Friday, June 11, 2010

भारत की सरकार न्यौत चुकी है भोपाल से भी बड़ा जीनोसाइड... भारत क्या तुम इसके लिये तैयार हो?

भोपाल की टीस फैसले के बाद उभर चुकी है. मुनाफे के वहशी भेड़ियों के द्वारा किया गया वह कत्ले-आम बाहर वालों के लिये सिर्फ चंद तस्वीरें बन कर रह गया है लेकिन भोपाल वालों के सीने में अब भी धधक रहा है.

20,000 लोगों की मौत पर मारा गया $470 मिलियन का तमाचा, आज़ाद घूमते वो बड़े पद वाले जिन्होंने भोपाल में हर नियम की धज्जियां उड़ाईं और सस्ते में छूट चुके छोटे अफसर भारत के शर्मनाक हद तक गिर चुकी न्याय व्यवस्था की कहानी बयां कर रही हैं.

भारत कभी उस दर्दनाक हादसे को भूले न भूले आपके सरकारी हुक्मरान उसे दफना चुके हैं और इसलिये वह तैयारी कर रहे हैं भोपाल से भी बड़े हादसे की. बात हो रही है भारत-अमेरिका के बीच होने वाले न्युक्लियर करार की जो आपके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आंखों का वो सपना है जिसे पूरा करने के लिये वो कुर्सी गंवाने की हद तक जाने को तैयार थे.

भूलियेगा नहीं किस तरह आपके ही एक साथी ब्लागर अमर सिंह ने सांसदो को पैसे देकर मनमोहन की सरकार बचवाई (ऐसा IBN पर देखा था).

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आपको इस न्युक्लियर करार के बारे में पता है? यह वह करार है जो भारत को विश्व शक्ति का दर्जा दिलवा सकता है. वह करार जो भारत को एकलौता ऐसा देश बनायेगा जो संयुक्त राष्ट्र का परमानेन्ट सदस्य न होकर भी मुक्त रूप से परमाणू ऊर्जा के व्यापार में हिस्सा ले सकेगा.

जिसके बाद आयेंगी अमेरिकी परमाणू कम्पनियां भारत में और पैसे लेकर लगायेंगी वह संयंत्र जिसमें परमाणू ऊर्जा से बिजली बन पाये.

लेकिन यह करार सिर्फ पैसे के बदले मिलता तो कीमत छौटी थी. इसकी कीमत हम बहुत बड़ी चुकानी को तैयार हैं. इसकी कीमत हम देने को तैयार है लांखों जानों से. जो इस करार को करने के लिये भोपाल को भुला चुके हैं वो चेर्नोबिल याद कर लें. वहां भी था एक परमाणू संयंत्र जहां पर हुई दुर्घटना के प्रभाव से 100,000 (एक लाख) से ज्यादा जानें कैन्सर से गईं और 10,000,000 (दस लाख) से ज्यादा लोग कैंसर ग्रस्त हुये. यह कह रही है ग्रीनपीस की ताज़ा रपट.

कामन सेन्स कहता है कि किसी भी दुर्घटना को रोकना हो तो ऐसे कठोर नियम बनाने चाहिए जिसमें गलती की कोई जगह न हो. और उन नियमों का पालन न करने वालों को सख्त से सख्त सज़ा देनी चाहिये ताकी कोई कोताही न करे... लेकिन भारत की कांग्रेस सरकार ने कह दिया है कि आप इस देश में आयेंगे तो आपको हम पूरा लाइसेंस देंगे देश में लाखों जानों से खेलने का और अगर आपने दुर्घटना कर दी तो आपको हम पूरी मदद करेंगे बिना किसी जवाबदारी के साफ बच कर जाने को.

भोपाल के नरसंहार के बाद हमारी सरकारी मशीनरी तुरत-फुरत हरकत में आयी... काबिले-तारीफ थी वह तेज़ी, लेकिन तेज़ी थी क्योंकि यूनियन कार्बाइड के दोषियों को बचाना था. इसलिये कानून ताक पर रखे गये, नियम भुलाये गये और ऊपर-ऊपर और ऊपर से आदेश आते रहे दोषियों को बचाने के लिये.

लेकिन इस बार सरकार ने और भी तेज़ी दिखाई है. दोषियों को बचाने के लिये दुर्घटना होने का इंतज़ार तक नहीं किया... पहले ही सर्टिफिकेट दे दिया कि आप चाहें जितनों को मारें हम आपका पीछा नहीं करेंगे. फिर हम मांग लेंगे आपसे चिड़ियों का चुग्गा और डाल देंगे अपनी भिखारी जनता के सामने. और फिर आपको पूरा मौका देंगे निकल जाने का. यही हिस्सा है उस करार का जो भारत सरकार अमेरिका के साथ कर रही है.

