"नक्सलियों नें मेरी आखों के आगे बेरहमी से मेरे मां-बाप को मार दिया, वो याद करके आज भी मैं थर्रा जाता हूं"
- राजेन्द्र कुमार (अब अनाथ आदीवासी बच्चा), दन्तेवाड
"मैं भी बड़ा होकर पुलिस बनूंगा, जिन नक्सलियों ने मेरे पापा को मारा, मैं उन्हें मार दूंगा"
- अभिषेक इन्दुवर (उस पुलिस आफिसर का बेटा जिसका सर काट कर फेंक दिया गया)
छत्तीसगढ़ में एक आयोजित कार्यक्रम के बाहर खड़े थे कुछ तथाकथित “प्रायोजित" बच्चे. वह बच्चे जो अब अनाथ हैं. मार दिया उनके मां-बापों को मानवाधिकार वालों के चहेते नक्सलवादियों ने.
अब यह बच्चे इन्तज़ार करते हैं मानवाधिकार वालों की 'कारों' के आगे ताकि वह पूछ सकें - "मुझे अनाथ करने वालों को आप क्यों बचाना चाहती हैं आंटी़?",
कोई तो हो जो इनसे बात करने के आगे इनकी बात करने की भी सोचे.
कोई तो हो जो इन बच्चों के विरोध को प्रायोजित कहने से पहले यह भी सोचे की नक्सलियों और उनके हिमायतियों के आयोजनों का प्रायोजन कौन करता है?
जो लोग नक्सलियों के शिकार बच्चों को प्रायोजित कहते हैं वो नक्सलियों के चमचों के आयोजन को इतनी आसानी से इजाजत क्यों दे देते हैं?
क्या सिर्फ फोटो खिंचवाने की आस में?
छप गई फोटो. अब तो आपकी ही जये हे, जय हे, जय हे.
क्या आयोजन, प्रायोजन, अपनी बात कहने का अधिकार सिर्फ नक्सलियों को है?
अगर आपको प्रायोजित करना हो तो किन्हें चुनेंगे, ये बच्चे या नक्सलियों के मददगार मानवाधिकारवादियों को? बताइयेगा जरूर.
ये हैं वो ‘प्रायोजित’ अनाथ (फोटो साभार: पत्रकारिता ब्लाग)
बच्चों को
ReplyDeleteनक्सलियों की अपेक्षा बच्चे ही चुने जायेंगे. लेकिन नक्सली कौन है? मात्र वे ही नक्सली नहीं है जो लाल झंडे में हैं, बल्कि हर घूसखोर अफसर, नेता और जमाखोर लाला सभी नक्सली हैं. इनके साथ भी वही सुलूक होना चाहिये.
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