वैसे तो देश और राष्ट्र का विचार मुझे प्रिय है, लेकिन जब सोचने बैठता हूं तो कभी-कभी यह भी लगता है कि कहीं यह अवधारणा भी गुटबाजी का एक और स्वरूप तो नहीं? किसी भी राष्ट्रवादी के लिये यह उहापोह बड़ी समस्या है. बात ऐसी है जैसे मदर टेरेसा ने कहा था कि मेरे पास 'faith' नहीं है. तो राष्ट्र में विश्वास करने वाले की तरफ से आज कुछ तर्क राष्ट्र के खिलाफ ही.
- राष्ट्र भी आखिर गुटबाजी का दूसरा स्वरूप ही तो है.
लगभग हर बड़ा mammal समूह में रहता है. भेड़, हिरण, बंदर, बबर शेर, ये सब समूह में ही रहते हैं. हर एक individual समूह में अपनी जगह बनाना चाहता है. मानव भी अपवाद नहीं. हम हर जगह गिरोहबन्दी के मौके ढूंढ़ते हैं. परिवार, सोसायटी, मित्र, रिश्ते-नाते, गोत्र, धर्म, छोटे बड़े समूह हमारे हर और है. धर्म या परिवार की तरह देश भी मानव की गुटबंदी का एक रूप भर ही तो है जिसमें हम सोचते हैं कि हमारा एक स्थान है, और उसमें से दूसरे को बाहर रखना है.
अगर में धर्म का समर्थन नहीं करता, तो राष्ट्र का समर्थन कैसे कर सकता हूं? समूह धार्मिक हो, या राष्ट्र के नाम पर उसके क्रिया-कलापों में एक रूपता है. हर समूह अपनी सीमा बढ़ाना चाहता है चाहे इसके लिये दूसरे समूह या वयक्ति को नुक्सान ही न पहुंचाना पड़े.
- जो राज्य थे, वही अब राष्ट्र हैं.
आखिर राष्ट्र क्या है? कैसे निर्धारण किया जा सकता है कि फलाना सारा इलाका एक राष्ट्र है, और उस इलाके में रहने वाले सारे व्यक्ति उस राष्ट्र का हिस्सा हैं? हमारी सीमा यहां खतम होती है, और दूसरे की यहां से शुरु. क्या आधार है? क्या सिर्फ राज्य? मतलब किसी वक्त में अगर एक खास राजा या किसी प्रकार की सरकार ने उस इलाके पर अधिकार जमा रखा हो तो उसे हक मिल गया है उसे किसी दूसरे इलाके से अलग करने का?
क्या राष्ट्र सेवा और राज्य सेवा में कोई फर्क नहीं होना चाहिये? किसी इलाके के लिये प्रतिबद्धता ही क्या राष्ट्रीयता है? अगर हां तो यह high moral कैसे हुआ? किसलिये इसे वह दर्जा इसको मिले?
- राष्ट्र स्वार्थीपन की पैदाइश हैं
राष्ट्र का जन्म क्या मानव स्वार्थ से ही नहीं हुआ? जिसकी जितनी शक्ति बन सकी उतना इलाका अपने कब्जे में कर वहां राज्य स्थापित कर उसे राष्ट्र का नाम दिया और फिर राज्य के नाम पर कर वसूल कर वहां के संसाधनों पर कब्जा किया और दूसरों को उनका फायदा उठाने से रोका. क्या यही राष्ट्रीयता की सच्चाई नहीं?
पंजाब में भारत नदियों को रोकता है, और चीन हिमालय में. इलाका उनका है, राष्ट्र भी लेकिन यह हक किसका है कि मानव को वंचित किया जाये राष्ट्र के नाम पर?
अमेरिका जैसे संसाधन संपन्न देश गरीब देशों से संसाधन नहीं बांटना चाहते. जिसके पास जो आ गया है उस पर वह काबिज होकर बैठा है. कोई नहीं चाहता कि उनके राष्ट्र के साधन बंटे.
- तो फिर राष्ट्रवाद का क्या मतलब रह जाता है?
अगर धर्म के नाम पर व्यक्ती की हत्या गलत है तो राष्ट्र के नाम पर सही कैसे हो सकती है? धर्म परिवर्तन रोकने के लिये सशस्त्र संघर्ष को रोका जाता है और इस तरह धर्म की सुरक्षा करने की निंदा सब करते हैं. मैं भी. तो फिर किसी राष्ट्र के नाम पर सेना और संघर्ष के खिलाफ मन क्यों नहीं हो पाता?
- राष्ट्रवाद भी एक कमजोरी रही
मानव का ध्येय अंतत: savagery से civilization की और बढ़ना है लेकिन यह मंजिल राष्ट्र से होकर नहीं जाती. राष्ट्र भी धर्म, जाती और रंग के समान एक बंधन ही है आखिर और मानव को सच्चे तौर पर सभ्य बनने के लिये इससे भी ऊपर उठना होगा.
कहीं कहीं से होते हुए आपके ब्लॉग पर पहुँचा, देख कर मज़ा आया कि कोई और भी मेरी तरह इन सवालों से जूझता है. कुछ समय पहले मैने भी इसी विषय पर एक पोस्ट की थी कुछ कुछ इन्हीं तर्क-वितर्क को लेकर. समय मिले तो पढ़कर अपनी राय ज़रूर दीजिए.
ReplyDeletehttp://sunilgoswami.blogspot.com/2007/07/love-thy-country.html
राष्ट्रवाद मूलत: जन-गण के कबीलाई विचार की ही आधुनिक अभिव्यक्ति है। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रराज्य का उदय ही औद्योगिक क्रांति की औपनिवेशिकता से होता है अत: इसे निर्दोष या वंदनीय अवधारणा तो माना नही जा सकता। ये अलग बात है कि चूकिं हम किसी आदर्श दुनिया में नहीं रहते इसलिए किसी 'अन्य' के राष्ट्रवाद का शिकार हों इससे बेहतर है 'अपने' राष्ट्रवाद का शिकार होना। फिर सवाल केवल राष्ट्रवाद पर ही तो न रुकेगा... मानववाद भी मानव की मानवेतर के खिलाफ गुटबंदी ही है न।
ReplyDeleteभला किया- लिखा, ज्यादा मिठाई से मुँह चिपचिपा रहा था... कुछ कड़वी सच्चाई से संतुलन आएगा :)
राष्ट्रवाद ने विश्व को दो-दो विश्वयुद्ध दिए, अब देखिये यह चरम क्या-क्या रंग दिखाता है..? अपनी मिट्टी से प्रेम एक बात है पर वसुधैव कुटुम्बकम भी क्या भुला देना चाहिए...
ReplyDeleteअंततः यह किश्व एक होगा ही. देशों की सीमाएं कब तक रहेगी? संचार के साधनों ने सीमाओं को अप्रासंगिक करना शुरू कर दिया है.
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