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Tuesday, October 27, 2009

बिकोज़ छत्रधर महतो इस ए गुड मैन

अपनी एक ट्रेन माओवादी आतंकवादियों के कब्जे में है. कई सौ यात्री हैं उस ट्रेन में उन सब की जिंदगी दांव पर है, और सौदा करने वाले हैं हमारे देश के नेता. माओवादी भी तैयार है सौदे के लिये, 1 के बदले 400. बोलो क्या कहती हो दिल्ली सरकार? छत्रधर महतो को छोड़ेंगे?

कंधार के नाम पर भाजपा सरकार को पानी पी-पीकर कोसने वाले यतींद्रनाथ के बदले एक सौदा पहले भी कर चुके हैं. माओवादी इमानदार साबित हुए. POW को छोड़ दिया. दोनों तरफ से अच्छी डील हुई, दोनों सौदागर इत्मीनान में है, पार्टी रिलायबल है, डील चलती रहे.

इसलिये माओवादियों की तरफ से ताजी आफर इतनी जल्दी आ गई, पहले 1 के बदले 10 थे, अब 500 के बदले सिर्फ एक – छत्रधर महतो. क्या अपनी सरकार को सौदा बुरा लगेगा?

{कंधार-कंधार-कंधार} बार-बार मुझे याद आता है कंधार. अब सरकार उन्हीं की है जिन्होंने कंधार का इतना गहन विश्लेषण किया. लेकिन फैसला दूसरा होगा इसकी अपेक्षा व्यर्थ है क्योंकि यतीन्द्रनाथ के मामले में एक उत्साहवर्धक precedent दिया जा चुका है.

मीडिया का गेम भी चालू हो चुका है. ट्रेन तक पुलिस/आर्मी पहुंचे न पहुंचे, कुछ चुनिंदा चैनलों के नुमाईंदे पहुंच गये. ऐसा लगता है जैसे तैयार बैठे थे.

कंधार में देश का हाथ मरोड़ा जा रहा था अजहर मसूद को छुड़ाने के लिये. वो तो एक आतंकवादी था. अब जो सामने है उसके गुट को कोई आतंकवादी नहीं कहता. देश का एक खास  कुबुद्धिजीवी वर्ग तो सिर्फ इनके दर्द में जीता, दर्द में मरता है. ये लोग गरीबों के मसीहा, सर्वहारा वर्ग को जिताने वाले, व दुखियों के हमदर्द हैं. तो भाई जब अजहर मसूद जैसे शैतान को छोड़ सकते हैं तो फिर छत्रधर महतो को क्यों नहीं, खासकर तब जब ‘ही इज़ ए गुड मैन’ जैसा कि एनडीटीवी में लगातार दिखाया जा रहा है.

थू ! थू sss

ताजा समाचार है कि छ्त्रधर के लोगों ने ट्रेन छोड़ दी. मतलब डील जमी नहीं, या यह सब एक जबर्दस्त पब्लिसिटी स्टंट था?

माओवादियों के पीछे आखिर बुद्धीजीवी दिमाग है न.

Monday, April 13, 2009

हिमाकत देखिये… गलत वक्त पर सही बात!

चुनाव का समय है, आजकल नेतादर्शन कुछ ज्यादा ही हो रहे हैं. नेतागण टीवी पर भारी डिबेटें कर रही हैं और उसमें लचर-लचर दलीलें आंय-बांय बक रहे हैं, हम मुंह फाड़े झेल रहे हैं.

ऐसी ही एक दलील का पोस्टमार्टम करते हैं

दलील है – गलत वक्त पर सही बात

बानगी पेश है : आडवाणी ने देश का पैसा वापस मंगाने की बात अब ही क्यों उठाई… क्यों उठाई अब? बोलो? जवाब दो… अब ही क्यों?

chup karटेप लगा दो मुंह पर, फिर नहीं बोलेगा. 

क्यों भैया कोई खास मुहुर्त चल रहा है इस समय जिसमें देश कि भलाई की बात करना मना है? भाई मेरे तुम ये न पूछ रहे कि बाकियों ने अब भी क्यों नहीं उठाई, तुम ये पूछ रहा हो कि जिसने उठाई उसने भी क्यों उठाई?