युनियन कार्बाइड के 470 मिलिअन तो उसने खुद भी नहीं चुकाये, यह तो उसके इंश्योरेंस की रकम ही थी. इस बार भी अगर कोई न्युक्लियर दुर्घटना होती है तो मिल जायेगी आपको 460 मिलियन डालरों की भीख क्योंकि यही सबसे बड़ी वह कीमत है जो अमेरिकी कंपनियां चुकाने को बाध्य होंगी अगर कोई दुर्घटना घटी! और यह कीमत तय की है आपकी सरकार ने. अभी-अभी आपकी सरकार ने आपके देश वालों की जान की कीमत 10 मिलियन डालर घटा दी.

आपको कैसा लग रहा है मुद्रास्फीती के इस गिराव पर?

अमेरिकी जानें इस से कई गुना महंगी हैं वहां पर अगर कोई न्युक्लियर दुर्घटना होती है तो कंपनियां देंगी 10 बिलियन डालर तक. मतलब हर अमेरिकी आपके जैसे 20 के बराबर है. अब तो आपको अपने देशवालों की औकात का सही अंदाज़ा भी हो गया होगा.

वही अमेरिका जो अपने देश की कंपनियो के लिये इतना सस्ता सौदा तलाश रहा है अपने देश में होने वाले तेल के रिसाव पर एक ब्रिटिश तेल कंपनी (BP) पर 10 बिलियन डालरों का जुरमाना ठोकने की तैयारी कर रहा है जिससे वह कंपनी तबाह और बरबाद हो जायेगी.

भारत, क्यों न यह सौदा ऐसे देशों से हों जो दूसरों की जान की कीमत भी समझें? रूस बढ़ा हुआ मुआवज़ा देने को तैयार है. और जर्मनी में तो मुआवज़े की कोई सीमा ही नहीं निर्धारित की जा सकती. तो क्यों इस देश के US रिटर्न प्रधानमंत्री बेताब हैं अपने देशवासियों की जानों का इतना सस्ता सौदा करने के लिये?

Wednesday, June 2, 2010

शीला दीक्षित की दिल्ली सरकार नहीं चाहती की आपका बिजली का बिल घटे – DERC को कीमतें घटाने से रोका

सबसे पहले एक पहेली – पिछले साल दिल्ली की दो निजी बिजली कंपनियों ने कितना मुनाफा कमाया? पहली ने करीब 450 करोड़ रुपये, और दूसरे ने करीब 468 करोड़ रुपये. लेकिन दिल्ली सरकार को लगता है की निजी कंपनियां का मुनाफा बढ़ना चाहिये आम आदमी की कीमत पर इसलिये अप्रेल में उन्होंने बिजली की कीमतें बढ़ाने के लिये पूरी तैयारी कर ली थी. यहां तक की दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने बयान भी दिया था कि दिल्ली वालों को बढ़ी हुई बिजली की दरों के लिये तैयार रहना चाहिये
जबकी दिल्ली में बिजली की कीमतों का निर्धारण दिल्ली सरकार का मामला ही नहीं है. यह का है DERC का जो की दिल्ली सरकार के आधीन नहीं है.
तो फिर क्या बात है कि शीला दीक्षित बिजली कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिये इतनी मेहनत कर रही हैं
DERC ने पिछले साल बिजली की दरें बढ़ने से रोकीं और इस साल वह दरें घटाना चाहती है और शीला दीक्षित बढाना, जब दिल्ली सरकार का DERC के कामकाज में दखल बढ़ा तो खुद सोलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम को आगे आकर बयान देना पड़ा और दिल्ली सरकार को उसके काम में दखल देने से रोका.
अभी अभी DERC ने कहा है कि बिजली कंपनियों के मुनाफे को देखते हुये कोई कारण नहीं है कि दरें ऐसे ही बढ़ीं रहें इसलिये उन्होंने दरों को 20% तक कम करने की वकालत की है़. लेकिन दिल्ली सरकार ने फिर बयान दे दिया कि दरें नहीं घटनी चाहिये क्योंकि डिश्ट्रिब्युशन कंपनियों को नुक्सान न हो वरना वो DERC को नयी दरें लागू करने की इजाजत नहीं देगी!

DERC ने तो इस बारे में तीनों निजी कंपनियों को पत्र भेज दिया है कि दरे कम करिये लेकिन मई 4 को दिल्ली सरकार ने अपने बनाये गये कानून Delhi Electricity Act का सहारा लेते हुये नई दरों पर रोक लगा दी. DERC का कहना है कि यह रोक गलत है क्योंकि अगर यही दरें रहीं तो इस साल के अंत तक दिल्ली की पावर कंपनियों के पास कुल 4000 करोड़ का सरप्लस आ जायेगा जो की बहुत ज्यादा है!
कैसी है यह दिल्ली सरकार?
आपने वोट दिया थ इसको?

