Friday, January 1, 2010

आप गुलाम रहिये क्योंकि अपने कमीनेपन पर हम काबू नहीं कर सकते

मुझे लगता है कि फेमिनिज़्म कुछ लोगों के लिये इतना तकलीफदेह बन गया है कि किसी भी स्वतंत्र नारी को देखकर वह बिना कसमसायें और फब्तियां कसे नहीं रह सकते.

उनके लिये असहनीय होती है एक ऐसी स्त्री जो किसी पुरुष के आधीन न हो, जो आत्मनिर्भर होकर पुरुषों कि दुनिया में अस्तित्व बनाये रखे और उस पर हद यह कि उसके पास 'opinion' हो. Opinionated women उन्हें एक ऐसी बीमारी कि तरह लगती हैं जिसे कैसे भी करके दबाना, हराना है क्योंकि वो उन्हें अपने पुंसत्व पर एक सवालिया निशान कि तरह दिखती हैं.

मुझे आश्चर्य होता है उन पुरुषों को देखकर जिनके जीवन का एक प्रमुख उद्देश्य नारी-मर्यादा का व्याख्यान है. इतने चितिंत हैं यह, इतने परेशान. क्या इन दूर, अकल्पनीय opinionated नारियों में इन्हें अपने परिवार की स्त्रियों का भविष्य दिखाई देता है?

दिक्कत की बात यह है कि जिन तर्कों से यह स्त्रियों की choices पर सवाल लगाते हैं, यह नहीं देख पाते की उनमें कहीं-न-कहीं एक कमीना पुरुष भी लिप्त हैं.

जिन आरोपों का इस्तेमाल वो नारियों की बदलती स्थिति के खिलाफ करना चाहते हैं वो असल में पुरुषों के खिलाफ हैं. क्या यह भारतीय परिवारों के लिये परेशान पुरुष इतने अंधे हो चुके हैं कि वो यह नहीं देख पाते?

वो परेशान हैं कि इस भौतिकवादी, इश्वर विमुख संसार में नारियों कि गिरती स्थिति से, और बदलना चाहते हैं नारियों को जो इस विलासवादी सभ्यता के चंगुल में फंस गई हैं.

वो परेशान हैं:

  • समाचार पत्रों में स्त्रियों की नग्न तस्वीरों से (जो पुरुष देखते होंगे, स्त्रियां नहीं. अगर स्त्रीयों के देखने के लिये बाजार हो तो पैसे देकर पुरुषों कि नग्न तस्वीरें और भी आसानी से हासिल की जा सकती हैं, इसमें शक है?)
  • रास्तों आफिसों में छेड़खानी से. (रास्ते पर चलती, आफिसों में काम करती स्त्रियां जीन्स-पैन्ट, स्कर्ट, पहनकर क्या इतनी accessible हो जाती हैं कि कोई भी कमीना पुरुष उन्हें छेड़ कर ग्लानी भी महसूस न करे?)
  • स्त्रियों पर बढ़ते अपराधों से. (जो उनके मुताबिक इसलिये हैं क्योंकि स्त्रियां बुरकापरस्त नहीं हैं. क्या इसमें भी उन कमीने पुरुषों का दोष नहीं है जो अपराध करते हैं?)

इन अपराधों को रोकने के लिये स्त्रियों को मर्यादा में रहना चाहिये.

  • - घर से बाहर कम निकले वह.
  • - कैरियर न बनाये वह.
  • - बुर्का/साड़ी या जिस लिबास में उन्हें स्त्रीत्व की रक्षा दिखे, पहने वह.
  • - हद में रहकर बात करना सीखे वह.

जो यह बाते करते हैं वह अहमक हैं या मक्कार?

- सड़क पर चलते हुये एक आदमी को रोज कुछ बदमाश लूट लेते हैं. एक दिन वह आजिज आकर थाने जाता है और शिकायत करता है. थानेदार उसे पकड़ कर लॉकअप में बंद कर देता है जिससे वह सड़क पर चले ही न कि बदमाश उसे लूट सकें.

सोचिये जब आप लुटें तो बदमाशों कि जगह आपको थाने में डाल दिया जाये.

जो यह बाते करते हैं वह अहमक हैं या मक्कार?

क्या टीवी, मैग्ज़ीन, सड़क, आफिस पर स्त्रियों के exploitation में उन्हें पुरुषों का कमीनापन नजर नहीं आता?