घसियारा लाजिक है. बल्कि घास चरके लीद किया हुआ लाजिक है.

देश हित की बात है. देश का पैसा है. टैक्स दिये बिना, घूस-वूस में कमा के देश के बाहर भेज दिया. कोई लाख-दो लाख नहीं 25 हजार करोड़ है. अगर कोई आदमी चुनाव के समय ही सही, अगर यह कहे की भैया देशचोरों से पैसा वापस लाना है तो इन्हें ऐतराज है?

खबर तो पिछले साल से है कि जर्मन सरकार नाम बतलाने के लिये तैयार थी. यहां तक की नवंबर में मैंने भी इसका जिक्र किया था (http://wohchupnahi.blogspot.com/2008/11/blog-post_22.html, नीचे जा के पहला पाइंट देखिये) अपने पत्रकार भाई लोग तो बिना बात की बकवास करके नोट जुटाने में चिपे थे… तो भैया तब तो न उन्होंने, न तुमने इस बात का जिक्र किया. तकिये के नीचे दबाकर बैठे थे. अब अगर बात उठी है तो इसे उड़ाने की बजाय बिठाकर गौरवान्वित कर रहे हो़? नेता लोग तो पहले ही अजब-गजब थे, और अब अपने देश के पत्रकार गजब-अजब हो रहे हैं.

इधर कोई चिल्ल मचा रहा है ‘ऐं क्यों बोला अब..’ उधर कोई बिलबिला रहा है ‘ओये.. अब क्यों बोला..’

सच्ची-सच्ची बोलूं?

बात यह नहीं है कि अब ही क्यों बोला.. बात यह है कि भैया -- क्यों बोला!… बोला ही क्यों! --  क्यों ही बोला!…

अब नहीं भी बोलता तो जब भी बोलता तब भी ‘अब बोला?’ कर देते अपने गुणीजन.

अबे थोड़ी तो शर्म करो… क्या इसी दिन के लिये देश का नमक खा कर बड़े हुये हो?

Saturday, April 11, 2009

आइये, वापस कंधार चलें

आजकल गलती से कोई न्यूज़ चैनल खुल जाये तो कोई न कोई कांग्रेसी दिख जाता है एनडीए के पांच साला शासन को याद करते हुये. चाहे वो कपिल सिब्बल हो, दिग्विजय, राहुल, सोनिया, मनमोहन, या कोई और, सब एनडीए की यादों में खोये हुये हैं, ऐसा लगता है कि पिछले 5 सालों में भी शासन भाजपा का ही रहा है.

Debating एक कला है और उसमें कांग्रेस ने जो तरीका अपनाया है उसे कहते हैं ‘Tu Quoque’ (you too) इसका मतलब है कि हम तो चोर हैं सनम, तू भी चोर ही है. मतलब अगर सोनिया गांधी एनडीए के राज में हुये विस्फोटों का हवाला दें तो वो इस argument के जरिये कांग्रेस के शासन काल में हुये विस्फोटों को justify कर रही हैं.

kandahar

लेकिन एक बात याद रखिये, गलती चाहे कोई भी करे, कितनी भी बार की जाये, गलती तो गलती है. इसलिये कांग्रेस की यह दलील कि तुम भी चोर ही हो सिर्फ वाद-विवाद प्रतियोगिता में ही अंक दिला सकती है. मतलब कांग्रेस के शासन में हुये मुम्बई, दिल्ली, अहमदाबाद, बंगलुरु, आसाम, में हुई घटनाओं के लिये यह सफाई काफी नहीं.

1. हर incompetence, हर असफलता, हर बेईमानी का जवाब यह नहीं कि उनके शासन काल में भी ऐसा हुआ था. अगर ऐसा था कांग्रेस, तो हम उन्हें ही क्यों न चुनें? आपको क्यों चुनें?

वैसे एनडिए के शासनकाल इतना सफल रहा कि जब उसका अंत आया तो india shining था, और आज जब कांग्रेस के यूपीए के शासनकाल का अंत हो रहा है तो india whining हो रहा है. इसकी जिम्मेदारी भाजपा नहीं कांग्रेस के सर ही है.

