोलाबारी कर गये, चार-छ: पुलिस वाले मार गये, 6 बेचारे क्रिकेट खिलाड़ी भी घायल हो गये. कुल मिलाकर मुम्बई जितना घमासान तो नहीं किया, लेकिन खबर बड़ी बना गये. 

दिमाग में उथल-पुथल चल रही है. समझिये डेविल और ऐंजल में जंग है. कंधे के एक तरफ शैतान बैठा है, और दूसरे कंधे पर फरिश्ता. बातचीत कुछ इस तरह चल रही है.

angeldevil

शैतान: ओये! बल्ले! क्या सही मारा. पाकिस्तान कि बज गई... ओये वाह!!
फरिश्ता: बंधु, इस तरह खुशी मनाना ठीक नहीं. याद रखिये, वहां भी निर्दोष इन्सान की मौत हुई है.
शैतान: ओये चुप्प खोत्ते! इन्होंने ने अपने मुम्बई में आग लगाई थी, अब रोते फिरेंगे.
फरिश्ता: भाई, इस मुश्किल वक्त में अपना फर्ज बनता है कि आतंकवाद के शिकार लोगों के लिये प्रार्थना करें.
शैतान: काहे का आतंकवाद बे? सब पाकिस्तानवाद है. इस मुल्क ने पूरी दुनिया में तबाही फैला रखी है. सारे आतंकवादी यही पैदा कर-करके, कर-करके दुनिया भर में भेज रहा है.
फरिश्ता: नहीं भाई. पाकिस्तान भी आतंकवाद का शिकार है.
शैतान: जब दूसरों का घर जलाने के लिये बम बनायेंगे तो अपने घर में चिंगारी भी दिख जाए तो तबाही के लिये तैयार रहना चाहिये.
फरिश्ता: लेकिन मरने वालों के बारे में तो सोचिये.
शैतान: सोच रहा हूं न. बेचारे श्रीलंकी पिस गये.
फरिश्ता: और जो पाकिस्तानी नागरिक मरे.
शैतान: चल तू सेंटी मत कर यार. मैं तो सोच रहा हूं कि पाकिस्तान को अब आतंकवाद का क्या मजा आया, तू मेरे माइंड का ट्रेक मत चैंज कर.
फरिश्ता: मतलब आपको वहां मरने वाले निर्दोष नागरिकों के लिए कोई रंज नहीं.
शैतान: यार, तेरेको बोला न कि अभी बहुत दिनों बाद दुश्मन मुश्किल में पड़ा है, खुश हो लेने दे!
फरिश्ता: भाई, मैं तो बस समझना चाह रहा हूं कि आप किसकी मौत पर खुश हो रहे हैं.
शैतान: शर्म कर ओये, तू कहना क्या चाहता है? तू भूल गया कि पाकिस्तानियों ने मुम्बई पर हमला करवाया था!
फरिश्ता: बंधू, जो पाकिस्तान में मरे हें, वो उस हमले में शामिल तो नहीं थे. उन्हें भी आतंकवादियों ने मारा.
शैतान: उन्होंने आतंकवादी बनाये, अब मजा ले रहे हैं बेट्टे!
फरिश्ता: तो आप समझते हैं कि अगर पाकिस्तानी निर्दोष मरें तो सही है?
शैतान: ओये स्याप्पे! तू चाहता क्या है? जिन्होंने अपने देश पर हमला कराया उनके लिये मैं रोऊं?
फरिश्ता: हमला तो आतंकियों ने किया, और वो पाकिस्तान को भी उसी तरह शिकार बना रहे हैं, जिस तरह हमें.
शेतान: चल ओये! तू फुट यहां से... तू पाकिस्तान परस्त, देशद्रोही, मक्कार, तू रो जाकर पाकिस्तान.
फरिश्ता: ...

कहते हैं कि दूसरों के मुश्किल वक्त पर खुश नहीं होना चाहिये. यकीन मानिये, मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं.