  1. यह है निजी कंपनियों के साथ जिन्होंने पिछले साल 900 करोड़ का मुनाफा कमाकर भी अपना पेट नहीं भरा.
  2. यह रोकता है एक इमानदार संस्था को लोगों के लिये काम करने से.
  3. इसका मुख्यमंत्री बयान देता है कि दिल्ली के लोगों को बिजली के लिये ज्यादा पैसे देने को तैयार रहना चाहिये.
  4. यह बनाती है एक ऐसा एक्ट जिसके जरिये यह DERC को बिजली की दरें घटाने रोक सके.
  5. यह देती है बयान कि DERC का बिजली कंपनी के हितों के विरुद्ध काम करना ठीक नहीं.
क्या हैं वो हित… जानिये --
  • 2004-2005 में NDPL नाम की बिजली कंपनी का मुनाफा था 169.60 करोड़. 2009-2010 में यह बढ़ कर 468.82 करोड़ हो गया. फिर भी दिल्ली सरकार ने इनकी गुहार मानी कि इनका मुनाफा कम है.
  • BSES Yamuna Power का मुनाफा 2007-2008 में 16.89 करोड़ से बढ़कर 2009-2010 में 157.33 करोड़ हो गया. फिर भी दिल्ली सरकार चाहती है कि इन्हें और पैसा मिले.
  • दिल्ली की तीनों बिजली कंपनियों ने अपनी आडिटेड फाइनेन्शियल रिपोर्ट में 2010 में रिकार्ड मुनाफा (अब तक सबसे ज्यादा) दर्ज किया.

दिल्ली की सरकार की मंशा क्या है?
उसकी जिम्मेदारी किसके प्रति है?
क्या दिल्ली सरकार, इसके पदाधिकारी भी ए.राजा की राह पर चल निकले हैं कि देश और जनता की कीमत पर निजी व्यवसायों को करोड़ों का फायदा पहुंचाना है?

बड़ी बात यह है कि DERC के इमानदार अफसरों  में बहुतों का कार्यकाल जल्द ही खतम होने वाला है. अगले साल बृजेन्द्र सिंह DERC के चैयरमैन अपने पद से रिटायर हो जायेंगे और दिल्ली सरकार इस फिराक में है कि इसके पदों पर उन लोगों को लाया जाये जो इसके हिसाब से चलें और जो वह चाहे होने दें. क्या इसको ऐसा करने से रोका जा सकेगा?

कतई नहीं रोका जा सकेगा.
अगले साल और उससे अगले साल अपने बिजली के बिल में दुगुनी तक बढत के लिये तैयार रहिये. 

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यह क्यों  चाहतीं हैं कि दिल्ली वाले अपना पेट काटकर बिजली कंपनियों का घड़ा भरते रहें? 
 

Friday, May 28, 2010

सुन्नी मुसलमानों ने किया पाकिस्तान में अहमदियों का कत्लेआम – मुस्लिम देशों में मुसलमान माइनोरिटी असुरक्षित

जुमे की नमाज़ के दिन लाहौर के अहमदिया मुसलमान (जिन्हें पाकिस्तान में कुत्ते से भी बदतर औकात नसीब है) खुदा में भरोसा रखने वाले हर मुसलमान की तरह मस्ज़िद गये, लेकिन उन्हें इल्म नही था कि वह दिन खुदा की इबादत का नहीं, अजाब का होगा. इस्लामाबाद कि दो मस्ज़िदों पर गोली-बारूद, आधुनिक रायफलों, मशीनगनों व ग्रेनेडों से लैस सुन्नी आतंकियों पर हमला बोल दिया और न जाने कितने ही बेकसूर अहमदिया मुसलमानों को हलाक किया.

एक वक्त तो यह था कि इन सुन्नी आतंकियों के कब्जे में 2000 से ज्यादा अहमदिया मुसलमान थे जिनकी जान की कीमत उन आतंकियों के लिये कुर्बानी के बकरों से भी कम होगी. बहुत सारे बेकसूर अहमदियों के हलाक हो जाने के बाद पाकिस्तानी मशीनरी हरकत में आई और आतंकियों को रोका, लेकिन तब तक कितने ही घर बरबाद हो चुके थे.

असल में पूरी दुनिया में जो सुन्नी मुसलमान हैं उनकी अंध धार्मिकता ने ज़हर फैला रखा है. ज्यादातर आतंकी घटनायें सुन्नियों के गुट करवाते रहे हैं चाहे वो हिन्दुस्तान पर हमले हों या अमेरिका में. ये लोग न तो शियाओं को मुसलमान मानते हैं, और अहमदियों को तो इन्सान भी नहीं मानते. इनके मुल्क पाकिस्तान में अहमदियों को कागज़ी तौर पर इस्लाम से अलग किया जा चुका है. ये लोग सूफी मुसलमानों को भी दिन रात बेइज़्ज़त करते हैं और उनके गीत-संगीत पर जोर देने के कारण हिकारत की दृष्टी से देखते है.

अपने भारत देश में अहमदिया मुसलमान इज़्ज़त की ज़िंदगी जी रहे हैं और उन्हें मुसलमान होने का पूरा दर्जा हासिल है.