और अब बात करें मुख्य मुद्दे की, बात करें कंधार की. कांग्रेस ने कंधार के नाम पर एक ऐसा दाग लगाया है भाजपा पर जिसका जवाब मुश्किल ही देते बनता है. लेकिन मैं कहता हूं कि कंधार का सबक एनडीए को मिला जरूर, लेकिन उसके पीछे का कारण भाजपा की कमजोरी नहीं शासन की तुरत-फुरत कार्य करने की क्षमता की विफलता थी. यह एक ऐसी शासन प्रणाली की देन थी जिसे भाजपा को विरासत में दिया गया था, और जो घटनाक्रम उस समय बना, उसमें शायद दूसरा फैसला कर पाने की शक्ती भाजपा में ही नहीं, देश में भी नहीं थी.

में उस घटनाक्रम की तुलना करूंगा black September से, जिसके बाद इज़राइल की नीतियों में बहुत बड़ा बदलाव आया. उस घटना में इज़राइल के 11 खिलाड़ी जर्मनी के ओलम्पिक खेलों में इस्लामिक आतंकवादियों द्वारा अपहृत कर लिये (PLO द्वारा) और उनकी मांगे एक नहीं इज़राइल की जेलों में सड़ रहे सभी आतंकवादियों को छोड़ने की थी.

उस मामले पर बात चालू थी, और कहते हैं कि इज़राइल की सरकार कुछ लोगों को छोड़ने के लिये तैयार भी हो गई थी (सभी को नहीं), म्युनिख के हवाई अड्डे पर उन्हें हैलिकाप्टर भी दिया गया, लेकिन जर्मन सेना की जल्दबाजी से सारे खिलाड़ी मारे गये. उस समय इज़राइली प्रधानमंत्री गोल्डा मायर को बहुत criticism का सामना करना पड़ा और उन्हें ऐसा कसाई भी कहा गया जिसने उन खिलाड़ियों को मरने छोड़ दिया. आज जरुर उन आतंकवादियों को न छोड़ने पर गर्व किया जाता है.

कंधार के घटनाक्रम में 11 नहीं, 110 नहीं 200 से ज्यादा लोग उन आतंकवादियों के कब्जे में थे. कौन भूल सकता है उन लोगों के बिलखते हुये परिजनों को जिन्हें हिन्दुस्तानी टीवी चैनल लागातार दिखा रहे थे. एक शो में मैंने एक फैशन डिज़ाइनर को रो-रोकर अपने दोस्त/भाई/कुछ और को छुड़वाने के लिये कहते सुना, शब्द कुछ ऐसे याद पड़ते हैं “कुछ भी करो, मान लो उनकी बातें.. बचा लो… बू हू… बचा लो”

सेना के एक शहीद की बेवा ने जब कहा कि आतंकवादियों को नहीं छोड़ना चाहिये तो उसे डपटकर चुप करा दिया गया. मतलब उस समय पूरा देश सहानूभूती से लबरेज था. देश की सरकार पर बहुत जबर्दस्त दबाव था उन लोगों को बचाने का, प्रेस की मुहिम भी यही थी.

उधर जहाज हमारे बुर्जुआ हो चुके सुरक्षा तंत्र के अव्यवस्था के चलते कंधार पहुंच चुका था. तालिबान के इस्लामिक आतंकवादियों के बीच, उनके हवाई अड्डे पर. वो न हमें कोई बात करने देने को तैयार थे, न कोई सैनिक आपरेशन चलाने देने के. असल में वो उन आतंकवादियों के ही साथी थे. कोई और देश होता, तो वो नहीं होता जो हुआ.

उस समय को याद कीजिये, उस समय में खुद अपनी अनुभूतियों को याद कीजिये, और याद कीजिये उस दर्द को सबने महसूस किया. उस समय की सबसे बड़ी priority आतंकवादी या आतंकवाद से मुकाबला नहीं उन 200 लोगों को बचाने की बन चुकी थी. और इसलिये कंधार हुआ.

क्या आप सोचते हैं कि भाजपा ने जो किया उस घटनाक्रम में कांग्रेस कुछ अलग कर पाती?

लेकिन अब बात करते हैं उसकी जो नहीं हुआ, जो भाजपा ने भी नहीं किया और कांग्रेस ने भी नहीं. बात करते हैं black September के बाद हुये उस घटनाक्रम की जिसने सारे इस्लामिक आतंकवादियों के दिल दहला दिये.

