Thursday, October 29, 2009

मासूम माओवादी, और भूख दो कौर रोटी की. उफ!

मेरा दिल लरज रहा है. अभी-अभी माओवादी मासूमियत की कौशल गाथा पढ़ कर चुका हूं. मासूम, भोले, प्यारे, बेचारे नक्सली भूख से इतने बेहाल हैं कि छुरी-कांटों से लैस होकर (बंदूक तो वहां थी नहीं! कहते हैं कुछ खास लोग) ट्रेनों की पैन्टृी कार लूट रहे हैं.

मजबूरी की हद क्या होती है? जब 150-200 लोगों की भीड़ को एक साथ मिलकर ट्रेन रुका-रुकाकर कंबल और पैन्टृी कारें लूटनी पड़ें तो यह मजबूरी की हद नहीं, बेहद है.

लेकिन कितनी डिग्नीफाइड मजबूरी है: ट्रेन पर ग्राफिटी पोत-पात के, एक अदद पैन्ट्री कार लूट-लाट के, दो-तीन मुसाफिरों को सूत-सात के ही तसल्ली को प्राप्त हुई.

किसी को गोली नहीं मारी, ट्रेन जलाई नहीं… तारीफ! तारीफ! पुल बंधने ही चाहिये. बांध रहें है हमारे महान वामपंथी कर्मठ. इन पुलों से होकर एक क्रांति की गाड़ी चलेगी जो भूखे ट्रेन-पैन्ट्री-कार-लूटकों को खाना मुहैया करायेगी.

वैसे मजबूरी जो न कराये! पहले भी मजबूरियत के चलते नक्सलियों को क्या नहीं करना पड़ा, कुछ बानगी देखिये:

- 2008 में नयागढ़ में पुलिस अस्त्रागार पर हमला और लगभग 1100 बंदूको, Ak-57, कारतूसों की लूट. (ये भी खायेंगे!)
- 2008 में ही छत्तीसगढ़ में 131 नागरिक, 63 सुरक्षा कर्मी, 14 पुलिस आफिसर की हत्या. इलेक्शन के दौरान ही 20 सुरक्षा कर्मियों की हत्या.
- 2008 में ही झारखंड में नक्सलियों ने 400 से ज्यादा लूटपाट की वारदातें कीं.  250 से ऊपर लोगों की हत्या की गई.
- 2009 में पूरे लालगढ़ को भूखे नक्सलियों ने अपने कब्जे में ले लिया बाद में सेना ने छुड़ाया.
- इसी साल नक्सली हिंसा ने नये प्रतिमान छुये, कई नये प्रदेश इसकी गिरफ्त में.

नक्सलियों के भोलेपन की एक और उदाहरण दिया इनके एक नेता किशनजी ने, यह खुला चैलेन्ज दिया कि 2011 तक वह कलकत्ता में नक्सली संघर्ष शुरु करवा देगा.

नक्सली भूख भोजन नहीं, सत्ता की है
नक्सली नेताओं ने भूख को भुनाने का पुराना फार्मूला बस उपयोग भर ही किया है. इसके नाम पर चार-छ: क्रांती ये दूसरे देशों में करा चुके हैं. वहां के बड़े-बड़े पैलेसों में इनके नेता अब माल उड़ा रहे हैं लेकिन लोग अभी भी भूखें हैं. क्या है कोई नक्सली जो इस सच्चाई को भी झुठला सके?

नक्सली कहते हैं – जहां हक न मिले वहां लूट सही, जहां सच न चले, वहां झूठ सही

हक कि जो लड़ाई है उसे और भी रास्ते हैं लड़ने के. मौके इन्हें भी मिले है हक दिलाने के. मत भूलो कि नक्सलियों का गढ़ उसी प्रदेश में है जहां पिछले बीस साल से माओ के चेले ही काबिज हैं. क्यों है वही प्रदेश देश के सबसे भूखे, गरीब, अशि़क्षित प्रदेशों में?

जो बंदर-बांट नेता कर रहे हैं उसे रोकने का रास्ता इन्हें लोकतंत्र में नहीं दिखता. इन्हें नहीं दिखता कि नेता बदले जा सकते हैं.

