इंकलाब या क्रांति. एक ऐसा संघर्ष जिसका समापन व्यवस्था के पलटने से हो. बूढ़ी हो चुकी व्यवस्था क्रांति का शिकार होकर अचानक ढेर हो जाये और उसकी जगह आये एक नया विचार जिसे फिर अपनी कसौटी पर परखें लोग. पर लगता है कि आखिरी क्रांति बहुत पहले गुजर चुकि और जो व्यवस्था है उसे shape तो किया जा सकता है, लेकिन बदला नहीं जा सकता.
क्या यही व्यवस्था वह पर्फेक्ट सिस्टम है जिसमें विद्रोह और नियंत्रण (chaos and order) का एक ऐसा सटीक बैलेन्स है कि यह हमेशा चल सकती है? हो भी सकता है, क्योंकि जहां इस व्यवस्था में निरंकुश शासक हैं, वहीं एक ऐसा शासित वर्ग भी है जो समय-समय पर शासकों को उनकी औकात बता कर अपने अंदर उठते गदर के तूफान को ठंडा कर देता है.
तो इसमें शासक और शासित दोनों की आत्म-अभिव्यक्ति (या कहें अपनी भड़ास निकालने) के लिये काफी जगह है. इसलिये यह व्यवस्था एक मौन-सन्धी, एक अस्थाई armistice है जिसमें इतने असंतोष के बावजूद भी दोनों वर्गों के लिये संतुष्टि है. शायद इसलिये जार्ज-बुश का डिक्टेटरशिप का सपना, या फिर किसी असंतुष्ट नागरिक का क्रांति का सपना सिर्फ सपना ही रह जाता है. उसमें व्यवस्था को बदलने की ऊर्जा नहीं होती. शायद इसलिये पाकिस्तान जैसे देशों को डिक्टेटरशिप से बार-बार लौटकर इसी व्यवस्था पर आना पड़ता है.
कोई भी वस्तु निरंतर इस्तेमाल से या तो जर्जर होती है या परिष्कृत. यह व्यवस्था भी अब नयी नहीं रही शायद थोड़ी जर्जर भी हुई है लेकिन या शासक और शासित दोनों को ही इतनी प्रिय है कि जब भी जर्जरता हावी होती है दोनों मिलकर इसे थोड़ा परिष्कृत कर लेते हैं.
कभी एक छोटा सा कानून जो शासकों पर निगरानी रखने का अधिकार दे, या फिर मुक्त रूप से शासको की आलोचना की आजादी या कभी एक ऐसा कानून जिसके इस्तेमाल कर कभी भी किसी नागरिक को बिना आरोप साबित किये लंबे समय तक जेल में रखने का हक. जब भी पलड़ा एक तरफ झुकता है और दबाव बनता है तब दोनों में से कोई वर्ग अपना कोई अधिकार छोड़ने को तैयार हो जाता है और व्यवस्था जारी रहती है.
इसलिये मुझे लगता है कि क्रांति अब नहीं होगी. आखिरी क्रांति वही थी जिसने इस व्यवस्था को जन्म दिया, और अब हम लादेंगे इसी व्यवस्था को, आजन्म और मृत्यु-पर्यन्त.
लेकिन इस व्यवस्था का इस रूप में जारी रहना एक खतरनाक trend है, आखिर कैसे कोई ऐसा समाज बिना बीमार हुये रह सकता है जिसमें अधिकार तो लिखे हुये, इतने स्पष्ट, इतने साफ हों लेकिन कर्तव्य न हों. जिसमें दोनों ही वर्ग जितने अपने अधिकारों के लिये सचेत हों उससे दस फीसद भी कर्तव्यों के लिये न हों. उस व्यवस्था का जारी रहना तो पूरी सभ्यता को सड़ा सकता है.
लेकिन क्रांति फिर भी नहीं होगी, क्योंकि इस पीढ़ी के पास कोई बेहतर विचार नहीं, न इससे बेहतर चाहने की तलब. अगर है तो सिर्फ अपने अधिकारों को फैलाने की अंधी प्यास. इसलिये क्रांती अब नहीं होगी.
क्रांती तब तक नहीं होगी जब तक कोई नया, एकदम अजीब-सा, अचरजपूर्ण विचार जड़ न पकड़े. वो विचार जो अभी नहीं है, लेकिन शायद एक दिन होगा. तब होगा जब इस व्यवस्था के दोनों ही वर्गों के पास न कुछ देने के लिये बचेगा न लेने के लिये.
इस चिट्ठे पर किसी लिंक के जरिये आया। यहां आ कर सबसे अच्छी कॉपीराइट नोटिस लगी। एक साथी और मिला।
ReplyDeleteबिल्कुल नहीं हो सकती. आपसे सहमत हूं. जब लोग निरक्षर थे और आधे पेट रहते थे आजादी मिल गयी. लेकिन अब नहीं हो सकता.
ReplyDelete