इज़रायल की सुरक्षा एजेंसी मौसाद ने 16 लोगों के बारे में पता लगाया जो काले सितंबर के जनक थे और उनमें से 11 को कार्यवाही में मारा.

  1. क्यों जीवित है अब तक हिन्दुस्तान के दुश्मन?
  2. रॉ जिसके नाम से सारा पाकिस्तान कांपता है क्यों दाउद इब्राहिम को देश में नहीं ला पाई, या विदेश में ही खत्म नहीं कर पाई.
  3. जिन्होंने कंधार आदी को अंजाम दिया, उन्हें हम क्यों सजा नहीं दे पाये.

मैं मानता हूं कि भाजपा और कांग्रेस की विफलता भी यही है… जो कंधार के बाद हुआ. कंधार विफलता नहीं विवशता थी.

क्या हम अपेक्षा करें की अगली चुनी हुई सरकार देश के दुश्मनों की दुश्मन बनकर दिखायेगी?

Sunday, March 29, 2009

हम क्या कहते हैं, वो क्या सुनते हैं, वो जो सुनते हैं, हम कब कहते हैं

आडवाणी की प्रेस कांफ्रेंस का लाइव टेलेकॉस्ट देख के हटा हूं, अच्छा हुआ की लाइव देख ली वरना इन  पत्रकारों की ताजी बदतमीजी को समझ नहीं पाता. पता नहीं ये किस आटे का पिसा खाते हैं. क्या ये उसी समाज की उपज हैं जहां उन लोगों का जन्म हुआ जो अपने कर्तव्य और देश के लिये बड़ी से बड़ी कुर्बानी दे गये.

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आज आडवाणी ने प्रेस कांफ्रेस बहुत महत्वपूर्ण मुद्दे के लिये बुलवाई थी मुद्दा था देश का 25 लाख करोड़ रुपया जो कि काला धन बनकर स्विस बैंको में चला गया है.

कुछ समय पहले जर्मन गर्वनमेंट के हाथ उन लोगों की जानकारी लगी जिनका पैसा स्विस बैंकों में जमा है, उन्हें यह भी पता लगा कि किसका कितना पैसा है वहां. तो उन्होंने सारी दुनिया में ऐलान किया कि जो-जो देश हमसे पूछेगा, हम उन्हें बतायेंगे कि वहां पर किस आदमी का कितना-कितना धन इन बैंकों में है.

इस बात को कई महीने हो गये, एक दो अखबारों में खबरें भी छपी (लेकिन सत्ता के गुलाम पत्रकारों को देशहित नहीं दिखता, इसलिये यह खबरें उतनी तक नहीं दिखाई गयी जितना ये लोग बार गर्लों को दिखा देतें हैं). बिरादर, देश का 25 लाख करोड़ रुपया बाहर भेज दिया गया, और यह भी जानिये कि हम महान हिन्दुस्तानीयों को एक और रुतबा हासिल है, सारे देशों में पैसे जमा करने में हमारा नंबर 1 है, मतलब भारतियों का सबसे ज्यादा पैसा जमा है वहां. वाह रे देश की सरकारों, बहुत रुकवाया करप्शन तुमने पिछले 60 सालों में.

जिस समय यह खबर आई उस समय आडवाणी ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर जर्मनी से उन हिन्दुस्तानियों के नाम पूछने का सुझाव दिया जिनका पैसा वहां जमा है, तो बिरादर अपने महाशक्तिशाली प्रधानमंत्री तो नहीं, लेकिन वित्त मंत्रालय की तरफ से टालू जवाब आ गया.

तो आडवाणी ने प्रेस कांफ्रेस बुलाई थी इसलिये कि वो कहें कि है बलशाली प्रधानमंत्री मनमोहन जी, आप जी-20 सम्मेलन में जा रहे हैं वहां मिलेंगे आप जर्मनी के चांसलर से भी, तो हे मनमोहन जी वहां इस बात को उठायियेगा, वहां कहियेगा कि बिरादर दे दो हमें उन लोगों की सूची जिन्होंने देश का पैसा बाहर जमा कर रखा है. और यह बात पब्लिक फोरम पर आडवाणी ने इसलिये कही कि पिछले पत्र की तरह यह भी दबा न दी जाये.