दिक्कत यह है कि दिल मुम्बई हमलों और कितनी ही आतंकवादी घटनाओं के लिये पाकिस्तान और उसकी चुनी (और बिना चुनी) सरकारों को जिम्मेदार मानता है. इसलिये बड़ी vindictive feeling से मुकाबला चल रहा है.

पहली इनिंग में तो शैतान जीत रहा है, लेकिन पूरा विश्वास है कि अंत में जीत फरिश्ते की ही होगी (जैसा की कहते हैं कि होती है), और में पाकिस्तान में होने वाली हर आतंकवादी घटना का पूरी तरह मलाल कर पाऊंगा.

Saturday, February 28, 2009

तो अब शिवराज हर आवाज़ को दबा देंगे?

शिवराज सिंह ने कठिन समय में मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव क्या जीत लिया उन्हें लगने लगा कि सारे मध्य प्रदेश का निर्बाध कब्जा उन्हें मिल गया, कि लो ठाकुर अपनी मिल्कियत चलाओ अपनी मर्जी से. और अगर इनकी जागीर में कोई ऐसी आवाज़ उभर आये हो जो इन्हें रास न आये, तो उसे अपने हथकंडो से दबाना भी ठीक उसी तरह इन्होंने सीख लिया है जिस तरह से फिल्मों में कोई दबंग जमींदार.

मैं बात कर रहा हूं शमीम मोदी की जो सालों से मध्य प्रदेश के सबसे निचले तबके - ग्रामीण, गरीब, आदिवासी लोगों के हित में आवाज उठा रहीं हैं. इनकी बातें और काम यहां के अमीर इन्डस्ट्री मालिकों के गले नहीं उतरा जो वन के संसाधनों का उपयोग वनवासियों के हित ताक पर रख के अपने हितों के लिये करना चाहते हैं. शिवराज सिंह चौहान पर गरीब लोग दबाव बना पाते हैं कि नहीं यह तो पता नहीं, लेकिन इस इन्डस्ट्री लॉबी ने अपने मुख्यमंत्री को 48 घन्टे दिये थे शमीम से छुटकारा दिलाने के लिये और वहां कि पुलिस ने यह काम 24 घन्टों में ही कर दिखाया.

shamim
लाल घेरे में हैं शमीम मोदी, इन्होंने ही अपहरण वगैरा को अंजाम दिया है. देख कर ही डर गया ऐसी दबंग महिला को मैं. आप डरे...?

तो एक सालों पुराने झूठे अपहरण के केस को खोद निकाला गया और शमीम मोदी को गिरफ्तार कर लिया गया. मजे कि बात तो देखिये, जिस व्यक्ति का अपहरण का यह केस था, वह उसी समय अदालत में मौजूद था, और उसने जज से कहा कि ऐसी कोई भी बात नहीं. फिर भी शमीम को गिरफ्तार किया गया.

असल में बात सिर्फ इतनी सी है कि हर्दा जैसी छोटी जगह में इन मोटी आसामियों का राज नहीं चलेगा, तो किसका चलेगा? गरीब आदिवासियों को तो अपने हक का पता भी नहीं. जो लोग जंगलों का बेलाग दोहन कर रहे हैं वो नहीं चाहते कि कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति जंगल वासियों को उनका हक समझाये, या उनके लिये आवाज उठाये. इसलिये शमीम मोदी जैसे लोगो को तुरत-फुरत डराने और निकालने की इन्हें सख्त जरुरत महसूस हो रही है.

दरअसल शमीम मोदी के संगठन का नाम है श्रमिक आदिवासी संगठन और इसके काम के चलते जब आदिवासी श्रमिकों को पता लगने लगा कि उन्हें किस कदर दुहा जा रहा है तो उन्होंने अपने मालिकों से शिकायतें कीं. और जब ऐसा हुआ तो मालिक साहबों को बुरा लगा, उनका आरोप है कि 'अपने कर्मचारियों की बढ़ती शिकायतों से वो परेशान हैं' ('they feel harassed by the growing complaints raised by their employees') और समाधान क्या निकाला? शिकायतों का कारण दूर करने के बजाय शमीम को दूर कर दीजिये!