अपने देश में भी चाहे वंदे-मातरम हो, या आतंकियों की तरफदारी भरी बातें, या बेवकूफी भरे फतवे, यह सब करने वाले सुन्नी मुसलमान ही हैं. इस्लाम के सारे अवगुण जैसे ज्यादा बच्चे पैदा करना, औरतों पर अत्याचार की ज़िद यह सब भी सुन्नियों में ज्यादा मिलेगी.

वैसे तो शिया भी निर्दोष नहीं हैं. शियाओं के सबसे बड़े मुल्क ईरान में वहीं पैदा हुये बहाई धर्म का जिस निर्ममता से गला घोंटा गया वह दिल कंपकंपा देता है. बहाइयों के गुरुओं को कैद किया गया, उनपे अत्याचार किये और बहाइयों को मारा गय. कुछ जान बचा कर भागे और उन्हें हिन्दुस्तान ने ही आश्रय दिया, और अपना पूजा स्थल बनाने की जगह भी – दिल्ली में लोटस टैंपल बहाई पूजा स्थल ही है.

यह सब बताने का सार यह है कि सुन्नी मुसलमानों में असहिष्णुता हिंसा का जो रूप ले रही है वह हर मुसलमान देश की माइनोरिटी के लिये दर्दनाक है, फिर चाहे वो अरब देश हों, इराक हो, मलेशिया हो, इंडोनेशिया हो, बांग्लादेश हो या और कोई भी मुसलमान देश, हर देश में माइनोरिटी पर अत्याचार के इतने किस्से खून से लिखे गये हैं कि दुनिया का कागज़ खत्म हो जाये पर कहानियां खत्म न हों.

शिया, अहमदिया, सूफी व अन्य मुसलमान वर्गों को सुन्नियों का पुरजोर विरोध शुरु करना चाहिये जो पूरी मुस्लिम कौम को अतिवादी का तमगा दिला चुके हैं.

फिर भी यह हिन्दुस्तान है जहां इस देश की माइनोरिटी मुसलमान सुरक्षित हैं, और हमारे देश के प्रधानमंत्री ने जैसा कहा कि देश के संसाधनों पर हक भी रखते है, तो भी उन्हें एक बार नारा देकर यह कहने में हिचक क्यों होती है कि जय हिंद!

क्या दूसरों के कत्ल को प्रेरित करने वाले धर्मों से नास्तिक होना बेहतर नहीं है?

आज ही नास्तिक बनिये, धर्म से अपना पिंड छुड़ायें, इन्सानियत अपनायें.

Thursday, May 6, 2010

Delirium and realization

कभी खुद को घेर कर किसी तन्हा कोने में ले जाकर, बाजू कस कर पकड़ कर ज़ोरदार जिरह कर लेनी चाहिये. आप सबसे झूठ बोल सकते हैं लेकिन खुद से नहीं. इसलिये जब आप खुद से सवाल करना शुरु करते हैं तो जवाब इतनी इमानदारी भरे मिलते हैं कि सुनने के लिये दिल कड़ा करना पड़ता है.

आज घर आते वक्त दिमाग में कुछ विचार घुमड़ते रहे. मैं हमेशा खुद् को lone man against religion मानता रहा. ज्यादातर मेरी बातें सुन कर समाजिक लोग नाराज़ होते रहे, और उन्हें नाराज़ करके मुझे खुशी मिलती रही. मैंने कभी किसी वर्ग की चिता नहीं की, क्योंकि मुझे उन्हें न कुछ देना था, न मांगना. लेकिन आज खुद को परखा तो पता चला कि कहीं न कहीं अब मैं उनका अप्रूवल ढूंढ़ रहा हूं. fliअगर किसी का लिखा उसकी सोच का आईना होता है तो मैं अपनी सोच का चेहरा देख कर आज खुश नहीं हुआ. क्या मैं भी एक तरफ झुक चला… मेरी खाल इतनी मोटी हो चुकि की जिस वर्ग में मैं जन्मा अब उसकी कमियं मुझे दिखती नहीं… या मैंने सीख लिया है कि अपनी convenience के अनुसार सच से किस तरह आंखे फेरनी चाहिये.  धार्मिक हिन्दुओं से क्यों मुझे पहले जैसा डर नहीं लगता, चिढ़ नहीं आती… आती उम्र के साथ मैंने भी रुढ़ियों के साथ समझौते का फैसला कर लिया.

आज अपना लिखा देखता हूं तो शर्म आती है. इसलिये नहीं कि मैंने गलत लिखा, इसलिये क्योंकि एक ही गलत के बारे में लिखा. यह तो वही पुराना रास्ता हुआ जिस पर चलने वालों से मैं बचता रहा. पर अब…?

यह बदलाव क्यों हुआ… क्या इसलिये कि अब मैं थोड़ा paranoid हो गया हूं. जो उन पर घटा वह सुन-देखकर मुझे लगता हे कि वह मुझे पर भी घट सकता था. इसलिये अब मैं सहारे के लिये भीड़ तलाश रहा हूं… Their crowd vs. my crowd… असुरक्षा में आदमी भीड़ की तरफ ही भागता है, तो उसी भीड़ की तरफ भागना होगा जिससे डर कम लगे. चाहे उसमें अपना खुद का वज़ूद ही न खोना पड़े.

