देश और दुनिया के विकास कि वो तेजी, ऐसी की सुधिजन-गुणीजन वाह कर उठे हैं. पिछले 20 सालों में हमारा देश ने क्या सर्रर प्रगति की. शहरों किन-किन तरह की कारें दौड़ उठी हैं. ऐसा ही 20 एक साल और चल जाये तो इंडिया का 2020 हो जाये.
बेरोक-टोक विकाश विश्व का किस कदर दुश्मन हो सकता है, यह जानने से पहले यह जान लिया जाये कि दुनिया का विकास किस कदर हुआ.
विश्व अर्थव्यवस्था का आकार (मिलियन $ में)
1950 - 5336101
1973 - 16059180
1998 - 33725635
2008 - 65000000
मतलब लगभग हर बीस साल में विश्व की अर्थव्यवस्था का आकार दुगुना होता रहा है, और पिछले समय में नये उभरते बाज़ारों के कारण इस गति में किसी कमी के आने के आसार भी नहीं थे. खासकर चीन और भारत में इतने बड़े नये बाजार बन रहे हैं कि आने वाले समय में वो अमेरिका और युरोप के बाजारों से सीधी प्रतिस्पर्धा करेंगे.
लेकिन अर्थव्यवस्था का मतलब सिर्फ उत्पादन ही नहीं, इसका मतलब उपभोग भी है. अर्थव्यवस्था, या उत्पादन के बढ़ने के साथ ही उपभोग भी बढ़ रहा है. मतलब हर बीस साल में उपभोग भी दुगुना हो रहा है.
तो अर्थव्यवस्था के साथ ही हर चीज के उत्पादन की संख्या बढ रही है
कुर्सी, फूलदान, किताबें, डब्बे, दवाईयां, खाद्य, पेय, कपड़े, कारें, जूते, टीवी, बोतलें, विद्युत, गैस, सर पर लगाने का तेल... हर चीज को ज्यादा, ज्यादा, और ज्यादा संख्या में लगातार बनाया जा रह है. और यह सब कैसे बनता है? प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करके.
1998 से 2005 तक प्राकृतिक संसाधनो के इस्तेमाल में 30 प्रतिशत की बढ़त हुई. (http://www.swivel.com/graphs/show/21865778)
सात सालों में 30 प्रतिशत की बढ़त!
तेजी से बढ़ती विश्व अर्थव्यवस्था (याद रखिये, हमारी बढ़त साल-दर-साल है. हर साल 10% की बढ़त से सिर्फ आठ सालों में अर्थव्यवस्था दुगुनी से भी बड़ी हो जाती है) की कीमत हमारी पृथ्वी चुका रही है. हम इतनी तेजी से जमीन, धातुओं, तेल, पेड़, आदी का इस्तेमाल कर रहे हैं की पृथ्वी के लिये इसकी भरपाई कर पाना असंभव है. इस तरह की बढ़त लगातार बनाये रखना तो असंभव है, लेकिन जब तक हम उस मोड़ पर पहुंचेगे कि आगे बढ़त पर संसाधनों की कमी से रोक लगे, तब तक हमारी दुनिया को अपूर्ण क्षति हो चुकि होगी.
हममें से हर किसी का मकसद अपने जीवन स्तर को उठाना है, लेकिन अगर हममें से हर व्यक्ति का जीवन स्तर उतना हो जितना की किसी साधारण अमेरिकी का होता है, तो हमें इस जैसी दस पृथ्वियों के संसाधनों की जरुरत होगी.
कहां से लायेंगे हम ये सारे संसाधन?
आने वाले 100-150 सालों तक यही दोहन चलता रहा तो वैसे भी संसाधनो का उपयोग इतना महंगा हो जायेगा कि वो हर किसी को मयस्सर नहीं होंगे, तो कम संसाधनों में रहना तो विश्व के जनमानस को सीखना ही है. लेकिन उस समय तक अति-दोहन के कारण हम downward spiral में प्रविष्ट कर चुके होंगे. प्रदुषण और संसाधनों को नष्ट करने से बहुत बड़ी crisis भी पैदा होगी.
मतलब, अगर मानवों का जीवन स्तर बढ़ेगा, तो जो बोझ पड़ेगा, उसे पृथ्वी सह नहीं सकती. तो फिर कैसे हम हासिल करें सभी मानवों के लिये सही जीवन स्तर, कैसे सबको प्रदान करें एक अच्छी और गौरवशाली जिंदगी, कैसे जब कि पृथ्वी पर साधन इतने कम है?
तो जवाब है एक सूक्ती
"यह पृथ्वी सभी की जरुरत को पूरा कर सकती है, लेकिन एक भी आदमी के लालच को नहीं"
फिलहाल तो इस मंदी को झेलें, और इसे एक मौका मानें यह समझने का कि कैसे हम विश्व की अर्थव्यवस्था को उत्पादन नहीं, मानव के विकास से नाप पायें.
भूटान की GNH (Gross National Happiness) की तरह.
बहुत ही विचारणीय आलेख है। लेकिन इस उपभोक्तावादी समाज को न जाने कब इस बात की समझ आएगी। कि संसाधनों का अनुचित,अनावश्यक दोहन मनुष्य के अस्तित्व की आयु को कम कर रहा है।
ReplyDeleteएक सुझाव और कि इस आलेख का शीर्षक आकर्षक नहीं होने से शायद यहाँ पाठक कम आए हैं। जब कि इस बात को व्यापक रुप से लोगों के बीच जाना चाहिए।
ठीक लिख रहे हैं, बहरहाल भारत की जनसंख्या में बढोत्तरी अगर नहीं रुकी तो बहुत भयावह परिणाम होने जा रहे हैं.
ReplyDeleteभाई...इस विषय पर अक्सर ही चिंता-सी होती रहती है...मगर विकास का शायद यही नियम है....लेकिन हर सभ्यता के अंत होने का भी इतिहास है...इसलिए इस अंधाधुंध विकास का भी अंत तय है.....अब ये बात अलग है कि उससे पहले शायद पृथ्वी ही नष्ट हो जाए,,,,,
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