Saturday, October 11, 2008

सरकारी औपचारिकताओं और जुल्म से परेशान छोटे व्यापारी, व्यापार बंद न करें, तो क्या करें

जिस अर्थव्यवस्था को छोटे व्यापारियों और उनके कर्मचारियों ने खून पसीना मिलाकर विश्व स्तरीय बनाया, उसका दोहन ठीक ताजा-ताजा ब्याही भैंस की तरह कर लिये पी. चिदंमबरम ने. सारा दूध काढ़कर बाल्टी में अलग रख लिया, और बछड़े को इतना भी न मिला की वो जिंदा रह सके.

तो अब जब industrial growth rate रेट 11% से घटकर 1.3% रह गयी तो कमलनाथ इतना बौखला गये की आंकड़े बदलने की बात कर डाली. अरे मूर्खों पिछले पांच साल में तुमने इस फसल के सारे फल सूत लिये, अब तो बीज के लिये भी कुछ नहीं बचा.

छोटे व्यापारियों पर तो गिन-गिन कर सितम हुये हैं. उनके लिये अब रोजगार चलाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन होने लगा.

1. सर्विस टैक्स
पहले जिन सुविधाओं पर बिल्कुल टैक्स नहीं लगता था, उनपर 5 सालों में 12% टैक्स हो गया. यहां तक की ट्रांसपोर्ट जैसी मूल-भूत सुविधाओं को भी बख्शा नहीं गया. आपके यहां जो दाल-चावल की महंगाई बढ़ी, उसके लिये बहुत हद तक जिम्मेदारी इसी सर्विस टैक्स की है.

असल में चिदंमबरम का उद्देश्य हर तरीके से सरकारी खजाना भरना रहा, लेकिन इस पैसे का उद्देश्य जन-कल्याण के लिये नहीं हो रहा है. अभी भी भारत की शिक्षा और स्वास्थ पर खर्च प्रति व्यक्ति न्यून स्तर पर है.

2. बिल्डर लाबी को बेतहाशा छूट
कांग्रेस और उसकी दोस्त पार्टियां बिल्डरों पर खासा मेहरबान रहीं. जहां-तहां बड़े-बड़े भूमिखंड कभी SEZ, कभी housing projects के नाम पर औने-पौने दामों में बांटे. वहां जो SEZ बन रहे हैं उनमें छोटे उद्योगों के लिये कोई जगह नहीं, असल में वह सिर्फ land prices के speculation का जरिया भर बने.

लेकिन अब उन सारे चोरों को सबक आ रहा है. सब की सब बर्बादी की कगार पर हैं, और उन्हें होना भी चाहिये बर्बाद.

3. मार्केट बंद, मॉल चालू
भारत में मार्केटों का चलन रहा है जहां छोटे-छोटे दुकानदार सस्ता माल लाकर भारत के बहुत बड़े मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग को उपलब्ध कराते रहे हैं. जब मॉल भारत में खुले तो मार्केटों से टक्कर लेना मुश्किल हो गया. लोग मॉल देखने गये, और खाने-पीने, लेकिन खरीदने वही मार्केट में. तो सरकार ने भारत भर में मॉल स्वामियों के दबाव में मार्केट बंद करने की छुपी मुहिम चालू कर दी. कभी किसी, तो कभी किसी कानून का सहारा लेकर मार्केटों और छोटे दुकानदारों पर दबाव बनाना चालू रहा.

4. खुले बाजार के नाम पर विदेशी निवेशकों को बाजार का पटरा करने दिया
बाजार को निवेश के लिये खोलने का बहाना बनाकर विदेशी निवेशकों को न्योता. उन्होंने बड़ी पूंजी के बल पर शेयरों को मन-माफिक उठाने-गिराने का खेल किया और छोटे निवेशकों को फुटबाल की तरह कभी इस पाले तो कभी उस पाले उछाला.

5. FBT, Deposit Tax आदि कानून
पहले कर्मचारियों पर जिन खर्चों पर पूरी टैक्स छूट मिलती थी, उस पर भी कर लगा दिया. मतलब अब व्यापार के लिये फोन और यात्रा पर भी टैक्स देना होगा. इस घटिया कानून के चलते कंपनियों ने कर्मचारियों को दी गई छूटों में कटौती की.

साथ ही यह भी भूलने की बात नहीं की जितने ज्यादा टैक्स जोड़े जाते हैं, उतना ही परेशानी व्यापारियों को झेलनी पड़ती है. उनके लिये आज मुश्किल यह है कि व्यापार के लिये समय लगायें, या टैक्स के झमेलों से निपटने के लिये.

बैंक में जमा खुद की राशी को निकालना पर भी सरकार को टैक्स देना पड़ रहा है. यह तो सिर्फ एक मजाक ही है.