शमीम को 10 फरवरी को गिरफ्तार किया गया और इस समय यह होशन्गाबाद जेल में बंद हैं. और लगता है कि समाज के पुरजोर विरोध के बावजूद राजनीतिज्ञ-उद्योगों के मिलिभगत से यह अभी वहीं रहेंगी.

शमीम कोई नकसली महिला नहीं हैं. वो कोई डॉन-शॉन भी नहीं हैं. शायद उनकी गलती सिर्फ इतनी है कि उनमें संवेदना है. इसका फल तो वो भुगत रहीं हैं. इस समाज में गुंडो और भ्रष्टों की बन आई है, और इन सबका ख्याल रख रहे हैं अपने मुख्यमंत्री.

जो पत्रकार हर बात-बेबात के मुद्दे को हवा में उछाल रहे हैं, क्या वो इस तरफ ध्यान देंगे?

और हां, अगर आपको लगता है कि जिस तरह म.प्र. में इंसानियत को सूली पर चढाया गया वह गलत है, तो जरा शिवराज जी के बॉस को बता देना. lkadavani.in पर आडवाणी जी का दर खुला है. क्या उन तक यह खबर आप पहुंचायेंगे?

और शिवराज भैया, लोकसभा चुनाव तो होने हैं. जनता के ऊपर मूंग दलेंगे तो वहां क्या मुंह दिखाइयेगा?


यहां भी पढ़े


शमीम मोदी की रिहाई के लिये पिटीशन पर हस्ताक्षर करे

Sunday, February 22, 2009

बदलाव कैसे आता है #2 : वह काली लड़की उन सब आवाज़ कसते लोगों के बीच स्कूल गई

dorothycounts 1957 में अमेरिका में कोई काला व्यक्ती राषट्रपति नहीं था. वह दौर था जब अमेरिका ने रंगभेद से उस शिद्दत से नफरत करना नहीं सीखा था जैसे वह आज करता है. उस दौर और आज के दौर में बहुत फर्क है, लेकिन यह बदलाव आया हर बदलाव कि तरह धीरे-धीरे.

इसी बदलाव की एक कड़ी थी डोरोथी काउन्ट. यह काली अमेरिका के हैरी हार्डिंग हाई स्कूल में पढ़ने वाले पहले काले विद्यार्थियों में से एक थी. 15 साल की उम्र में सितम्बर 1957 में काउन्ट को इस स्कूल में प्रवेश मिला, जो कि सरकार की रंगभेद मिटाने के लिये उठायी गई नीति में एक कदम था.

उस काली लड़की का गोरे लोगों के स्कूल जाना बहुत लोगों को पसंद नहीं था. उनमें से ही एक थी जाँन वारलिक्थ की बीवी जिसने स्कूल के गोरे लड़कों से कहा, 'इसे बाहर रखो', ओर स्कूल की लड़कियों से कहा, 'थूको इस पर लड़्कियों, थूको'.

काउन्ट उस चीखती, गरियाती, थूकती, धमकियां देती भीड़ में चुपचाप चलती रही और स्कूल गई. दूसरे दिन उसके खाने में कूड़ा फेंका गया, टीचरों के सामने. तीसरे दिन जिन दो गोरी लड़कियों से उसने दोस्ती करने की कोशिश की, उन्हें भी डरा कर हटा दिया गया. और उसके परिवार को धमकी भरे फोन काल आने लगे. उसके परिवार की कार का शीशा तोड़ दिया गया और स्कूल में उसके लॉकर को लूट लिया गया.

चार दिन बाद डोरोथी के पिता ने उसे स्कूल से हटा लिया.

डोरोथी दूसरे स्कूल गई, पेन्सिलवैनिया में. वहां गोरे और काले बच्चे साथ-साथ पढ़ते थे.