पूरी प्रेस कांफ्रेंस में आडवाणी ने बताया की किस तरह इस पैसे का इस्तेमाल देश की बेहतरी के लिये होना चाहिये, और उन्होंने इसे चुनावी मुद्दा भी बनाया, और यह भी कहा कि वो जरूर पूछेंगे जर्मनी से कि बताओ उन लोगों के नाम जिन्होंने देश को चूना लगा लगा कर पैसा स्विस बैंकों में भेज दिया.

एक पत्रकार ने उनसे कहा कि अगर उन लोगों के नाम पता चल गये जिनका इतना पैसा जमा है तो भूचाल आ जायेगा. तो आडवाणी ने उससे कहा कि मैं चाहता हुं कि ऐसा हो, उन लोगों के नाम खुलें जिससे देश का पैसा देश में वापस आ पाये.

उन्होंने इस प्रेस कांफ्रेंस में यह भी बताया कि बीजेपी की सरकार बनने पर वो देश में शिक्षा के लिये काम करने के लिये प्रतिबद्ध हैं, और देश में उच्च कम्प्युटर शिक्षा लाने के लिये प्रतिबद्ध हैं.

लगभग 45 मिनिट चली यह प्रेस कांफ्रेस, और बातें सारी यहीं हुईं, लेकिन अंत होते-होते एक सयाने पत्रकार ने पूछ लिया कि वरुण गांधी पर क्या खयाल हैं, तो आडवाणी ने वही कहा जो वह कहते हैं आ रहे हैं, कि वरुण ने कहा है कि बयान मेरा नहीं है.

और भाई मेरे, इन महान पत्रकारों की जमात ने 45 मिनिट की कांफ्रेंस में से क्या निष्कर्ष निकाला सिर्फ आखिरी पांच मिनट? इन्होंने निकाला

'आडवाणी ने वरुण का बचाव किया'

  • इन्होंने यह नहीं सुना कि आडवाणी ने कहा कि देश का 285 करोड़ रुपया काला धन बन चुका है
  • इन्होंने यह नहीं सुना कि आडवाणी ने मनमोहन से उन लोगों का नाम पूछने को कहा जिनका पैसा है यह
  • इन्होंने यह नहीं सुना कि इस पैसे को देश में वापस लाना है
  • इन्होंने यह नहीं सुना कि आडवाणी ने कहा कि भूचाल आये तो भी उन लोगों के नाम जगजाहिर होने चाहिये
  • इन्होंने बस वही सुना जिसे सुनने की परमिशन इनके आकाओं ने दी.
  • इन्होंने सुना बस वरुण, देश को यह भूल गये

जिस-जिसने यह प्रेस कांफ्रेस देखी हो, और बाद में इसके बारे में पत्रकारों की कवरेज देखी हो, उसका खून आज खौल उठा होगा.

जय चौथा खंभा...

और बीजेपी, वक्त आ गया है कि तुम भी whitehouse की तरह से Youtube पर अपना चैनल लगाओ और अपने भाषण, वक्तव्य और प्रेस कांफ्रेसों के विडियो वहां डालो. कम से कम देश अगर कोई रेफ्रेंस चाहे, तो वह तो मिले.

Saturday, February 28, 2009

तो अब शिवराज हर आवाज़ को दबा देंगे?

शिवराज सिंह ने कठिन समय में मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव क्या जीत लिया उन्हें लगने लगा कि सारे मध्य प्रदेश का निर्बाध कब्जा उन्हें मिल गया, कि लो ठाकुर अपनी मिल्कियत चलाओ अपनी मर्जी से. और अगर इनकी जागीर में कोई ऐसी आवाज़ उभर आये हो जो इन्हें रास न आये, तो उसे अपने हथकंडो से दबाना भी ठीक उसी तरह इन्होंने सीख लिया है जिस तरह से फिल्मों में कोई दबंग जमींदार.