6. विदेशों कंपनियों को सुविधायें, देशी को पेनल्टी
अगर आप विदेशी उद्योग, या बड़े उद्योग के मालिक हैं तो सरकार आपके लिये खास सुविधायें बनायेगी. कानूनों में रद्दोबदल करेगी, और कई जगह तो कानून तोड़ने में मदद भी करेगी. लेकिन छोटे उद्योंगों और व्यापारों को शुरु करने की सरकारी खानापूर्ती ही बहुत सारे उद्योंगों को शुरु होने से पहले ही खत्म कर देती है.

मैकडानल्ड में खाद्य निरीक्षक सलाम बजाने जाता है, और कोने के रेस्तरां को परेशान करने. यही फर्क है बड़े पैसे का.

7. 20 की जगह 10 कर्मचारियों पर PPF
पहले 20 या उससे ऊपर के कर्मचारियों वाली संस्थाओं को ही PPF की सुविधा देनी पड़ती थी, लेकिन इसे 10 कर दिया गया. PPF देने की परेशानी तो छोटी है, बड़ी मुश्किल हैं PPF के रजिस्टर और द्स्तावेजों को बनाना. फिर उन मुफ्तखोर सरकारी अफसरों को झेलना तो और भी मुश्किल है जिन्हें काम नहीं अपने हफ्ते से मतलब है.

इसलिये छोटे उद्योगों के लिये अब भर्ती और कर्मचारियों की छंटनी और भी मुश्किल है.

8. नाना प्रकार के रजिस्ट्रेशन
अगर आप दुकानदार है तों म्युनिसिपाल्टी में रजिस्ट्रेशन कराइये, सेल्स टैक्स में कराइये, सर्विस टैक्स में कराइये, और भी दस जगह दौड़ते रहिये, फिर इन सब जगहों की कागजी खानापूर्ती में साल बीत जायेगा.

पिछले कुछ सालों में इन तरहों की परेशानियों में कमी नहीं, इजाफा हुआ है. इसलिये अब छोटे-छोटे व्यापारियों के लिये राह कठिन होती जा रही है.

9. हर महीने कर का भुगतान
सरकार ने मध्यम स्तर के व्यापारों के लिये बहुत सारे करों का हर महीने भुगतान का प्रावाधान रखा है, और कुछ का quarterly. इन करों का भुगतान करने से पहले बहुत सारी reports का निर्माण करना पड़ता है कि कहीं कमी न छूट जाये. किसी भी व्यापारी के लिये इन सारी reports का निर्माण और analysis का समय अपने व्यापार से निकालना मुश्किल है. महीनावार कर तो बड़ी परेशानी है.

Monday, October 6, 2008

विश्वास धर्म का आधार है, और शत्रु भी

कितनी विरोधाभासी बात है न. विश्वास (Faith) तो धर्म तो वो नींव है जिस पर धार्मिकता की कमजोर इमारत खड़ी है. यहां तो सब कुछ विश्वास भरोसे चल रहा है, तो फिर कैसे यह विश्वास ही धर्म का सबसे बड़ा दुश्मन हो सकता है?

धर्म कि कुछ बातें ऐसी हैं, जो सभी जानते हैं कि कोरी गप्प हैं
पुष्पक विमान के उड़ने की बात, मोसेस के समुद्र फाड़ने की बात, जीसस के पुनर्जीवन की बात, पुल सुरात, हूरें, जिन्नात. ये सारी बकवास अलग-अलग नामों के साथ हर धर्म का हिस्सा हैं. जब कोई पादरी, पंडा या मौलवी इन पर विश्वास करने को कहता है तो किसी समझदार आदमी का दिल कैसे न करे की थप्पड़ बजा दें? लेकिन फिर भी इन गप्पों को सुनना पड़ता है.

कुछ भोले-बकस इन बातों पर यकीं कर भी लेतें हैं, लेकिन उनको भी विश्वास डांवाडोल ही रहता है, वरना जिस तरह इब्राहिम ने खुदा पर विश्वास करके अपने बेटे की बलि दी, उस तरह सभी पूरे ईमान वाले लोग कर सकते थे. यहां राजा बलि भी डाल सकते हैं.

फिर भी इन गप्पों को सच मानने का स्वांग क्यों?
जो बेवकूफियां समाज में न सिर्फ स्वीकार्य हों, बल्कि प्रोत्साहित भी हों, उनको करने में कैसा डर. कुछ समाज में अपनी छवि के लिये, कुछ इस डर से कि 'कहीं ऐसा हो ही न' लोग धार्मिक कथाओं पर विश्वास दिखलाते हैं. यहां वो कहानी सटीक है जिसमें एक आदमी नाक कटने पर स्वांग करने लगता है कि उसे प्रभु दिख गये, और इस चक्कर में पूरे शहर की नाक कटवा डालता है.