कुछ क्रांतियां एक-एक कदम चल कर, लम्बी दूरी तय कर भी लाई जाती हैं. ऐसी ही एक क्रांती की जरुरत भारत को है. हमें भी बदलाव चाहिये जाति के खिलाफ. जातियां हमारी पहचान नहीं हमारी बेड़ियां हैं जो हमें एक बॉक्स में बंद कर देती हैं.

आप इस बदलाव में क्या योगदान दे सकते हैं?

Saturday, February 14, 2009

देश को अपने काम कि हफ्तावार रपट देना… क्या कोई हिन्दुस्तानी नेता ऐसा करेगा?

प्रेसिडेन्ट ओबामा ने बदलाव (Change) का वादा किया था, और धीरे-धीरे इस बात के चिन्ह दिखने लगे हैं कि बद्लाव हो रहा है. सबसे पहला और सबसे जरुरी बद्लाव जो दिख रहा हे, वह है पारदर्शिता.

ओबामा ने कई पहल की हैं जिनसे लगता  है कि लक्ष्य जनता को मूढ़ मान कर जानकारी से दूर रखना नहीं, बल्कि जानकारी को उसके नजदीक लाना है.

obama

कुछ ही हफ्तों पहले ओबामा ने एक नई शुरुआत की. Youtube पर White house के Channel पर उन्होंने देश को इस बात की हफ्तावार रपट देने शुरु किया है कि पूरे हफ्ते में उन्होंने क्या किया, किस तरह कि दिक्कतें उन्हें आईं, और क्या समाधान उन्होंने ढूंढ़े. अगर कोई नया कानून या कदम उन्होंने लिया तो उसका ज़िक्र भी वो वहां करते हैं. और देश में क्या गलत हो रहा है, उसके खिलाफ आवाज भी वो उठाते हैं (उसे पर्दे के पीछे छुपाने की कोशिश करने के बजाय).

तो उन्होंने अमेरिकी जनता को बताया कि किस प्रकार वो देश में आये आर्थिक संकट से लड़ने की कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने लोगों को संकट से लड़ने कि प्रेरणा भी दी, और उन कदमों से अवगत कराया जो वो ले रहे हैं. और साथ ही उन्होंने उन वाल-स्ट्रीट कि कंपनियों को चेतावनी भी दी जिन्होंने अपने उच्च-पद के लोगों को इस संकट काल में करोड़ों डालर बोनस के रूप में दिये. उन्होंने कहा कि अमेरिका को इस तरह का ‘लालच’ बर्दाश्त नहीं.

ओबामा ने अभी-अभी अमेरिकी कांग्रेस से 700+ बिलियन डालरों को आर्थिक संकट से जूझने के लिये पारित करवाया है. और उन्होंने इन रुपयों के खर्च के ब्योरा देने के लिये एक वेबसाइट की घोषणा की जहां लोग देख पायेंगे की पैसा कहां खर्च हुआ और इस खर्चे पर अपने विचार भी रख पायेंगे. इसका इस्तेमाल यकीनन इस बात को निश्चित करने में होगा की पैसा इमानदारी से खर्च हो, क्योंकि खर्च और उसका प्रभाव सब देख रहे हैं.

अब कुछ सवाल

1. क्यों नहीं हिन्दुस्तान में उच्च पदाधिकारी अपने काम का ब्यौरा अपने डिपार्टमेन्ट की वेबसाइट द्वारा लोगों को दें. यह तो एक वेबकैम से संभव है.

2. क्यों न सभी कल्याणकारी योजनाओं कि एक वेबसाइट हो जहां यह जानकारी विस्तार में हो कि पैसा कहां खर्च हुआ (वाउचर स्कैनिंग, व पाने वालों के नाम सहित). और यहां लोगों की शिकायत के लिये जगह भी हो.

इस सब में खर्च बहुत ज्यादा नहीं होने वाला, और अगर ऐसा हो पाये तो जितना पैसा बेईमान लोगों द्वारा डकारे जाने से बचकर आयेगा, उससे भरपाई हो जायेगी.

Better transparency will lead to better governance.

और ओबामा को इस तरह की कोशिश के लिये मुबारकबाद.