इन्हें क्रांति का एक ही रास्ता पता है – क्रांति जो बंदूक की नली से निकले (माओ उवाच), लेकिन यह क्रांति भी सिर्फ सत्ताधारियों की जेबों में होगी, गरीब फिर भी लुटेगा for the pigs will be no different than the humans.

इन झूठों, प्रपंचकारियों, मक्कारों को भूखों की आवाज समझेंगे हम?

Reference:

http://www.ipcs.org/pdf_file/issue/IB93-Kujur-Naxal.pdf
http://en.wikipedia.org/wiki/Naxalite

Tuesday, October 27, 2009

बिकोज़ छत्रधर महतो इस ए गुड मैन

अपनी एक ट्रेन माओवादी आतंकवादियों के कब्जे में है. कई सौ यात्री हैं उस ट्रेन में उन सब की जिंदगी दांव पर है, और सौदा करने वाले हैं हमारे देश के नेता. माओवादी भी तैयार है सौदे के लिये, 1 के बदले 400. बोलो क्या कहती हो दिल्ली सरकार? छत्रधर महतो को छोड़ेंगे?

कंधार के नाम पर भाजपा सरकार को पानी पी-पीकर कोसने वाले यतींद्रनाथ के बदले एक सौदा पहले भी कर चुके हैं. माओवादी इमानदार साबित हुए. POW को छोड़ दिया. दोनों तरफ से अच्छी डील हुई, दोनों सौदागर इत्मीनान में है, पार्टी रिलायबल है, डील चलती रहे.

इसलिये माओवादियों की तरफ से ताजी आफर इतनी जल्दी आ गई, पहले 1 के बदले 10 थे, अब 500 के बदले सिर्फ एक – छत्रधर महतो. क्या अपनी सरकार को सौदा बुरा लगेगा?

{कंधार-कंधार-कंधार} बार-बार मुझे याद आता है कंधार. अब सरकार उन्हीं की है जिन्होंने कंधार का इतना गहन विश्लेषण किया. लेकिन फैसला दूसरा होगा इसकी अपेक्षा व्यर्थ है क्योंकि यतीन्द्रनाथ के मामले में एक उत्साहवर्धक precedent दिया जा चुका है.

मीडिया का गेम भी चालू हो चुका है. ट्रेन तक पुलिस/आर्मी पहुंचे न पहुंचे, कुछ चुनिंदा चैनलों के नुमाईंदे पहुंच गये. ऐसा लगता है जैसे तैयार बैठे थे.

कंधार में देश का हाथ मरोड़ा जा रहा था अजहर मसूद को छुड़ाने के लिये. वो तो एक आतंकवादी था. अब जो सामने है उसके गुट को कोई आतंकवादी नहीं कहता. देश का एक खास  कुबुद्धिजीवी वर्ग तो सिर्फ इनके दर्द में जीता, दर्द में मरता है. ये लोग गरीबों के मसीहा, सर्वहारा वर्ग को जिताने वाले, व दुखियों के हमदर्द हैं. तो भाई जब अजहर मसूद जैसे शैतान को छोड़ सकते हैं तो फिर छत्रधर महतो को क्यों नहीं, खासकर तब जब ‘ही इज़ ए गुड मैन’ जैसा कि एनडीटीवी में लगातार दिखाया जा रहा है.

थू ! थू sss

ताजा समाचार है कि छ्त्रधर के लोगों ने ट्रेन छोड़ दी. मतलब डील जमी नहीं, या यह सब एक जबर्दस्त पब्लिसिटी स्टंट था?

माओवादियों के पीछे आखिर बुद्धीजीवी दिमाग है न.

Saturday, October 17, 2009

क्या राष्ट्रवाद एक चुका हुआ विचार है?

वैसे तो देश और राष्ट्र का विचार मुझे प्रिय है, लेकिन जब सोचने बैठता हूं तो कभी-कभी यह भी लगता है कि कहीं यह अवधारणा भी गुटबाजी का एक और स्वरूप तो नहीं? किसी भी राष्ट्रवादी के लिये यह उहापोह बड़ी समस्या है. बात ऐसी है जैसे मदर टेरेसा ने कहा था कि मेरे पास 'faith' नहीं है. तो राष्ट्र में विश्वास करने वाले की तरफ से आज कुछ तर्क राष्ट्र के खिलाफ ही.