धर्म की हानी इसी में है कि उसकी कोशिश हर सवाल का जवाब बनने की है
इन्सान को पहले नहीं मालूम था की पृथ्वी गोल है कि चौकोर, सृ्र्य के चारों और घूमती है, या सूर्य उसके चारों और, उत्पत्ति कैसे हुई. तो जब ये सारे गुनाहों का गुनाहगार कोई न मिला तो खुदा के सर मढ़ दिये. की ले हर बात का तू ही जवाबदेह.

इन सारे सवालों का जवाब ढूढ़ने जब चिलम सुलगाकर अपने धार्मिक मसीहा बैठे तो कल्पना की उड़ानें बहुत दूर तक निकल गईं. तो धर्म-ग्रंथों में पृथ्वी चौकोर हो कर हाथियों पर सवार हो गई, जो खुद एक बड़े कछुये पे सवार थे. फिर तो एक सवाल का जवाब क्या सुझा, गुरुजनों ने हर सवाल के लिये कछुये टाइप के explanation निकाल लिये.

आजकल पादरी, मौलवी, पंडे इन बातों का ज्यादा जिक्र नहीं करते, क्योंकि उन्हें पता है कि पब्लिक हंसेगी. लेकिन शान से कहते हैं कि भगवान बहुत बड़ा है. बेशक यह भी उन्होंने उसी किताब से सीखा है जहां लिखा है की सूर्य पृथ्वी के चक्कर लगा रहा है.

जिस दिन लोग समझ जायेंगे की जिन अकाट्य धर्म-ग्रंथों की एक बात झूठ हो सकती है, उसकी सभी बातें झूठ हो सकती हैं, उस दिन इन पंडो-मौलवियों की दुकान उठ लेगी.

ज्यादातर लोगों को स्वीकार नहीं धर्म के हिसाब से जिंदगी चलाना
बड़ी अजीब बात है, जो लोग खुदा को मानते हैं वो शरियत को नकार देते हैं. मंदिर में चढ़ावा चढ़ाने वाले जनेऊ नहीं पहनते और पंडिज्जी की पालागी भी नहीं करते. वो व्रत नहीं करते, जाति  में शादी नहीं करते, अपने वर्ण के अनुसार काम नहीं करते. ईश भक्त चर्च नहीं जाते, और भी न जाने-जाने किस-किस तरह से अपनी जिंदगी जीते हैं जो परमेश्वर को बिल्कुल पसंद नहीं.

ये सब इसलिये क्योंकि लोग समझने लगें हैं कि यह पसंद परमेश्वर की नहीं, धार्मिक गुरुओं की नौटंकी थी जो समाज को बांधे रखने के लिये बनाई गयी थी. अब खुदा के दलालों की वह इज्जत नहीं जो कभी होती थी. हां अब भी कुछ मूढ़ जरूर उनके हिसाब से चलकर अपनी जिंदगी दागदार कर रहे हैं, लेकिन ज्यादातर लोग उनकी बातों पर ध्यान नहीं देते, और ये बात अब इन धर्म के ठेकेदारों को भी समझ आने लगी है.

इसलिये अब धर्म होता रहेगा अप्रासंगिक
राबर्ट हैनलिन अमेरिका के बहुत मशहूर और बेहद विवादास्पद उपन्यासकार रहे हैं, क्योंकि उन्होंने आज से कई साल पहले समाज की बहुत सारी रूढ़ियों को अपनी कहानियों में चुनौती दी थी. उनकी संकल्पनाओं में से एक है वो समाज जहां इश्वर के लिये कोई स्थान नहीं. लगभग हर मनुष्य नास्तिक है, और जो व्यक्ति ईश्वर उपासक है उसे उसी प्रकार विस्मय से देखा जाता है जिस प्रकार आज नास्तिक व्यक्ति को.

यह बात थोड़ी wishful thinking के समान लगेगी. लेकिन धर्म और धार्मिक लोगों ने जितनी मुश्किलें इस दुनिया के लिये पैदा की है, उनकी वजह से कोई आश्चर्य नहीं अगर सुधी-जनों का धर्म से विमोह जारी रहे और यह दिन भी आ जाये.

लेकिन चाहे ऐसा हो-न-हो, यह तो होना ही चाहिये कि धर्म के दलालों की सुनवाई बंद हो.

Friday, October 3, 2008

अहिंसा नामक हथियार से मुहम्मद गोरी को कैसे मारेंगे?

कहते हैं कि गांधीजी ने अहिंसक आंदोलन का उपयोग करके अंग्रेजो पर विजय प्राप्त की, उन्हें इस देश से खदेड़ दिया. कहते हैं कि गांधीजी का विचार था कि अहिंसा का उपयोग करना है अपने शत्रु को नैतिक रूप से निर्बल कर देना. यह एक ऐसा उपाय है जिससे आपके आक्रांता के पास कोई नैतिक आधार नहीं रह जाता आक्रमण का.

