Saturday, January 9, 2010

उस आयोजित कार्यक्रम के बाहर खड़े थे कुछ प्रायोजित बच्चे

"नक्सलियों नें मेरी आखों के आगे बेरहमी से मेरे मां-बाप को मार दिया, वो याद करके आज भी मैं थर्रा जाता हूं"
- राजेन्द्र कुमार (अब अनाथ आदीवासी बच्चा), दन्तेवाड

"मैं भी बड़ा होकर पुलिस बनूंगा, जिन नक्सलियों ने मेरे पापा को मारा, मैं उन्हें मार दूंगा"
- अभिषेक इन्दुवर (उस पुलिस आफिसर का बेटा जिसका सर काट कर फेंक दिया गया)

छत्तीसगढ़ में एक आयोजित कार्यक्रम के बाहर खड़े थे कुछ तथाकथित “प्रायोजित" बच्चे. वह बच्चे जो अब अनाथ हैं. मार दिया उनके मां-बापों को मानवाधिकार वालों के चहेते नक्सलवादियों ने.

अब यह बच्चे इन्तज़ार करते हैं मानवाधिकार वालों की 'कारों' के आगे ताकि वह पूछ सकें - "मुझे अनाथ करने वालों को आप क्यों बचाना चाहती हैं आंटी़?",

कोई तो हो जो इनसे बात करने के आगे इनकी बात करने की भी सोचे.

कोई तो हो जो इन बच्चों के विरोध को प्रायोजित कहने से पहले यह भी सोचे की नक्सलियों और उनके हिमायतियों के आयोजनों का प्रायोजन कौन करता है?

जो लोग नक्सलियों के शिकार बच्चों को प्रायोजित कहते हैं वो नक्सलियों के चमचों के आयोजन को इतनी आसानी से इजाजत क्यों दे देते हैं?

क्या सिर्फ फोटो खिंचवाने की आस में?

छप गई फोटो. अब तो आपकी ही जये हे, जय हे, जय हे.

क्या आयोजन, प्रायोजन, अपनी बात कहने का अधिकार सिर्फ नक्सलियों को है?

अगर आपको प्रायोजित करना हो तो किन्हें चुनेंगे, ये बच्चे या नक्सलियों के मददगार मानवाधिकारवादियों को? बताइयेगा जरूर.

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ये हैं वो ‘प्रायोजित’ अनाथ (फोटो साभार: पत्रकारिता ब्लाग)

Friday, January 8, 2010

स्वतंत्रता ही नियती है

स्वतंत्रता का न ओर हो सकता है न छोर, लेकिन सत्य में तो स्वतंत्रता का दायरा उतना ही सीमित या विस्तृत होता है जितने की आपका समाज इजाज़त दे.  जहां भौंहें उठना चालू होती हैं वहां choices बहुत जल्दी embarassment बन जाती हैं.

लेकिन अगर कोई ध्याद दे तो पायेगा कि स्वतंत्रता का दायरा तो लगातार विस्तृत होता जा रहा है. पहले जो बुरा या अचरजपूर्ण था, अब वो साधारण है, और आज जो समाज के लिये सहना मुश्किल है, कल वह भी नितांत common-place व साधारण होगा.

जो लोग संस्कृति, समाज, परिवार, व्यवस्था के कारण चिंतित हैं पहले तो उन्हें यह समझना होगा कि सब कुछ transient है. आज समाज के जिस रूप की रक्षा हम करना चाहते हैं कल वह नहीं था. अभी कुछ ही तो सदियां बीतीं होंगी जब इस समाज के तब के स्वरूप में रहना हमारे लिये असहनीय होता, ‘छी:, कितने राक्षसपूर्ण, असभ्य हैं यह लोग’, यह हम उनके लिये भी कह सकते हैं, और वो हमारे लिये भी.

freedom

जो यह समझ के लिये कि समाज और संस्कृति की भी उम्र होती है, और उम्र होने पर यह भी गुजर जाता है वह समाज और संस्कृति के लिये चिंतित नहीं होता. और होता भी है तो यह जानता है कि चिंता नहीं पूर्वाग्रह (bias) है जो उसे उन अलग values को ग्रहण करने से रोकती हैं.

