कहते हैं कि जीत अंतत: सत्य की होती है -- गलत कहते हैं. यह समाज का idealist विश्लेषण है, realist नहीं. असली जिंदगी में जो जीतता है वही सत्य होता है. पूरी जीत की पहचान ही यही है कि आपके विपक्षी का पक्ष ही न बचे. अगर बच गया तो जीत अधूरी है. विपक्षी सभ्यता को अपने अंदर पूर्ण रूप से आत्मसात कर लें तो फिर आप ही आप बचेंगे, और सत्य कुछ होगा ही नहीं. चाहे रावण हो या दुर्योधन, जो हार गया उसके साथ क्या सहानूभूति रखना. वो खुदा नहीं हो सकता, खुदा तो होगा जीतने वाला. वो राम होगा, वो कृष्ण होगा. बेशक किसी आत्मग्लानी के पल में हम दुर्योधन और रावण को स्वर्ग भी भेज दें, लेकिन स्वर्ग में बैठकर इतिहास नहीं लिखा जाता. इतिहास लिखा जाता है विजेता होकर. इसलिये मर्यादा पुरुषोत्तम सिर्फ विजेता ही बनता है, और धर्मराज वही होता है जिसके पक्ष में विजेता हों.
असल में जीत सत्य की नहीं, जीत ही सत्य होती है. और जो इसे सत्य नहीं मानते, वो सत्य नहीं जानते.
मध्य एशिया और पुरे युरोप में किसी जमाने में पारसी धर्म, यहूदी धर्म, ईजिप्ट के पुरातन धर्म, सूर्य उपासकों का बोलबाला था, लेकिन उनमें धर्म के प्रति वो उन्माद नहीं था जो नव-क्रिस्तानों और बाद में मुसलमानों में रहा. इसलिये वो धर्म के लिये लड़ नहीं पाये, वो या तो मरे, या खुद इन नव-धर्मों में शामिल हो गये. अब उन पुरातन धर्मों के अवशेष भी नहीं मिलते. सांस्कृतिक इतिहास वहीं से शुरु होता है जहां से ईसा का जन्म हुआ, या जहां मुहम्मद आये. उससे पहले सिर्फ लड़ाइयों की कहानी है, कल्चर नदारद है. विजेता यही करता है. पराजित की संस्कृति का लोप.
जीतने वाले सत्य के दम पर हिटलर की क्रूरता का भान सभी को है, लेकिन लगभग उतनी ही मौतों के जिम्मेदार एलीज़ हीरो बन जाते हैं. जो जीत जाते हैं सत्य उनका गुलाम हो जाता है. इसलिये ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर चर्चिल सुपरमैन की तरह याद किये जाते हैं.
वर्तमान इतिहास की ही प्रतिबिम्ब है, और इस प्रतिबिम्ब में हम क्या देखते हैं, क्या समझते हैं इसी के दम पर भविष्य का निर्माण होता है. सत्य को जीत मान लेना बहुत आसान है, लेकिन इस गफलत में पढ़कर हम सत्य को नहीं जीत को बढ़ावा दे रहे हैं. हम यही कह रहे हैं कि चाहे तुम जो हो, अगर तुम जीत गये तो हम तुम्हें स्वीकार कर लेंगे. तो तुम बन जाओगे हमारे लिये खुदा, या खुदा समान.
जो शक्तिशाली और किस्मतवाला होगा, जीत उसकी होगी. लेकिन वो सही भी हो यह जरूरी नहीं. हमारे इतिहास में विजेताओं की फेरहिस्त बहुत लम्बी है, अगर कुछ विजेता इधर के उधर हो जायें को कुछ खास फर्क नहीं पड़ेगा, बस हमारे कुछ नायक बदल जायेंगे.
अगर भविष्य को बेहतर बनाने की चाहत है तो इतिहास को वैसा ही स्वीकार करना होगा जैसा वो सचमुच है. पराक्रम को सत्य से जोड़न एक असभ्य समाज की निशानी है जिसमें अब भी इतनी परिपक्वता नहीं की सत्य को उसकी ही योग्यता पर स्वीकार्यता दे सके और उसमें जीत के सहारे को जोड़ने के लिये बाध्य न हो.
bahut sahi likha hai aapane, jeet saty kee nahee hoti hai jeet hee saty hota hai
ReplyDeleteमॊलिक विचार है और बात में दम है। मैं एसे कहता हूं:
ReplyDelete"वो देखो दौड के मन्ज़िल पे जा पहुंचा,
कौन कहता है के 'झूंठ के पांव नहीं होते'
पूरी बात पढें http://sachmein.blogspot.com/2009/02/blog-post_08.html
at:www.sachmein.blogspot.com
बहुत बढिया विश्लेषण के साथ लिखा है आपने यह आलेख।
ReplyDeleteवाह ! आपके विचार पढ़कर दिमाग झंकृत होगया। एकेक विचार मानो सत्य की प्रतिमूर्ति हो।
ReplyDeleteखुदा तो होगा जीतने वाला. वो राम होगा, वो कृष्ण होगा.
ReplyDelete" bhut sundr srthak lekh....pdh kr dil sochne pr majbur ho gya......very well said.."
Regards
bahut khoobsoorat aalekh aur satya ko ujagar karta hua.
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