Tuesday, March 2, 2010

शिमोगा या यो कहें कि घुटन सिर्फ तस्लीमा के हिस्से में ही क्यों आती है?

तस्लीमा नसरीन ने बयान दिया कि कर्नाटक के अखबार में छपा लेख तो बहुत पुराना है, और छापा भी उनसे इजाज़त लिये बगैर है. तस्लीमा होकर जीना हिम्मत का काम है. तस्लीमा ने यह नहीं कहा कि लेख मैंने नहीं लिखा.

taslima Taslima, we apologize for those who didn’t understand.

वो अपनी बात कहना चाहती हैं. उनका लक्ष्य धर्म में पागल और अंधे हुये लोगों को इन्सानियत की कीमत समझाना है, इसलिये जब उनकी बात को ही बहाना बना जब बकवास, बेकार, घटिया और बेहद शर्मनाक बुर्के जैसी प्रथा की रक्षा के लिये जब इतने सारे पागल पैंट-शर्ट और अन्य आधुनिक पोशाकें पहन कर जान लेने-देने की तैयारी के साथ निकलते हैं तो तस्लीमा को महसूस हुये दर्द की व्याख्या मुश्किल है.

शिमोगा में मुस्लिम धर्मांधों के प्रदर्शन ने हिंसक रूप ले लिया और बलवे में दो लोगो की हत्या कर दी गई. दंगे और हिंसक प्रदर्शन पूरे कर्नाटक में हुए. बुर्के के ऊपर उस लेख को छापने वाले अखबार के आफिस पर हमला किया गया जिसमें माल और व्यक्ति दोनों को ही क्षति पहुंचाई गई.

बुर्के के खिलाफ लिखने की कीमत दो लोगों की जान? और इसकी जिम्मेदारी. वो किसकी है?

मीडिया में उबाल है कि 'तस्लीमा के लिखे के कारण कर्नाटक में हिंसा भड़की'

तस्लीमा के लिखे लेख के कारण?

क्या इसकी ग्लानी तस्लीमा के हिस्से में है? यही नजर आता है हमारी पढ़े-लिखे लोगों से भरी समझदार मीडिया को? अगर हां तो क्यों न फैले धर्मांधता, क्यों न और भी बल मिले हत्यारों और आतंकियों और क्यों न अंधेरे, अवसाद और डर के और भी घने कोहरे में धंसते चले जायें हमारे चिंतक, विचारक और सुधारक.

कर्नाटक में भड़की हिंसा तस्लीमा के लिखे लेख के कारण नहीं भड़की,

  • वो भड़्की सदियों से चलती आ रही एक दमनशील रिवाज़ को थोपने वाले मानसिक रोगियों की असहिष्णुता से.
  • वो भड़की अपनी आजादी को भोगाने और दूसरों को उससे वंचित करने वाले विलासियों के कारण.
  • वो भड़की  दूसरों को जानवर की तरह कैद करने की मंशा रखने वालों की वजह से.

लेकिन मीडिया में क्या सुनते हैं हम? तस्लीमा नसरीन के लिखे लेख की वजह से हिंसा भड़की. क्योंकि तस्लीमा ने लिखा, और अखबार ने छापा.

कहीं भी मैंने नहीं देखा कि असहिष्णुता के कारण हिंसा भड़की.
कहीं भी मैंने नहीं देखा कि धर्मांधता के कारण हिंसा भड़की.
कहीं भी मैंने नहीं देखा की कुरीतियों के कारण हिंसा भड़की.

बुर्के का प्रतिवाद करो तो हिंसा भड़कती है कौन करता है हिंसा? बुरका पहने हुई महिलायें? या फिर बिना बुर्का पहने पुरुष जो महिलाओं को बुर्के में ही रखना चाहते हैं?

और क्या गलत लिखा तस्लीमा ने अगर उसने कहा कि यह मत करो. क्यों स्पष्टीकरण मांगा जा रहा है उससे. क्यों नहीं स्पष्टीकरण मांगा जा रहा उन कठमुल्लों से जो कर्नाटक में बैठ कर लोगों को भड़का रहे हैं.

अगर सच बोलने पर हिंसा करने वालों की बजाय सच बोलने वालों पर सवाल उठाया जाता रहेगा तो कैसे जन्मेगा कोई दयानंद जिसने सति प्रथा पर सवाल उठाया, पर्दे पर सवाल उठाया, नारी अशिक्षा पर सवाल उठाया. और सवाल ही नहीं उठाया, समाधान किया.

सति प्रथा के खिलाफ अगर दयानंद और राममोहन रॉय की आवाज़ को भी इसी तरह भींचा जाता तो क्या हमारे देश की औरतें अब भी चिता पर होतीं? विधवायें आश्रमों में? और लड़कियां स्कूलों से बाहर?