ज्यादातर लोगों को आगे आने वाले समाज से डर लगता है क्योंकि वह खुद को उसके अनुरूप नहीं पाते. इसलिये वह बदलाव को धक्का देकर रोकने की कोशिश करते हैं, पर बदलाव को गिरफ्तार तो किया जा सकता है, हमेशा के लिये रोका नहीं जा सकता.

स्वतंत्रता नियती है. इसे रोका नहीं जा सकता, और क्यों रोका नहीं जा सकता इसको समझने से पहले व्यक्ति और समाज के बीच बदलते समीकरणों को समझना होगा.

पहले-पहल जब समाज बना होगा तो व्यक्ति से उसका संबंध प्रगाढ़ होगा. समाज के क्रिया-कलाप दैनिक दिनचर्या में शामिल होंगे क्योंकि आपका समाज जिस पर आप दाने-पानी, बर्तन, छत, के लिये निर्भर हैं आपके लिये अजनबी नहीं था. आप अपने समाज के हर उस हिस्से परिचित थे जिसके द्वारा दी गयी सुविधा का आप उपयोग कर रहे थे. इसलिये समाज को मानना आपके लिये मजबूरी थी.

आज समाज अदृश्य है. जिससे आप  मिलना चाहें मिलें, संबंध रखना चाहें रखें, यह आप पर निर्भर है. आपके लिये मजबूरी नहीं है. अपने जीवन के निर्वाह के लिये जिन वस्तुओं की आपको जरुरत हैं वह समाज के नियमों के खिलाफ जाकर भी आपको मिल सकती हैं क्योंकि सभ्य दुनिया में कोई पंचायत आपको जात-बाहर नहीं कर सकती.

इसलिये व्यक्ति समाज पर भारी पड़ जाता है. इसलिये स्वतंत्रता का दायरा बढता जा रहा है और निरंतर बढ़ता जायेगा. कल जो taboo था आज वो routine है, और आज जो टैबू है कल रूटीन होगा.

क्योंकि सच यह है कि हर कोई स्वतंत्र होना चाहता है, उस हद तक जिस भी हद तक वह हो पाये. व्यक्ति समाज को धकेल-धकेल कर स्वतंत्रता हासिल कर लेगा. और इनमें वह भी शामिल हैं जो समाज के लिये इतने चिंतित है.

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Sunday, January 3, 2010

क्रांति अब कभी नहीं होगी

इंकलाब या क्रांति. एक ऐसा संघर्ष जिसका समापन व्यवस्था के पलटने से हो. बूढ़ी हो चुकी व्यवस्था क्रांति का शिकार होकर अचानक ढेर हो जाये और उसकी जगह आये एक नया विचार जिसे फिर अपनी कसौटी पर परखें लोग. पर लगता है कि आखिरी क्रांति बहुत पहले गुजर चुकि और जो व्यवस्था है उसे shape तो किया जा सकता है, लेकिन बदला नहीं जा सकता.

क्या यही व्यवस्था वह पर्फेक्ट सिस्टम है जिसमें विद्रोह और नियंत्रण (chaos and order) का एक ऐसा सटीक बैलेन्स है कि यह हमेशा चल सकती है? हो भी सकता है, क्योंकि जहां इस व्यवस्था में निरंकुश शासक हैं, वहीं एक ऐसा शासित वर्ग भी है जो समय-समय पर शासकों को उनकी औकात बता कर अपने अंदर उठते गदर के तूफान को ठंडा कर देता है.

तो इसमें शासक और शासित दोनों की आत्म-अभिव्यक्ति (या कहें अपनी भड़ास निकालने) के लिये काफी जगह है. इसलिये यह व्यवस्था एक मौन-सन्धी, एक अस्थाई armistice है जिसमें इतने असंतोष के बावजूद भी दोनों वर्गों के लिये संतुष्टि है. शायद इसलिये जार्ज-बुश का डिक्टेटरशिप का सपना, या फिर किसी असंतुष्ट नागरिक का क्रांति का सपना सिर्फ सपना ही रह जाता है. उसमें व्यवस्था को बदलने की ऊर्जा नहीं होती. शायद इसलिये पाकिस्तान जैसे देशों को डिक्टेटरशिप से बार-बार लौटकर इसी व्यवस्था पर आना पड़ता है.

