मुझे लगता है कि फेमिनिज़्म कुछ लोगों के लिये इतना तकलीफदेह बन गया है कि किसी भी स्वतंत्र नारी को देखकर वह बिना कसमसायें और फब्तियां कसे नहीं रह सकते.
उनके लिये असहनीय होती है एक ऐसी स्त्री जो किसी पुरुष के आधीन न हो, जो आत्मनिर्भर होकर पुरुषों कि दुनिया में अस्तित्व बनाये रखे और उस पर हद यह कि उसके पास 'opinion' हो. Opinionated women उन्हें एक ऐसी बीमारी कि तरह लगती हैं जिसे कैसे भी करके दबाना, हराना है क्योंकि वो उन्हें अपने पुंसत्व पर एक सवालिया निशान कि तरह दिखती हैं.
मुझे आश्चर्य होता है उन पुरुषों को देखकर जिनके जीवन का एक प्रमुख उद्देश्य नारी-मर्यादा का व्याख्यान है. इतने चितिंत हैं यह, इतने परेशान. क्या इन दूर, अकल्पनीय opinionated नारियों में इन्हें अपने परिवार की स्त्रियों का भविष्य दिखाई देता है?
दिक्कत की बात यह है कि जिन तर्कों से यह स्त्रियों की choices पर सवाल लगाते हैं, यह नहीं देख पाते की उनमें कहीं-न-कहीं एक कमीना पुरुष भी लिप्त हैं.
जिन आरोपों का इस्तेमाल वो नारियों की बदलती स्थिति के खिलाफ करना चाहते हैं वो असल में पुरुषों के खिलाफ हैं. क्या यह भारतीय परिवारों के लिये परेशान पुरुष इतने अंधे हो चुके हैं कि वो यह नहीं देख पाते?
वो परेशान हैं कि इस भौतिकवादी, इश्वर विमुख संसार में नारियों कि गिरती स्थिति से, और बदलना चाहते हैं नारियों को जो इस विलासवादी सभ्यता के चंगुल में फंस गई हैं.
वो परेशान हैं:
- समाचार पत्रों में स्त्रियों की नग्न तस्वीरों से (जो पुरुष देखते होंगे, स्त्रियां नहीं. अगर स्त्रीयों के देखने के लिये बाजार हो तो पैसे देकर पुरुषों कि नग्न तस्वीरें और भी आसानी से हासिल की जा सकती हैं, इसमें शक है?)
- रास्तों आफिसों में छेड़खानी से. (रास्ते पर चलती, आफिसों में काम करती स्त्रियां जीन्स-पैन्ट, स्कर्ट, पहनकर क्या इतनी accessible हो जाती हैं कि कोई भी कमीना पुरुष उन्हें छेड़ कर ग्लानी भी महसूस न करे?)
- स्त्रियों पर बढ़ते अपराधों से. (जो उनके मुताबिक इसलिये हैं क्योंकि स्त्रियां बुरकापरस्त नहीं हैं. क्या इसमें भी उन कमीने पुरुषों का दोष नहीं है जो अपराध करते हैं?)
इन अपराधों को रोकने के लिये स्त्रियों को मर्यादा में रहना चाहिये.
- - घर से बाहर कम निकले वह.
- - कैरियर न बनाये वह.
- - बुर्का/साड़ी या जिस लिबास में उन्हें स्त्रीत्व की रक्षा दिखे, पहने वह.
- - हद में रहकर बात करना सीखे वह.
जो यह बाते करते हैं वह अहमक हैं या मक्कार?
- सड़क पर चलते हुये एक आदमी को रोज कुछ बदमाश लूट लेते हैं. एक दिन वह आजिज आकर थाने जाता है और शिकायत करता है. थानेदार उसे पकड़ कर लॉकअप में बंद कर देता है जिससे वह सड़क पर चले ही न कि बदमाश उसे लूट सकें.
सोचिये जब आप लुटें तो बदमाशों कि जगह आपको थाने में डाल दिया जाये.
जो यह बाते करते हैं वह अहमक हैं या मक्कार?
क्या टीवी, मैग्ज़ीन, सड़क, आफिस पर स्त्रियों के exploitation में उन्हें पुरुषों का कमीनापन नजर नहीं आता?
क्यों सुधारना चाहते हैं वह स्त्रियों को, क्यों नहीं सुधारना चाहते वह पुरुषों को?
टार्गेट कुछ और है, निशाना कुछ और
नारी की बदलती स्त्री का आंकलन ये अहमक/मक्कार कम कपड़ों और अपराधों से ही क्यों करते हैं?
- क्या उन्हें आज की नारी ज्यादा शिक्षित व समझदार नहीं दिखती या यह ही असली खतरा है जिससे वो परेशान हैं?
- क्या उन्हें आज की नारी आर्थिक रूप से ज्यादा स्वतंत्र नहीं दिखती या यह ही असली खतरा है जिससे वो परेशान हैं?
- क्या उन्हें यह नहीं दिखता की आज कि नारी पुरुषों की bullshit स्वीकारने के लिये कम मजबूर है या यह ही असली खतरा है जिससे वो परेशान हैं?
इस तरह के पुरुष अहमक/मक्कार ही नहीं ढोंगी भी हैं, क्योंकि यह कहते हैं कि हम नारियों के लिये लड़ रहे हैं, लेकिन असल में यह चाहते हैं कि इनका कब्जा बना रहे, ठीक उस अंग्रेज बटालियन कि तरह जो अंग्रेज सरकार भारतीय राजाओं के खर्चे पर उन्हीं की सुरक्षा के लिये स्थापित करती थी.
न जाने कब तक आधी-आबादी इन अहमकों/मक्कारों+ढोंगियों को झेलने के लिये शापित रहेगी.