स्वतंत्रता का न ओर हो सकता है न छोर, लेकिन सत्य में तो स्वतंत्रता का दायरा उतना ही सीमित या विस्तृत होता है जितने की आपका समाज इजाज़त दे. जहां भौंहें उठना चालू होती हैं वहां choices बहुत जल्दी embarassment बन जाती हैं.
लेकिन अगर कोई ध्याद दे तो पायेगा कि स्वतंत्रता का दायरा तो लगातार विस्तृत होता जा रहा है. पहले जो बुरा या अचरजपूर्ण था, अब वो साधारण है, और आज जो समाज के लिये सहना मुश्किल है, कल वह भी नितांत common-place व साधारण होगा.
जो लोग संस्कृति, समाज, परिवार, व्यवस्था के कारण चिंतित हैं पहले तो उन्हें यह समझना होगा कि सब कुछ transient है. आज समाज के जिस रूप की रक्षा हम करना चाहते हैं कल वह नहीं था. अभी कुछ ही तो सदियां बीतीं होंगी जब इस समाज के तब के स्वरूप में रहना हमारे लिये असहनीय होता, ‘छी:, कितने राक्षसपूर्ण, असभ्य हैं यह लोग’, यह हम उनके लिये भी कह सकते हैं, और वो हमारे लिये भी.
जो यह समझ के लिये कि समाज और संस्कृति की भी उम्र होती है, और उम्र होने पर यह भी गुजर जाता है वह समाज और संस्कृति के लिये चिंतित नहीं होता. और होता भी है तो यह जानता है कि चिंता नहीं पूर्वाग्रह (bias) है जो उसे उन अलग values को ग्रहण करने से रोकती हैं.
ज्यादातर लोगों को आगे आने वाले समाज से डर लगता है क्योंकि वह खुद को उसके अनुरूप नहीं पाते. इसलिये वह बदलाव को धक्का देकर रोकने की कोशिश करते हैं, पर बदलाव को गिरफ्तार तो किया जा सकता है, हमेशा के लिये रोका नहीं जा सकता.
स्वतंत्रता नियती है. इसे रोका नहीं जा सकता, और क्यों रोका नहीं जा सकता इसको समझने से पहले व्यक्ति और समाज के बीच बदलते समीकरणों को समझना होगा.
पहले-पहल जब समाज बना होगा तो व्यक्ति से उसका संबंध प्रगाढ़ होगा. समाज के क्रिया-कलाप दैनिक दिनचर्या में शामिल होंगे क्योंकि आपका समाज जिस पर आप दाने-पानी, बर्तन, छत, के लिये निर्भर हैं आपके लिये अजनबी नहीं था. आप अपने समाज के हर उस हिस्से परिचित थे जिसके द्वारा दी गयी सुविधा का आप उपयोग कर रहे थे. इसलिये समाज को मानना आपके लिये मजबूरी थी.
आज समाज अदृश्य है. जिससे आप मिलना चाहें मिलें, संबंध रखना चाहें रखें, यह आप पर निर्भर है. आपके लिये मजबूरी नहीं है. अपने जीवन के निर्वाह के लिये जिन वस्तुओं की आपको जरुरत हैं वह समाज के नियमों के खिलाफ जाकर भी आपको मिल सकती हैं क्योंकि सभ्य दुनिया में कोई पंचायत आपको जात-बाहर नहीं कर सकती.
इसलिये व्यक्ति समाज पर भारी पड़ जाता है. इसलिये स्वतंत्रता का दायरा बढता जा रहा है और निरंतर बढ़ता जायेगा. कल जो taboo था आज वो routine है, और आज जो टैबू है कल रूटीन होगा.
क्योंकि सच यह है कि हर कोई स्वतंत्र होना चाहता है, उस हद तक जिस भी हद तक वह हो पाये. व्यक्ति समाज को धकेल-धकेल कर स्वतंत्रता हासिल कर लेगा. और इनमें वह भी शामिल हैं जो समाज के लिये इतने चिंतित है.
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क्योंकि सच यह है कि हर कोई स्वतंत्र होना चाहता है, उस हद तक जिस भी हद तक वह हो पाये. व्यक्ति समाज को धकेल-धकेल कर स्वतंत्रता हासिल कर लेगा. और इनमें वह भी शामिल हैं जो समाज के लिये इतने चिंतित है.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया!
पराधीन सपनेउ सुख नाही ....यु ही तो नहीं कहा गया
ReplyDeleteसापेक्षता का सिद्धान्त यहां भी लागू होता है. लेकिन कुछ चीजें ऐसी हैं जो न बदली हैं और न बदलेंगी. स्वतन्त्रता के नाम पर यदि सड़क पर मूत्र विसर्जन करने लगें तो यह पहले भी गलत था और आगे भी गलत ही रहेगा.
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