कोई भी वस्तु निरंतर इस्तेमाल से या तो जर्जर होती है या परिष्कृत. यह व्यवस्था भी अब नयी नहीं रही शायद थोड़ी जर्जर भी हुई है लेकिन या शासक और शासित दोनों को ही इतनी प्रिय है कि जब भी जर्जरता हावी होती है दोनों मिलकर इसे थोड़ा परिष्कृत कर लेते हैं.

कभी एक छोटा सा कानून जो शासकों पर निगरानी रखने का अधिकार दे, या फिर मुक्त रूप से शासको की आलोचना की आजादी या कभी एक ऐसा कानून जिसके इस्तेमाल कर कभी भी किसी नागरिक को बिना आरोप साबित किये लंबे समय तक जेल में रखने का हक. जब भी पलड़ा एक तरफ झुकता है और दबाव बनता है तब दोनों में से कोई वर्ग अपना कोई अधिकार छोड़ने को तैयार हो जाता है और व्यवस्था जारी रहती है.

इसलिये मुझे लगता है कि क्रांति अब नहीं होगी. आखिरी क्रांति वही थी जिसने इस व्यवस्था को जन्म दिया, और अब हम लादेंगे इसी व्यवस्था को, आजन्म और मृत्यु-पर्यन्त.

लेकिन इस व्यवस्था का इस रूप में जारी रहना एक खतरनाक trend है, आखिर कैसे कोई ऐसा समाज बिना बीमार हुये रह सकता है जिसमें अधिकार तो लिखे हुये, इतने स्पष्ट, इतने साफ हों लेकिन कर्तव्य न हों. जिसमें दोनों ही वर्ग जितने अपने अधिकारों के लिये सचेत हों उससे दस फीसद भी कर्तव्यों के लिये न हों. उस व्यवस्था का जारी रहना तो पूरी सभ्यता को सड़ा सकता है.

लेकिन क्रांति फिर भी नहीं होगी, क्योंकि इस पीढ़ी के पास कोई बेहतर विचार नहीं, न इससे बेहतर चाहने की तलब. अगर है तो सिर्फ अपने अधिकारों को फैलाने की अंधी प्यास. इसलिये क्रांती अब नहीं होगी.

क्रांती तब तक नहीं होगी जब तक कोई नया, एकदम अजीब-सा, अचरजपूर्ण विचार जड़ न पकड़े. वो विचार जो अभी नहीं है, लेकिन शायद एक दिन होगा. तब होगा जब इस व्यवस्था के दोनों ही वर्गों के पास न कुछ देने के लिये बचेगा न लेने के लिये.

Friday, January 1, 2010

आप गुलाम रहिये क्योंकि अपने कमीनेपन पर हम काबू नहीं कर सकते

मुझे लगता है कि फेमिनिज़्म कुछ लोगों के लिये इतना तकलीफदेह बन गया है कि किसी भी स्वतंत्र नारी को देखकर वह बिना कसमसायें और फब्तियां कसे नहीं रह सकते.

उनके लिये असहनीय होती है एक ऐसी स्त्री जो किसी पुरुष के आधीन न हो, जो आत्मनिर्भर होकर पुरुषों कि दुनिया में अस्तित्व बनाये रखे और उस पर हद यह कि उसके पास 'opinion' हो. Opinionated women उन्हें एक ऐसी बीमारी कि तरह लगती हैं जिसे कैसे भी करके दबाना, हराना है क्योंकि वो उन्हें अपने पुंसत्व पर एक सवालिया निशान कि तरह दिखती हैं.

मुझे आश्चर्य होता है उन पुरुषों को देखकर जिनके जीवन का एक प्रमुख उद्देश्य नारी-मर्यादा का व्याख्यान है. इतने चितिंत हैं यह, इतने परेशान. क्या इन दूर, अकल्पनीय opinionated नारियों में इन्हें अपने परिवार की स्त्रियों का भविष्य दिखाई देता है?

दिक्कत की बात यह है कि जिन तर्कों से यह स्त्रियों की choices पर सवाल लगाते हैं, यह नहीं देख पाते की उनमें कहीं-न-कहीं एक कमीना पुरुष भी लिप्त हैं.