आईने में मुझे यह नयी सूरत अजनबी सी लगती है. यह तो वैसा ही आदमी है जिसका दोस्त मैं नहीं बनना चाहता था, फिर कैसे मैंने इसे अपनाया.

मैं अपनी नीयत पर शक करना सीखूंगा. जब भी खुद को गलत सोचते महसूस करूंगा तो रोकूंगा. यही शक मुझे फिर खुद पर विश्वास की और ले जायेगा.

Tuesday, May 4, 2010

भारत से सबूत दरयाफ्त करने वाले पाकिस्तान कि अमेरिका के आगे घिग्घी बंधी… देख ली रे जेहादियों कि हिम्मत!

पाकिस्तान दुनिया के नक्शे पर एक बदनुमा दाग़ है… एक ऐसा मुल्क जो दुनिया भर के इस्लामिक आतंकवादियों के लिये पनाहगाह भी है,  और उनके विचारों का पोषक भी.  चाहे तालिबान हो या अल-कायदा या फिलिस्तीन की PLO सभी इस्लामी आतंकवादी संगठनों के तार यहां से जुड़े मिलेंगे.

इस धोखेबाज मुल्क की सरकार एक तरफ तो अमेरिका की चमचागिरी में दिलोजान से लगी है वहीं उन्होंने ओसामा बिन लादेन को भी सरंक्षण दे रखा है और बैतुल्लाह महसूद जैसे तालिबानी कमांडर को मारने की झूठी खबर देकर अमेरिका को भी धोखे में रख चुकी है.

इस देश की सरकार पूरी दुनिया में अशांती फैलाना चाहती है. इसलिये वो आतंकवादियों को स्पेशल ट्रेंनिंग कैम्पों में सरकारी खर्च पर ट्रेनिंग की सुविधा मुहैया कराते हैं. कसाब और उस जैसे दूसरे आतंकवादियों को उन्होंने हिन्दुस्तान भेजा जिसे यह एक सॉफ्ट टार्गेट मानते हैं, लेकिनी अमेरिका जैसे शक्तिशालि मुल्क में भी यह छुप-छुप कर मौत बांट रहे हैं.

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लेकिन इस आतंकि मुल्क की इस्लामिक आतंकवादी सरकार में कितनी हिम्मत है यह सभी को पता है. जब अमेरिका एक घुड़की देता है तो यह उसके पालतू कुत्ते की तरह चिचियाते हुए चले आते हैं. अभी अमेरिका में एक विस्फोट करने के लिये इसकी एजेंसी ISI ने आतंकी भेजे लेकिन अमेरिका के सजग तंत्र के आगे इनकी नहीं चल पायी. न सिर्फ यह विस्फोट करने में असफल हुये बल्कि इनके द्वारा भेजा आतंकी गिरफ्तार भी हो गया.

जिस पाकिस्तानी सरकार ने हाफिज़ सईद को गिरफ्तार करने से साफ इन्कार कर दिया और भारत से सबूतों की फरमाइश रख दी अब वह अमेरिका के सामने गिड़गिड़ाता फिर रहा है और अमेरिका उसकी खूब खबर ले रहा है.

पाकिस्तानी इस्लामिक आतंकवादी की गिरफ्तारी ने इसकी सरकार के होश उड़ा दिये हैं. पाकिस्तान का गीदड़ विदेश मंत्री जो भारत के आगे शेर बन रहा था उसे अमेरिका के दूतावास ने बुलाकर वो फटकार लगाई कि उसके होश ही उड़ गये… बाहर आकर फौरन उसने बयान दिया कि पाकिस्तान अमेरिका की हर मदद करेगा.

वैसे भी अमेरिका अपनी आंतरिक सुरक्षा से कोई समझौता नहीं करता. पाकिस्तान को उस पर हमले की कीमत महंगी चुकानी पड़ेगी. आने वाले दिनों में हम सब यह आशा कर सकते हैं कि अमेरिका की पहल पर इस्लामिक आतंकवाद पर पाकिस्तान को शिकंजा कसने पर मजबूर किया जायेगा. इससे यकीनन भारत को भी शांति मिल सकती है़

लेकिन मेरा विचार है कि पाकिस्तान जैसे कट्टरवादी मुल्क का यह समाधान नहीं हो सकता. इस देश में धार्मिक उन्माद और कट्टरवाद इतना कूट-कूट कर भरा है कि या तो इसके देशवासी ही इसे नष्ट कर देंगे, या फिर अंतत: इसका भी वही हश्र होगा जो इराक का हुआ और इरान का होने कि पूरी संभावानायें बन रहीं है़

पूरी दुनिया को जाग कर, मिल कर यह फैसला करना होगा. और इस्लामिक कट्टरवाद के पोषक पाकिस्तानियों को लातें मार-मारकर अपने-अपने देशों से बाहर फेंकना होगा.