क्यों सुधारना चाहते हैं वह स्त्रियों को, क्यों नहीं सुधारना चाहते वह पुरुषों को?

टार्गेट कुछ और है, निशाना कुछ और
नारी की बदलती स्त्री का आंकलन ये अहमक/मक्कार कम कपड़ों और अपराधों से ही क्यों करते हैं?

  • क्या उन्हें आज की नारी ज्यादा शिक्षित व समझदार नहीं दिखती या यह ही असली खतरा है जिससे वो परेशान हैं?
  • क्या उन्हें आज की नारी आर्थिक रूप से ज्यादा स्वतंत्र नहीं दिखती या यह ही असली खतरा है जिससे वो परेशान हैं?
  • क्या उन्हें यह नहीं दिखता की आज कि नारी पुरुषों की bullshit स्वीकारने के लिये कम मजबूर है या यह ही असली खतरा है जिससे वो परेशान हैं?

इस तरह के पुरुष अहमक/मक्कार ही नहीं ढोंगी भी हैं, क्योंकि यह कहते हैं कि हम नारियों के लिये लड़ रहे हैं, लेकिन असल में यह चाहते हैं कि इनका कब्जा बना रहे, ठीक उस अंग्रेज बटालियन कि तरह जो अंग्रेज सरकार भारतीय राजाओं के खर्चे पर उन्हीं की सुरक्षा के लिये स्थापित करती थी.

न जाने कब तक आधी-आबादी इन अहमकों/मक्कारों+ढोंगियों को झेलने के लिये शापित रहेगी.

14 comments:

  1. अरे यार ऐसा लिखोगे तो कैसे चलेगा. मूँह बन्द काहे नहीं रखते. अन्दर तक काट कर रख दिया. बखिया ऐसे उधेड़ते है क्या? खुद को भगवान का आदमी कहने वाले स्त्रियों को ज्यादा उपदेश देते पाए गए है.

    आगे से मूँह बन्द रखना, क्या है सहन नहीं होता भाई.

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  2. :) बेंगाणी जी से सहमत… इतना भी क्या उधेड़ना… अरे भाई आपने तो बहुतों को एक साथ नंगा कर दिया… :)

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    मित्र विश्व,

    यह लेख जरूरी था, बखिया उधेड़ कर रख दी आपने तथाकथित नारी के सम्मान के चिंतकों की...

    उनके लिये असहनीय होती है एक ऐसी स्त्री जो किसी पुरुष के आधीन न हो, जो आत्मनिर्भर होकर पुरुषों कि दुनिया में अस्तित्व बनाये रखे और उस पर हद यह कि उसके पास 'opinion' हो. Opinionated women उन्हें एक ऐसी बीमारी कि तरह लगती हैं जिसे कैसे भी करके दबाना, हराना है क्योंकि वो उन्हें अपने पुंसत्व पर एक सवालिया निशान कि तरह दिखती हैं.

    एकदम सही जगह पर प्रहार किया है आपने कि आखिर क्यों कुछ को नारी की कुछ ज्यादा ही चिन्ता होती है, यही वो वजह है।


    हद तो यह है कि वैसे भले ही हरेक मामले पर एक दूसरे के विरोधी रहें पर जब मामला नारी का हो तो विचारों की समानता आश्चर्यचकित कर देगी आपको...

    यहाँ पर देखिये:-

    भगवा चिंता-१

    भगवा चिंता-२

    और भगवा चिंता-३

    अब दूसरी ओर की चिंताओं पर नजर डालिये...

    हरी चिंता-१

    और हरी चिंता-२

    बताइये मैं सही कह रहा हूँ या नहीं...
    आभार!

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  4. vyasth thee is liyae nahin padh paayee par vakyii ek dam sahii likhaa haen aap nae

    thanks hamari baat ko itnae achchey tarikae sae kehnae kae liyae

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  5. बहुत अच्छे विश्व, आपने जो भी लिखा है, मुझे लगा जैसे मेरी ही आवाज़ हो. पता नहीं औरतों को मर्यादा का पाठ पढ़ाने वाले कब समझेंगे कि वो चाहे जो भी कर लें, जो होना है वो तो होकर रहेगा. दुनिया तेज़ी से बदल रही है, तो औरतों को बदलने से कैसे रोका जा सकता है? हम चाह रहे हैं कि इस बदलाव को सही दिशा मिले और ये चाहते हैं बदलाव को रोकना...