जिन आरोपों का इस्तेमाल वो नारियों की बदलती स्थिति के खिलाफ करना चाहते हैं वो असल में पुरुषों के खिलाफ हैं. क्या यह भारतीय परिवारों के लिये परेशान पुरुष इतने अंधे हो चुके हैं कि वो यह नहीं देख पाते?

वो परेशान हैं कि इस भौतिकवादी, इश्वर विमुख संसार में नारियों कि गिरती स्थिति से, और बदलना चाहते हैं नारियों को जो इस विलासवादी सभ्यता के चंगुल में फंस गई हैं.

वो परेशान हैं:

  • समाचार पत्रों में स्त्रियों की नग्न तस्वीरों से (जो पुरुष देखते होंगे, स्त्रियां नहीं. अगर स्त्रीयों के देखने के लिये बाजार हो तो पैसे देकर पुरुषों कि नग्न तस्वीरें और भी आसानी से हासिल की जा सकती हैं, इसमें शक है?)
  • रास्तों आफिसों में छेड़खानी से. (रास्ते पर चलती, आफिसों में काम करती स्त्रियां जीन्स-पैन्ट, स्कर्ट, पहनकर क्या इतनी accessible हो जाती हैं कि कोई भी कमीना पुरुष उन्हें छेड़ कर ग्लानी भी महसूस न करे?)
  • स्त्रियों पर बढ़ते अपराधों से. (जो उनके मुताबिक इसलिये हैं क्योंकि स्त्रियां बुरकापरस्त नहीं हैं. क्या इसमें भी उन कमीने पुरुषों का दोष नहीं है जो अपराध करते हैं?)

इन अपराधों को रोकने के लिये स्त्रियों को मर्यादा में रहना चाहिये.

  • - घर से बाहर कम निकले वह.
  • - कैरियर न बनाये वह.
  • - बुर्का/साड़ी या जिस लिबास में उन्हें स्त्रीत्व की रक्षा दिखे, पहने वह.
  • - हद में रहकर बात करना सीखे वह.

जो यह बाते करते हैं वह अहमक हैं या मक्कार?

- सड़क पर चलते हुये एक आदमी को रोज कुछ बदमाश लूट लेते हैं. एक दिन वह आजिज आकर थाने जाता है और शिकायत करता है. थानेदार उसे पकड़ कर लॉकअप में बंद कर देता है जिससे वह सड़क पर चले ही न कि बदमाश उसे लूट सकें.

सोचिये जब आप लुटें तो बदमाशों कि जगह आपको थाने में डाल दिया जाये.

जो यह बाते करते हैं वह अहमक हैं या मक्कार?

क्या टीवी, मैग्ज़ीन, सड़क, आफिस पर स्त्रियों के exploitation में उन्हें पुरुषों का कमीनापन नजर नहीं आता?

क्यों सुधारना चाहते हैं वह स्त्रियों को, क्यों नहीं सुधारना चाहते वह पुरुषों को?

टार्गेट कुछ और है, निशाना कुछ और
नारी की बदलती स्त्री का आंकलन ये अहमक/मक्कार कम कपड़ों और अपराधों से ही क्यों करते हैं?

  • क्या उन्हें आज की नारी ज्यादा शिक्षित व समझदार नहीं दिखती या यह ही असली खतरा है जिससे वो परेशान हैं?
  • क्या उन्हें आज की नारी आर्थिक रूप से ज्यादा स्वतंत्र नहीं दिखती या यह ही असली खतरा है जिससे वो परेशान हैं?
  • क्या उन्हें यह नहीं दिखता की आज कि नारी पुरुषों की bullshit स्वीकारने के लिये कम मजबूर है या यह ही असली खतरा है जिससे वो परेशान हैं?

इस तरह के पुरुष अहमक/मक्कार ही नहीं ढोंगी भी हैं, क्योंकि यह कहते हैं कि हम नारियों के लिये लड़ रहे हैं, लेकिन असल में यह चाहते हैं कि इनका कब्जा बना रहे, ठीक उस अंग्रेज बटालियन कि तरह जो अंग्रेज सरकार भारतीय राजाओं के खर्चे पर उन्हीं की सुरक्षा के लिये स्थापित करती थी.

न जाने कब तक आधी-आबादी इन अहमकों/मक्कारों+ढोंगियों को झेलने के लिये शापित रहेगी.