- राष्ट्र भी आखिर गुटबाजी का दूसरा स्वरूप ही तो है.
लगभग हर बड़ा mammal समूह में रहता है. भेड़, हिरण, बंदर, बबर शेर, ये सब समूह में ही रहते हैं. हर एक individual समूह में अपनी जगह बनाना चाहता है. मानव भी अपवाद नहीं. हम हर जगह गिरोहबन्दी के मौके ढूंढ़ते हैं. परिवार, सोसायटी, मित्र, रिश्ते-नाते, गोत्र, धर्म, छोटे बड़े समूह हमारे हर और है. धर्म या परिवार की तरह देश भी मानव की गुटबंदी का एक रूप भर ही तो है जिसमें हम सोचते हैं कि हमारा एक स्थान है, और उसमें से दूसरे को बाहर रखना है.

अगर में धर्म का समर्थन नहीं करता, तो राष्ट्र का समर्थन कैसे कर सकता हूं? समूह धार्मिक हो, या राष्ट्र के नाम पर उसके क्रिया-कलापों में एक रूपता है. हर समूह अपनी सीमा बढ़ाना चाहता है चाहे इसके लिये दूसरे समूह या वयक्ति को नुक्सान ही न पहुंचाना पड़े.

- जो राज्य थे, वही अब राष्ट्र हैं.
आखिर राष्ट्र क्या है? कैसे निर्धारण किया जा सकता है कि फलाना सारा इलाका एक राष्ट्र है, और उस इलाके में रहने वाले सारे व्यक्ति उस राष्ट्र का हिस्सा हैं? हमारी सीमा यहां खतम होती है, और दूसरे की यहां से शुरु. क्या आधार है? क्या सिर्फ राज्य? मतलब किसी वक्त में अगर एक खास राजा या किसी प्रकार की सरकार ने उस इलाके पर अधिकार जमा रखा हो तो उसे हक मिल गया है उसे किसी दूसरे इलाके से अलग करने का?

क्या राष्ट्र सेवा और राज्य सेवा में कोई फर्क नहीं होना चाहिये? किसी इलाके के लिये प्रतिबद्धता ही क्या राष्ट्रीयता है? अगर हां तो यह high moral कैसे हुआ? किसलिये इसे वह दर्जा इसको मिले?

- राष्ट्र स्वार्थीपन की पैदाइश हैं
राष्ट्र का जन्म क्या मानव स्वार्थ से ही नहीं हुआ? जिसकी जितनी शक्ति बन सकी उतना इलाका अपने कब्जे में कर वहां राज्य स्थापित कर उसे राष्ट्र का नाम दिया और फिर राज्य के नाम पर कर वसूल कर वहां के संसाधनों पर कब्जा किया और दूसरों को उनका फायदा उठाने से रोका. क्या यही राष्ट्रीयता की सच्चाई नहीं?

पंजाब में भारत नदियों को रोकता है, और चीन हिमालय में. इलाका उनका है, राष्ट्र भी लेकिन यह हक किसका है कि मानव को वंचित किया जाये राष्ट्र के नाम पर?

अमेरिका जैसे संसाधन संपन्न देश गरीब देशों से संसाधन नहीं बांटना चाहते. जिसके पास जो आ गया है उस पर वह काबिज होकर बैठा है. कोई नहीं चाहता कि उनके राष्ट्र के साधन बंटे.

- तो फिर राष्ट्रवाद का क्या मतलब रह जाता है?
अगर धर्म के नाम पर व्यक्ती की हत्या गलत है तो राष्ट्र के नाम पर सही कैसे हो सकती है? धर्म परिवर्तन रोकने के लिये सशस्त्र संघर्ष को रोका जाता है और इस तरह धर्म की सुरक्षा करने की निंदा सब करते हैं. मैं भी. तो फिर किसी राष्ट्र के नाम पर सेना और संघर्ष के खिलाफ मन क्यों नहीं हो पाता?

- राष्ट्रवाद भी एक कमजोरी रही
मानव का ध्येय अंतत: savagery से civilization की और बढ़ना है लेकिन यह मंजिल राष्ट्र से होकर नहीं जाती. राष्ट्र भी धर्म, जाती और रंग के समान एक बंधन ही है आखिर और मानव को सच्चे तौर पर सभ्य बनने के लिये इससे भी ऊपर उठना होगा.