- विष्णु

आज शाम जब घर पहुंचा तो विष्णु जी का यह लेख तैयार था. वह मेरे पड़ोसी हैं और कल के लेख पर मिली प्रतिक्रियाओं से काफी खुश थे. अगर यही सिलसिला चला तो लगत है कि ब्लाग-जगत में एक और ब्लागर का शीघ्र आगमन होगा - vishwa

Monday, May 3, 2010

इज़राइल के सब्र का पैमाना अब छलकना ही चाहिये

पूरी दुनिया में एक ही देश है जो अपने दुश्मनों से चारों तरफ से घिरा होने के बावजूद भी उनसे लड़ रहा है और इस्लामिक आतंकवाद को इस कदर छठी का दूध याद दिला रहा है कि अगर किसी आतंकवादी को कब्ज़ की समस्या सताती है तो वह इज़राईल का नाम लेता है और बंद दरवाज़े फौरन खुल जाते हैं.

ये है उन देशों की सूची जिन्होंने इज़राइल नाम के इस छोटे, 60 लाख आबादी वाले मुल्क को घेरा हुआ है : लेबनान, जोर्डन, इजिप्ट, सीरिया.

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इन कायर आतंकवादी देशों के साथ मिलकर इस्लामिक फंडामेंटिलिस्टों ने एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं, पूरे चार बार इज़राइल पर हमला किया. पहली बार 1948 में, फिर 1956 में, फिर 1967 में फिर 1973 में... याद रहे इन आतंकी कायरों ने हमला किया, इज़राइल ने नहीं. लेकिन फिर इज़राइल ने इनकी हर बार ऐसी तीन-ताल बजाई कि इनके आतंकी मंसूबे पानी में मिल गये और यह इज़राइल के जलाल के आगे पनाह मांगते फिरे.

इज़राइल ने युद्ध के दौरान इन कायर धर्मांधों की बहुत सारी जमीन कब्जे में भी कर ली, लेकिन हर बार दया करके इनकी सारी जमीन इन्हें वापस कर दी (ठीक भारत की तरह). क्या कोई इस्लामिक आतंकी गुट ऐसा करेगा? नहीं वह सारी देसी जनता की हत्या कर, उनकी संस्कृति, उनके धर को नष्ट करना चाहेगा, लेकिन इज़राइल ने कई मौके मिलने के बावजूद भी ऐसा नहीं किया.

असल में इज़राइल के खिलाफ सारा युद्ध उन लालची अरब देशों के द्वारा स्पांसर्ड है जो पैसे के लिये अपनी मातृभूमि को तो बेच ही चुके हैं.

इज़राइल भी इन लालची अरबों को एक हड्डी दिखाकर बनाया गया. 1923 में टर्की ने इज़राइल का हिस्सा ब्रितानिया के हवाले किया जिसे ब्रिटेन ने जोर्डन को दे दिया. फिर 1947 में दूसरे विश्व युद्ध में जब लाखों यहूदियों की मौत के बाद यहूदियों ने पुरजोर तरीके से अपने लिये एक देश की मांग उठाई तब यू-एन ने इस हिस्से को दो भागों में बांटा और इज़राइल का निर्माण हुआ.

उसी समय आसपास के सारे इस्लामिक देशों ने इज़राइल पर अपना कब्जा जताया और ये घोषणा कर दी कि वह इज़राइल के खिलाफ अपना घटिया धार्मिक जेहाद कर रहे हैं (जेहाद आतंकवाद का दूसरा नाम है). फिर उन भेड़ियों ने अपने देशों मे रह रहे यहूदियों का उत्पीड़न शुरु कर दिया, हजारों यहूदियों को मारा गया और लगभग साढ़े तीन (350,000) यहूदियों को जान बचाकर देश छोड़ना पड़ा (अब इन्हीं कातिलों को जब इज़राइल भगा रहा है तो यह दुनिया भर के सामने छाती पीटन कर रहे हैं).

युद्ध में जब यह इस्लामिक आतंकवादी पीटे गये तो इन्होंने अपना पुराना तरीका छिपा हुआ आतंकवाद शुरु कर दिया (जैसा पाकिस्तान भारत के खिलाफ कर रहा है). इन अरबी आतंकियों ने मुस्लिम मुल्लों से अपने नौजवानों को भड़कवाया, फिर उन्हें हथियार दिये और झौंक दिया इज़राइल पर आतंकी कार्यवाही में. इन आतंकवादियों ने इज़राइल को बहुत त्रस्त किया, वहां बम विस्फोट किये और निर्दोष नागरिकों को मारा. औरतों और बच्चों को भी इन जंगली लकड़बग्घों ने अपना शिकार बनाया. फिर इज़राइल ने वही किया जो एक शक्तिशाली और आत्मसम्मान वाले देश को करना चाहिये. इन्होंने इस्लामी आतंकियों पर कानून सम्मत कार्यवाही की, उन्हें गिरफ्तार किया, मुकाबला किया और कितने ही आतंकवादियों को अपने देश से बाहर खदेड़ दिया.

