Thursday, May 6, 2010

Delirium and realization

कभी खुद को घेर कर किसी तन्हा कोने में ले जाकर, बाजू कस कर पकड़ कर ज़ोरदार जिरह कर लेनी चाहिये. आप सबसे झूठ बोल सकते हैं लेकिन खुद से नहीं. इसलिये जब आप खुद से सवाल करना शुरु करते हैं तो जवाब इतनी इमानदारी भरे मिलते हैं कि सुनने के लिये दिल कड़ा करना पड़ता है.

आज घर आते वक्त दिमाग में कुछ विचार घुमड़ते रहे. मैं हमेशा खुद् को lone man against religion मानता रहा. ज्यादातर मेरी बातें सुन कर समाजिक लोग नाराज़ होते रहे, और उन्हें नाराज़ करके मुझे खुशी मिलती रही. मैंने कभी किसी वर्ग की चिता नहीं की, क्योंकि मुझे उन्हें न कुछ देना था, न मांगना. लेकिन आज खुद को परखा तो पता चला कि कहीं न कहीं अब मैं उनका अप्रूवल ढूंढ़ रहा हूं. fliअगर किसी का लिखा उसकी सोच का आईना होता है तो मैं अपनी सोच का चेहरा देख कर आज खुश नहीं हुआ. क्या मैं भी एक तरफ झुक चला… मेरी खाल इतनी मोटी हो चुकि की जिस वर्ग में मैं जन्मा अब उसकी कमियं मुझे दिखती नहीं… या मैंने सीख लिया है कि अपनी convenience के अनुसार सच से किस तरह आंखे फेरनी चाहिये.  धार्मिक हिन्दुओं से क्यों मुझे पहले जैसा डर नहीं लगता, चिढ़ नहीं आती… आती उम्र के साथ मैंने भी रुढ़ियों के साथ समझौते का फैसला कर लिया.

आज अपना लिखा देखता हूं तो शर्म आती है. इसलिये नहीं कि मैंने गलत लिखा, इसलिये क्योंकि एक ही गलत के बारे में लिखा. यह तो वही पुराना रास्ता हुआ जिस पर चलने वालों से मैं बचता रहा. पर अब…?

यह बदलाव क्यों हुआ… क्या इसलिये कि अब मैं थोड़ा paranoid हो गया हूं. जो उन पर घटा वह सुन-देखकर मुझे लगता हे कि वह मुझे पर भी घट सकता था. इसलिये अब मैं सहारे के लिये भीड़ तलाश रहा हूं… Their crowd vs. my crowd… असुरक्षा में आदमी भीड़ की तरफ ही भागता है, तो उसी भीड़ की तरफ भागना होगा जिससे डर कम लगे. चाहे उसमें अपना खुद का वज़ूद ही न खोना पड़े.

आईने में मुझे यह नयी सूरत अजनबी सी लगती है. यह तो वैसा ही आदमी है जिसका दोस्त मैं नहीं बनना चाहता था, फिर कैसे मैंने इसे अपनाया.

मैं अपनी नीयत पर शक करना सीखूंगा. जब भी खुद को गलत सोचते महसूस करूंगा तो रोकूंगा. यही शक मुझे फिर खुद पर विश्वास की और ले जायेगा.

3 comments:

  1. कोई बात नही
    होता हैं ऐसा भी कभी कभी

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  2. ek imaandaari se likha gaya lekh!

    kunwar ji,

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