अगर अहिंसक आंदोलन को ही अंग्रेजो के भारत से जाने का इकलौता कारण माने तो यह आजादी जिसे हम अपनी जीत कहते हैं, जीत हमारी नहीं अंग्रेजो की हुई जिन्होंने अपने समाज को इतने ऊंचे नैतिक मूल्यों तक उठा लिया कि उन्हें निर्बलों/निरीहों पर अत्याचार, और उनके शोषण पर शर्म आई, और उन्होंने हमें अपने हाल पर छोड़ देना श्रेयस्कर समझा, हमारी अहिंसा का फायदा उठाकर बड़े स्तर पर genocide करने की जगह.

लेकिन यह बात तब विश्वास योग्य नहीं लगती जब हम देखते हैं कि उन्हीं अंग्रेजो ने साउथ अफ्रीका में शासन और शोषण जारी रखा, और फिर नोर्थ अमेरिका में पिछड़े रेड इंडियन्स का बड़े स्तर पर नरसंहार (genocide) किया. इतना कि कभी नोर्थ अमेरिका में बहुसंख्यक रेड इंडियन वहां के बफैलो की ही तरह अब विलुप्त हैं.

तो निश्चय ही यह अपेक्षा करना मुश्किल है कि अंग्रेज एक पूर्ण रूप से अहिंसक आंदोलन के नैतिक प्रभाव से घबराकर हमें आजादी देने पर मजबूर हुये. हो सकता है कि यह भी एक कारक हो, लेकिन यह इकलौता कारक नहीं हो सकता. जरूर और भी लोग या आंदोलन होंगे जिन्हें इस आजादी का कुछ और श्रेय दिये जानी की जरुरत है.

बहुधा देखा गया है कि आक्रांता वर्ग अक्रांतित वर्ग की कमजोरी, या अहिंस प्रवृत्ति का फायदा उठाता है, न कि उस पर दया करके छोड़ देता है. जैसे क्या अपेक्षा की जाये की अगर मुहम्मद घोरी या चंगेज खान के आक्रमण के वक्त उसका स्वागत दियों और मालाओं से किया जाता तो वह जनसंहार और लूट की बजाय टीका लगवाकर वापस चले जाते? अगर ऐसा होता तो यह उपाय कमजोर वर्ग बहुत पहले ही इस्तेमाल कर लेता और इतिहास में जो वीभत्स नर-नारी संहार हुये हैं, वो नहीं होते.

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आतंकवादी अहिंसकों पर ही हमला करते हैं. क्योंकि उन्हें पता है कि उन्हें विरोध का सामना करना नहीं पड़ेगा. अगर इन बम विस्फोट करने वालों को तैयारी करनी पड़ती की इस कार्यवाही में मृत्यु भी हो सकती है, तो उनमें से अधिसंख्य जामिया में पढ़ाई जारी रखना ही बेहतर समझते.

वो कोई आंदोलन या नैतिक मूल्य रखने वाले महान क्रांतिकारी नहीं थे. वो तो बहकाये हुये thrill seekers थे, जो अपनी चालाकी से बेहद खुश थे.

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गांधीजी और लाल-बहादुर शास्त्री के जन्म दिन पर यह सवाल पूछना कठिन काम है कि इस समय वो कितने relevant हैं.

-- ओसामा को अगर शांती संदेश भेंजें तो शांती के लिये उसकी शर्तें क्या होंगी?
-- अगर सभी फिलस्तीनी हथियार छोड़कर इस्राइल में जुलूस निकालें तो क्या इस्राइली settlers घर लौट जायेंगे?
-- अगर कश्मीर से फौजें चलीं जायें तो क्या वहां  'भारत-माता की जय' के नारे लगने लगेंगें?

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अहिंसा का असर उन्हीं पर होता है जिनके नैतिक मूल्य बहुत मजबूत हों. जहां नैतिक मूल्य का अभाव हो, वहां इस अहिंसा का फायदा बहुत आसानी से उठा लिया जाता है.

शेर का शिकार करने में डर लगता है. कबूतर अगर हाथ चढ़ जाये तो बच्चा भी मार लेता है.

लेकिन हिंसा का जवाब हिंसा बिल्कुल नहीं है, क्योंकि उससे सिर्फ और हिंसा का जन्म होगा. सही जवाब क्या है यह तो मुझे नहीं पता, लेकिन यह पता है कि गलत जवाब क्या होगा.

गलत जवाब होगा एक कमजोर समाज जो कायर आतंकवादियों से सहम कर घर में छुप जाये, या उकसकर सड़कों पर निकल आये.