मैं बात कर रहा हूं शमीम मोदी की जो सालों से मध्य प्रदेश के सबसे निचले तबके - ग्रामीण, गरीब, आदिवासी लोगों के हित में आवाज उठा रहीं हैं. इनकी बातें और काम यहां के अमीर इन्डस्ट्री मालिकों के गले नहीं उतरा जो वन के संसाधनों का उपयोग वनवासियों के हित ताक पर रख के अपने हितों के लिये करना चाहते हैं. शिवराज सिंह चौहान पर गरीब लोग दबाव बना पाते हैं कि नहीं यह तो पता नहीं, लेकिन इस इन्डस्ट्री लॉबी ने अपने मुख्यमंत्री को 48 घन्टे दिये थे शमीम से छुटकारा दिलाने के लिये और वहां कि पुलिस ने यह काम 24 घन्टों में ही कर दिखाया.

shamim
लाल घेरे में हैं शमीम मोदी, इन्होंने ही अपहरण वगैरा को अंजाम दिया है. देख कर ही डर गया ऐसी दबंग महिला को मैं. आप डरे...?

तो एक सालों पुराने झूठे अपहरण के केस को खोद निकाला गया और शमीम मोदी को गिरफ्तार कर लिया गया. मजे कि बात तो देखिये, जिस व्यक्ति का अपहरण का यह केस था, वह उसी समय अदालत में मौजूद था, और उसने जज से कहा कि ऐसी कोई भी बात नहीं. फिर भी शमीम को गिरफ्तार किया गया.

असल में बात सिर्फ इतनी सी है कि हर्दा जैसी छोटी जगह में इन मोटी आसामियों का राज नहीं चलेगा, तो किसका चलेगा? गरीब आदिवासियों को तो अपने हक का पता भी नहीं. जो लोग जंगलों का बेलाग दोहन कर रहे हैं वो नहीं चाहते कि कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति जंगल वासियों को उनका हक समझाये, या उनके लिये आवाज उठाये. इसलिये शमीम मोदी जैसे लोगो को तुरत-फुरत डराने और निकालने की इन्हें सख्त जरुरत महसूस हो रही है.

दरअसल शमीम मोदी के संगठन का नाम है श्रमिक आदिवासी संगठन और इसके काम के चलते जब आदिवासी श्रमिकों को पता लगने लगा कि उन्हें किस कदर दुहा जा रहा है तो उन्होंने अपने मालिकों से शिकायतें कीं. और जब ऐसा हुआ तो मालिक साहबों को बुरा लगा, उनका आरोप है कि 'अपने कर्मचारियों की बढ़ती शिकायतों से वो परेशान हैं' ('they feel harassed by the growing complaints raised by their employees') और समाधान क्या निकाला? शिकायतों का कारण दूर करने के बजाय शमीम को दूर कर दीजिये!

शमीम को 10 फरवरी को गिरफ्तार किया गया और इस समय यह होशन्गाबाद जेल में बंद हैं. और लगता है कि समाज के पुरजोर विरोध के बावजूद राजनीतिज्ञ-उद्योगों के मिलिभगत से यह अभी वहीं रहेंगी.

शमीम कोई नकसली महिला नहीं हैं. वो कोई डॉन-शॉन भी नहीं हैं. शायद उनकी गलती सिर्फ इतनी है कि उनमें संवेदना है. इसका फल तो वो भुगत रहीं हैं. इस समाज में गुंडो और भ्रष्टों की बन आई है, और इन सबका ख्याल रख रहे हैं अपने मुख्यमंत्री.

जो पत्रकार हर बात-बेबात के मुद्दे को हवा में उछाल रहे हैं, क्या वो इस तरफ ध्यान देंगे?

और हां, अगर आपको लगता है कि जिस तरह म.प्र. में इंसानियत को सूली पर चढाया गया वह गलत है, तो जरा शिवराज जी के बॉस को बता देना. lkadavani.in पर आडवाणी जी का दर खुला है. क्या उन तक यह खबर आप पहुंचायेंगे?

और शिवराज भैया, लोकसभा चुनाव तो होने हैं. जनता के ऊपर मूंग दलेंगे तो वहां क्या मुंह दिखाइयेगा?


यहां भी पढ़े


शमीम मोदी की रिहाई के लिये पिटीशन पर हस्ताक्षर करे

Sunday, September 14, 2008

हमने पोटा हटाया, मकोका नहीं क्योंकि वो पुराना था. और हां गुजरात के लिये मकोका जैसा नया कानून नहीं देंगे.

terror

अभिषेक मनु सिंघवी सावधान राजनेता हैं, वो चाहते हैं कि लोग उनका वही मतलब समझें जो वो कहना चाहते हैं. वो टेलिव्हिजन पर कहते हैं - "मुझे पूरा मौका दीजिये अपनी बात कहने का, क्योंकि बहुत सारे लोग देख रहे हैं, और वो भी अपना दिमाग इस्तेमाल करेंगे."