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  6. अच्छा लिखा है। काफ़ी कुछ सच है यह।

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  7. अजी आपने ये क्या लिख डाला? जो लोग औरतों को मुह बंद और चेहरा ढँक कर चलने की की सलाह देते थे उनको अपना पौरुष सम्हालने की सलाह दे डाली....इसके अलावा उनके पास वैसे ही बचा क्या है....और आप है कि बार बार दिवालिये के इकलौती कौड़ी पर हमला कर रहे है..अब उसपर कुंठित प्रतिक्रियाएं करते है तो थोडा दिल बड़ा कर लें....अजी ,नंगे तो थे पर आपने तो चमड़ी उतार डाली....
    आपको इतना सटीक लिखने पर बधाई!

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  8. कहते है पुरुष किसी भी साहसी ओर समझदार औरत से सबसे ज्यादा डरता है ......वैसे अब जमाना बदल रहा है.......नहीं.....देखिये तो फेशनेबल बुर्के आ गए मार्केट में नए नए ....

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  9. आप सब की टिप्पणियों का शुक्रिया. वैसे समर्थन की मुझे आशा नहीं थी, क्योंकि जो बातें यहां कहीं गईं हैं उनको न मानने वाले ज्यादा मुखर होते हैं.

    जमाने के निरंतर बदलने पर विश्वास करना भी एक अजीब तरह का फैटेलिज़्म है. कभी कोई कुछ न करे तो नहीं भी बदलता है. डार्क एजेस 1000 साल चलीं थीं.

    इसलिये इसे बदलता रहना है तो कहीं कोई तो प्रयास सतत होना चाहिये.

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  10. इस तरह के पुरुष अहमक/मक्कार ही नहीं ढोंगी भी हैं, क्योंकि यह कहते हैं कि हम नारियों के लिये लड़ रहे हैं, लेकिन असल में यह चाहते हैं कि इनका कब्जा बना रहे, ठीक उस अंग्रेज बटालियन कि तरह जो अंग्रेज सरकार भारतीय राजाओं के खर्चे पर उन्हीं की सुरक्षा के लिये स्थापित करती थी.

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    100 baton ki ek baat kah di aapne !

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  11. बहुत सटीक आलेख, कितनी बार दुहराया जाता है इन बातों को लेकिन वे नहीं सुधरेंगे और हम भी अपनी बातों को दुहराना नहीं भूलेंगे. हम अपनी रास्ता छोड़ नहीं सकते और कुछ लोग उसको पचा नहीं सकते .
    एक बार फिर बधाई इस सार्थक लेख पर.

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  12. विश्व, आपका लेख पढ़कर ब्लॉगिंग की सार्थकता पर विश्वास पक्का हुआ है। आपसे सहमत हूँ।
    आभार।
    घुघूती बासूती

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  13. bahut khoob saahab,
    agar aapko kabhi bhi naari kalyaan hetu nyaayaik sahaayata ki aavashyakta ho to musjhse sampark kijiyega
    mai bhi naari utthaan hetu apna sahyog dena chaahtra hun kintu mai abhi tariban 20 cases mein vyast hun
    aap ne bahut sahi tarike se purush pradhaan samaj k jhoote ahankaar par prahaar kiya hai
    mai aapke samaksh sheersh naman karta hun

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  14. स्त्री-विमर्श करना क्या महज़ स्त्रीवादियों के लिए ही है ?इस समाज में यदि स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के पूरक माने गए हैं तो किसी भी तरह की चूक या गलती के लिए दोनों एक-दूसरे को कह या टोंक सकते हैं.
    किसी भी स्त्री का स्वतंत्र होना या उसे किसी नियम में बांधना किसी पुरुष का काम नहीं है,लेकिन जिन वजहों से समाज प्रभावित होता है,उस को कहना उनके मामलों में दखल नहीं है.
    अधिकतर पुरुष बातें करते हैं स्त्रीवादी,दिखाना चाहते हैं आधुनिक समाज के पैरोकार,पर वास्तव में जो वे सोचते हैं क्या ऐसा ही निजी जीवन में करते भी हैं? समाज की हकीकत यही है कि पुरुष स्त्री की दैहिक-सुंदरता से ज़्यादा मुग्ध होता है,बनिस्पत उसके मौलिक गुणों के. यही बात स्त्री के लिए अगर कहि जाती है कि उसे अपने को पहचानना है तो कहीं से यह पुरुष-सत्ता का दंभ या नैतिकता का पाठ नहीं लगना चाहिए !

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