क्या हमारा मीडिया इतना कायर है जो सच को जानते बूझते हुये भी सच नहीं कह सकता? या फिर इतना एक-पक्षीय? मैं समझ नहीं पा रहा हुं कि यह सब क्यों हो रहा है? किस तरह पूरी व्यवस्था और लोकतंत्र का चौथा स्तंभ इतना अंधा हो गया.

बेहतर है अब कुछ दिन खबरें न देखूं.

7 comments:

  1. shame on media for such irresponsible behaviour. I will stop watching news too.

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  2. मीडिया तो "पालतू कुत्ता" हो ही चुका है… और इसीलिये कथित बड़े-बड़े पत्रकार अब ब्लॉग के खिलाफ़ लिख रहे हैं, क्योंकि उन्हें खतरा साफ़ दिखाई दे रहा है…

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  3. मीडिया इतना कायर है जो सच को जानते बूझते हुये भी सच नहीं कह सकता?
    उसे एक बेकार बीमारी लग गई है. छद्म धर्मनिपेक्षता की. कट्टरपंथी मुसलमानों का समर्थन कर न समाज का भला होगा, न देश का. गाँधी ने यह भूल की थी और देश टूटा था.

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    लेकिन मीडिया में क्या सुनते हैं हम? तस्लीमा नसरीन के लिखे लेख की वजह से हिंसा भड़की. क्योंकि तस्लीमा ने लिखा, और अखबार ने छापा.

    कहीं भी मैंने नहीं देखा कि असहिष्णुता के कारण हिंसा भड़की.
    कहीं भी मैंने नहीं देखा कि धर्मांधता के कारण हिंसा भड़की.
    कहीं भी मैंने नहीं देखा की कुरीतियों के कारण हिंसा भड़की.

    बुर्के का प्रतिवाद करो तो हिंसा भड़कती है कौन करता है हिंसा? बुरका पहने हुई महिलायें? या फिर बिना बुर्का पहने पुरुष जो महिलाओं को बुर्के में ही रखना चाहते हैं?


    क्या हमारा मीडिया इतना कायर है जो सच को जानते बूझते हुये भी सच नहीं कह सकता? या फिर इतना एक-पक्षीय? मैं समझ नहीं पा रहा हुं कि यह सब क्यों हो रहा है? किस तरह पूरी व्यवस्था और लोकतंत्र का चौथा स्तंभ इतना अंधा हो गया.

    बेहतर है अब कुछ दिन खबरें न देखूं.


    प्रिय विश्व,

    मीडिया ही नहीं, हम सब कायर हैं जो देखते हैं यह सब, खेद जताते हैं पर चूँ तक नहीं करते...अब ब्लॉगवुड में ही देख लो...भीष्म प्रतिज्ञा करे बैठे हैं लोग, कि इस तरह के विवाद वाले मुद्दों पर कोई राय नहीं देंगे...कालीन के नीचे दबाते रहेंगे सारे ऐसे मुद्दे...बस उनका कम्फर्ट जोन बना रहे!

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  5. लेख क्या था पता नहीं। परन्तु दो लोग मारक लेख यदि कोई लिख सके तो शायद बन्दूक तोप की जगह लेखनी ही ले सकती है।
    हम जहाँ से चले थे वहीं जा रहे हैं। शायद कुछ पीढ़ियों बाद बन्दर बन वापिस बचे खुचे पेड़ों पर रहने लग जाएँ।
    घुघूती बासूती

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  6. सेकुलर गद्दारों से भरा पड़ा मिडीया पौटेरो डालर और अमीरीकी डालर देकर मुसलिम कठमुलों व धर्मांतरण के सौदागरों के द्वारा खरीदा जा खुका है । इस मिडीया का एक मात्र सत्रु मानवता की प्रतीक भारतीय संस्कृति है वाकी सब इसके लिए अन्नदाता हैं जिस तरह अन्नदाता के विरूद्ध पालतु जानवर कभी नहीं भौंकते उसी तरह ....

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  7. बिल्कुस सच लिखा है जी आपने जहां अबू आजमी जैसे लोगो को न्यूज चैनल अपने कार्यक्रम मे गेस्ट बनाकर उनकी लाइव प्रतिक्रिया लेते है जहां तथाकथित विक्षिप्त मानसिकता के लोग हिंदूवाद को तालीबान की संज्ञा से नवाजते है तो ऐसे मे क्या इनसे अपेक्षा रखते है. लेकिन जो कुछ भी तस्लीम नसरीन के साथ हुआ वो गलत है और वक्त आ गया है कि अब मीडिया स्तर पर भी कोई ऐसे संगठन बनाया जाए ताकि ऐसे देश द्रोहियो की पोल खोली जा सके

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