लेकिन लगता है कि अभिषेक मनु सिंघवी को अपनी ही बात पर भरोसा नहीं. नहीं तो वो समझ जाते की जो दलीलें उन्होंने दीं वो कितनी थोथी थीं.

राजनीति मुद्दे से ध्यान भटकाकर अमुद्दे पर ले जाने की कला है, और अरुण जेटली भी इसमें कम माहिर नहीं. दोनों शातिर खिलाड़ी लगे हैं सबको बेवकूफ बनाने.

- कांग्रेस आतंकवादी विरोधी कानून बनाने को तैयार नहीं.
- बीजेपी केन्द्र संचालित आतंकवाद निरोधक विभाग के लिये तैयार नहीं.

क्यों? क्यों? क्यों? क्यों?!!!!

कांग्रेस कहती है

- पोटा कानून के अंतर्गत मानवाधिकार उल्लंघन का रिकार्ड है.
1. आतंकवाद के अंतर्गत मानवाधिकार उल्लंघन नहीं होता? कुल कितनी जानें गईं  - अहमदाबाद विस्फोट, मुम्बई, बैंगलोर, दिल्ली. क्या पोटा में उससे ज्यादा लोगों के मानवाधिकार का उल्लंघन हुआ?

क्या देश के नागरिक मानव नहीं हैं?

2. मानवाधिकार का उल्लंघन कानून नहीं करता, कानून के कारिंदे करते हैं. मानवाधिकार का उल्लंघन दफा 300, 302, 320, 351, (आगे)... में भी किया जा सकता है, तो क्यों न आप देश के सारे कानून निरस्त करें?

देश में हर साल कितने लोगों की पुलिस कस्टडी में जान जाती है? क्या वो सब पोटा के अंतर्गत मरते हैं? या उनके मानवाधिकार पोटा बंदी के मानवाधिकारों से कम थे?

क्या जरुरत कानून से बचने की है या उसका सही इस्तेमाल पक्का करने की.

हां ? नहीं ?

- पोटा से क्या आतंकवादी घटनायें रुक गईं ? संसद पर फिर भी हमला हुआ.

कांग्रेस की इस दलील पर कुर्बान हो जाने का दिल करता है.

इतने सारे कानून हैं इस देश में. कत्ल के खिलाफ, चोरी के खिलाफ, ब्लात्कार के खिलाफ, फिर भी क्या यह सब अपराध रुके?

हटा दो! हर कानून मिटा दो! विनती है तुमसे.

अपराध का निर्मूलन कानून बनाने से कब हुआ है? अपराध का निर्मूलन कानून को सही लागू करने से होता है. लेकिन लागू करने वालों के हाथों में सही कानून होना चाहिये. क्या खाली हाथ हमारी सुरक्षा एजेंसियां बदकार आतंकवादियों से लड़ पायेंगी?

- पोटा के अंतर्गत अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया गया.

लेकिन कानून तो बनाया गया था आतंकवादियों को निशाना बनाने के लिये. तो क्यों न यह निश्चित किया गया कि जो निर्दोष हो (बहुसंख्यक समुदाय से, या अल्पसंख्यक समुदाय से) उसे बचाया जा सके.

दूसरी बात. लगभग सभी आतंकवादी अल्पसंख्यक समुदाय के ही हैं. उन्हें बड़े स्तर पर प्रोपोगेन्डा का इस्तेमाल कर देश व समाज के विरुद्ध ब्रेनवाश किया जा रहा है. जब लगभग हर आतंकवादी इसी समाज का हो, तो यह दलील देना बहुत आसान है कि इस अल्पसंख्यक समाज को निशाना बनाया जा रहा है, क्योंकि जो आतंकवादी मिलेगा, ज्यादातर मामलों में इसी समुदाय का होगा. तब क्या उसको गिरफ्तार न किया जाये?