आप भी ओबामा की हफ्तावार रपट जरूर देखें. और जोर दें की हमारे यहां भी बदलाव आये.

Thursday, February 12, 2009

किसी भी घटिया हरकत का जवाब, वैसी ही घटिया हरकत से दिया जाये, तो अच्छा है. है न?

मुतालिक ने एक घटिया काम किया तो फिर इसका जायज जवाब तो वैसा ही घटिया काम करके दिया जा सकता है न? और कोई तरीका तो हमारे लोकतांत्रिक देश में है ही नहीं. तो चलिये मुतालिक को अंतर्वस्त्र ही भेज दें. यकीनन इससे मुतालिक को शर्म आयेगी और जिस तरह का घटिया काम उसने किया, वो आगे नहीं करेगा. है न?

indian womenDo they support the cause?
sari2
Do they?

ये भी सही समाधान है. चड्डियां भेज कर विश्व की कुछ और समस्याओं का भी लगे हाथों समाधान कर लें तो सही रहेगा. तो निशा सुजन से पूछना चाहिये कि तालिबान को किस पते पर चड्डियां भेजें (जो स्कूल जाने पर लड़कियों को पीट रहे हैं). पोप को किस पते पर चड्डियां भेजें (जो अभी भी ननों को थोथी शुचिता और विर्जिनिटी के नियमों में बांध के रख रहा है), और किस पते पर भेजें चड्डियां उन सबको जिनकी वजह से स्त्रियां त्रस्त हैं. या इन पर चड्डियों का असर नहीं होगा? सूजन, तुम्हारी indignation इतनी partial क्यों है.

मुतालिक और आगे का घटनाक्रम उस प्रकार है जैसे कि एक सुअर ने कूड़े का डब्बा फैलाकर गंद मचाया, और पीछे-पीछे चार सुअर और आये उसमें लोट लगाने.

न तो मुतालिक हिन्दू संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है, और न निशा सूजन किसी भी प्रोग्रेसिव औरत का. मैंने अपनी बीवी से पूछा (जो अच्छी खासी प्रोग्रेसिव है, महानगर की पैदाइश भी है, और पढ़ी-लिखी भी) तो उसने यही कहा कि निशा सूजन की हरकत घटिया है और इस बहाने उसने उन बहुत सारी स्त्रियों को शर्मसार किया है, जिन्हें वो रिप्रेसेन्ट बिलकुल नहीं करती.

एक लेख में लिखा था कि अंतर्वस्त्र प्राइवेट स्पेस है, तो फिर मुतालिक ने जिस तरह अपनी घटिया-लोगों की सेना   का औरतों के खिलाफ जिस तरह इस्तेमाल किया उसी तरह निशा सूजन ने भी यकीनन अपना घटिया एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिये प्राइवेट स्पेस को पब्लिक स्पेस बना डाला.

और यह गांधीगिरी भी नहीं. गांधीगिरी सिखाती है फूल देना जो कि सिम्बल है नेचर, ब्यूटी, प्योरिटी, और इनोसेंस के. यह तो गंदगिरी है, गंदगिरी और इसका सिंबल भी कुछ और ही रिप्रेसेंट करता है.

यह सिबल क्या रिप्रेसेंट करता है इसे जानना कुछ मुश्किल नहीं. कुछ ही दिन अगर अमेरिकी चैनल और फिल्में अगर देख ली जायें तो चड्डियों के reference और significance आपको समझ आयेगी.

असल में यह भी एक कारनामा है हमारे पोस्ट-मोर्डन और स्यूडो मोर्डन समाज के उस हिस्से का जिसने घटियापन  का ओवरडोज़ लेकर उसे आधुनिकता समझ लिया है. और इसलिये यह निंदा योग्य है.

और हां इसकी निंदा का तरीका कंडोम भेजना नहीं है, यह तो सब रिएक्शनरी कार्य होगा. इसका सही तरीका क्या है, थोड़ा सोचिए. और मुझे भी बताइये!