आज हालात यह हैं कि दुनिया भर के इस्लामी फंडामेंटलिस्ट इज़राइल को इस धरती से मिटाना चाहते हैं. अमीर अरब शेख और इस्लामिक देश इज़राइल के खिलाफ बयान पर बयान देते हैं और इज़राइल को मिटाने के लिये हर कोशिश कर रहे हैं. एक बेहद घटिया और खौफनाक बयान तो इरान के अहमेदिज़ेनाद ने यह दिया कि जिस दिन उसके पास एटम बम आ जायेगा वह इज़राइल को इस धरती पर से मिटा देगा!

तो आज हालात यह है कि इज़राइल के विरोध का विष इन इस्लामिस्टों ने पूरे विश्व में फैला रखा है और क्योंकि यह पैसा और संख्या दोनों में ही ज्यादा हैं इसलिये इनका जहर धीरे-धीरे समझदार लोगों को भी निगलता जा रहा है.

इसलिये आश्चर्य नहीं होना चाहिये अगर इज़राइल का सब्र अब चुक न जाये. यह याद रखना चाहिये की इज़राइल के पास उन्नत हथियार और एटामिक हथियार भी हैं और इज़राइल ने यह भी कहा है कि किसी एटमी हमले की सूरत में वह पूरे अरब को नेस्तानबूद कर देगा. इसलिये जिन कातिलों के मंसूबे इज़राइल को नष्ट करने के हैं उन्हें याद रखना चाहिये कि यह कोई कमज़ोर देश नहीं है जो इनके अत्याचार को सह ले. इज़राइल का तमाचा जब गाल पर पड़ता है तो गाल लाल हो जाता है और वर्षों सहलाना पड़ता है.

अब इस्लामिक आतंकवादियों के दिन लद चुके हैं. इराक तबाह हो गया, अफगानिस्तान भी, और पाकिस्तान भी तबाह हो रहा है. इरान के दिन जल्द ही आने वाले हैं. जो भी देश विश्व में अशांति फैलायेगा उसे नष्ट होना ही होगा

- विष्णु

इस लेख के रचियेता श्री विष्णु पंडित त्रिपाठी हैं जो चैन्नई के एक मंदिर में पुजारी हैं और आतंकवाद का 'वैज्ञानिक अध्ययन' कर रहे हैं. उनके आग्रह पर आप सब के पढ़ने के लिये उनका यह लेख डाल रहा हूं

Friday, April 23, 2010

शरद पवार की बेटी ने माना कि उसने झूठ बोला था

शरद पवार की पार्टी पावर में हो और घपला न हो ऐसा कहीं होता है? एनसीपी को देखकर तो अपने पाक दामन पर लालू प्रसाद जैसे भी गर्व कर सकते हैं. चाहे तेलघी  हो, या शक्कर या आईपीएल के शेयर ये लोग खाने में हमेशा अव्वल रहते हैं.

झूठ बोलने में नेता तो जगजाहिर ही हैं लेकिन उनकी औलादें (जो नेता नहीं हैं) वो भी इस सफाई से झूठ बोल लेती हैं यह नही पता था. अब पता चल गया है कि बचपन से ही ट्रेनिंग मिले तो बेईमानी करने के लिये नेता होना जरूरी नहीं है.

बात हो रही है सुप्रिया सुले की (जिनके नाम के साथ अब पवार तो जुड़ा भी नहीं है… फिर भी..?) जो शरद पवार की पुत्री हैं और झूठ बोलने में नंबर वन हैं. लेकिन अब शक्कर पवार… अर्र्र.. शरद पवार के साथ नहीं रहती तो झूठ पर कायम रहने की ट्रेनिंग कमजोर हो गई है.

पहले सुप्रिया सुले कहती रहीं की मेरे पति कि IPL से संबंधित किसी कंपनी में (इन्डीयन पैसाखोरों की लीग) में हिस्सेदारी नहीं है, लेकिन जब छापे पर छापे पड़ने चालू हुये और ढोल की पोल बजने लगी तो अब इन्होंने मान लिया कि हां भई हिस्सेदारी है!

त भैया 10 प्रतिशत हिस्सेदारी है इनके पति कि MSM (Multi-Screen Media) नाम की कंपनी में जिसके पास इस पैसाखोर लोगों की लीग के प्रसारण अधिकार हैं.

बीसीसीआई का चेयरमैन बनकर शरद पवार ने भी क्या गुल खिलाये हैं?

इन पैसाखोरों का पेट तो भरने का नहीं, लेकिन क्या इनके पाप का घड़ा कभी भरेगा?

[सुनने में आया है कि ICC अपना चेयरमैन पवार को बनाने वाली है. सही है, शायद उन्हें घपलेबाजों की कमी पड़ रही होगी.]

अबे कुछ तो शर्म करो नेताओं.