क्या जो बचे-खुचे कानून हैं, उनमें अल्पसंख्यकों को गिरफ्तार न करने का प्रावाधान है, आरोप चाहे जो हो?

- गुजरात को मकोका जैसा कानून नहीं देंगे, क्योंकि गुजरात में उसका बेजा इस्तेमाल हो सकता है. महाराष्ट्र से मकोका नहीं हटायेंगे, क्योंकि वो पुराना है.

क्या हम सब देशवासी निर्बुद्धी हैं जिन्हें इस दलील के छेद दिखाई नहीं देंगे़?

गुजरात क्या देश का हिस्सा नहीं? या आतंकवाद गुजरात की समस्या नहीं? क्या केन्द्र सरकार को अहमदाबाद, अक्षरधाम, सूरत दिखाई नहीं देते? या फिर गुजराती मरें तो केन्द्र को फर्क नहीं पड़ता? तो क्यों न गुजरात को महाराष्ट्र की बराबरी का दर्जा देकर मकोका जैसा कानून दिया जाये?

या अगर ये ही मान लें कि मकोका इसलिये नहीं देना चाहिये क्योंकि उसका बेजा इस्तेमाल होगा तो फिर महाराष्ट्र में क्यों इस तरह का कानून है? वहां क्या इल्जाम नहीं लगे कि इस कानून का बेजा इस्तेमाल हो रहा है?  या क्योंकि महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार है तो वहां इसका बेजा इस्तेमाल इजाजत योग्य है?

अगर किसी कानून के गलत इस्तेमाल की संभावनायें हैं, इतनी कि उसे दूसरे राज्य में लागू करना सहीं नहीं माना जा रहा, तो क्या सिर्फ इस आधार पर उसे निरस्त न करना उचित है कि वह पुराना है?

अगर इस तर्क को उचित माना जाये तो फिर उन सारे कानूनों को निरस्त कैसे करा जा सकता था जिनका निर्माण अंग्रेजों ने देशवासियों का दमन करने के लिये किया था?

बीजेपी कहती है

- केन्द्रीय जांच एजेंसी से पहले पोटा जैसा कानून लाइये.

कांग्रेस आतंकवाद की जांच के लिये केन्द्रीय एजेन्सी बनाना चाहती है, लेकिन बीजेपी का कहना है कि समर्थन के लिये पोटा जैसा कानून लाइये.

एक तरफ तो अरुण जेटली का कहना है कि केन्द्रीय जांच बल की सोच आडवाणी की थी और उसके लिये तब कांग्रेस शासित प्रदेश तैयार नहीं थे. अब उसके शासित प्रदेश इसके निर्माण के लिये तैयार नहीं? निरी धांधली है यह.

क्या केन्द्रीय जांच ऐजेंसी का निर्माण सिर्फ इसलिये टलता रहे कि दोनों पार्टियां अपनी छिछली सौदेबाजी और बदला लेने की कार्यवाही में लगी हैं. क्या देशवासियों की जान इतनी सस्ती है?

बीजेपी को क्यों दिखाई नहीं देता की हर छोटा-से-छोटा कदम जिससे आतंकवादी कमजोर हो, देशहित में हैं, और इसको रोकने के बदले प्रोत्साहित करना चाहिये. क्या इस मुद्दे यह ओछापन देशद्रोह से कम है?

मैं कहता हूं

टूट जायेगी गुलामी की कड़ी दम भर में आप
हिन्दु-ओ-मुस्लिम के बस कंधा सटा देने के बाद
(माहिर)

ऐ हिन्दू, ऐ मुसलमान. उठ जाओ दीनो-धर्म से ऊपर.

सबसे बड़ा धर्म है इंसानियत, क्योंकि खुदा तक ने तुम्हें अकेला छोड़ दिया पाप-पुण्य के नाम पर मरने को और साथ दिया तो बस दूसरे इन्सानों ने.

आतंकवाद का उन्मूलन करने के लिये बात हो लिबर्टी की, फ्रीडम की, उम्मीद की, दीन की बिलकुल नहीं, धर्म की बिलकुल नहीं.

सबसे पहले तो हर देशवासी निश्चय करे की देश के खिलाफ किसी प्रकार का प्रोपोगेन्डा सुना न जाये, और इसके प्रसार को रोका जाये.

-- मुद्दआ जारी रहेगा.