Wednesday, April 21, 2010

भारत में बिग ब्रदर इज़ वाचिंग यू... हिन्दुस्तानी सरकार की नज़र आप पर है

आपकी गतिविधियों पर सरकारी बिग ब्रदर की नज़र है. अगर आप कुछ ऐसा कर रहे हैं जिससे सरकार सोचती है कि वह प्रभावित हो रही है तो हो सकता कि आप पर भारतीय सुरक्षा या जासूसी तंत्र की नजर हो.

गूगल ने आज एक नया पेज बनाया है जिसमें बतलाया गया है कि किन देशों ने अपने देशवासियों की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिये कितनी बार जानकारी मांगी. इस सूची के अनुसार भारत उन देशों में प्रमुख है जिन्होंने गूगल से लोगों का सीक्रेट डाटा मांगा या फिर गूगल को आनलाइन सामग्री हटाने के निर्देश दिये.

गूगल के अनुसार भारत ने अब तक कुल 1061 बार लोगों की जानकारी गूगल के निकलवाई और 142 बार गूगल की वेबसाइटों में लोगों द्वारा डाली गई सामग्री को हटवाया.

इस सूची में सबसे ऊपर ब्राज़ील का नाम है जिसने एक बार वहां के गूगल के सर्वोच्च अधिकारी को इसलिये जेल भेज दिया था क्योंकि गूगल लोगों की सीक्रेट जानकारी उपलब्ध कराने से मना कर रहा था. चीन का जिक्र यहां पर नहीं है क्योंकि इस पर भी चीन की रोक लगी है वरना चीन इस संख्या में बहुत ही आगे होता.

बहरहाल निष्कर्ष यह है कि अगर अब तक आप सोच रहे हैं कि आप आनलाइन जो कर रहे हैं वह सरकार की नज़र में नहीं है तो आप गलतफहमी में है. अगर आप कुछ ऐसा कर रहे हैं जिससे नेता या सरकार खुद को असुरक्षित महसूस करे तो खुफिया तंत्र की आप पर नज़र हो सकती है.

हिन्दुस्तान में भी बिग ब्रदर की नज़रें तेज हैं और वह आप पर हैं.

ज्यादा जानकारी के लिये गूगल का गवर्नमेट रिक्वेस्ट पेज देखिये:

http://www.google.com/governmentrequests/

मेरा आइलेंड किसने चुराया?

ग्लोबल वार्मिंग के कारणों के बारे में चाहे संशय हो उसकी असलियत से इंकार करना मुश्किल होता जा रहा है. मैं सिर्फ भारत में इस साल पड़ रही भीषण गर्मी की बात नहीं कर रहा हूं, बात इससे आगे बढ़ चुकी है.

बदलते मौसम चक्र के कारण ग्लेशियर और आइसबर्ग पिघल रहे हैं यह तो हम सुन ही रहे हैं, लेकिन समुद्र का स्तर बढ़ने के असर को अब महसूस भी किया जा रहा है.

मैं बात कर रहा हूं बांग्लादेश और भारत से सटे एक छोटे से द्वीप के बारे में जो अब समुद्र के बढ़े स्तर के कारण पूरी तरह डूब चुका है. बात मजेदार है इसलिये क्योंकि भारत और बांग्लादेश दोनों का ही इस द्वीप पर दावा था और दोनों ही इस पर कब्जे के तलबगार थे. हिन्दुस्तानी सरकार तो कुछ समय तक इस पर बी-एस-एफ की एक टुकड़ी को तैनात कर चुकी थी.

फिलहाल यह दीप सागर के अंदर है और इसका कारण ग्लोबर वार्मिंग है जिसमें बहुत बड़ा हाथ मानव जाति का है.

अगर पर्यावरण में बदलाव यूं ही जारी रहा तो आगे का वक्त मानवों और बाकी जानवरों के लिये मुश्किल भरा हो सकता है.

तो यह बेहतर होगा कि हम लोग खुदा, भगवान, ईश्वर और इसी तरह की बाकी बकवास के बजाय कुछ असली मुद्दों पर ध्यान दें.

Wednesday, March 17, 2010

क्योंकि हर सवाल का जवाब देना जरूरी नहीं होता

1. हिन्दू शब्द कितना पुराना है?
इसकी जवाब जरूरी नहीं क्योंकि हिन्दू शब्द दूसरों द्वारा दिया गया है और हिन्दू संस्कृति से पुराना नहीं है. हिन्दूओं को क्योंकि बदलाव से परहेज नहीं, इसलिये अब वह उनकी पहचान है.

वैसे तो अल्लाह शब्द भी दूसरों का दिया हुआ है. मुहम्मद ने मूर्तिपूजक अरबों के कई भगवानों में से अल्लाह का नाम अपने ईश्वर को नाम देने के लिये किया. अल्लाह उनके ब्रह्मा के समान था (http://en.wikipedia.org/wiki/Allah).

1. अल्लाह शब्द कितना पुराना है?

2 क्या इस शब्द का अर्थ घृणित है?
शब्द का मतलब वही होता है जिसके लिए उसका इस्तेमाल किया जाता है. हिन्दू शब्द हिन्दुस्तानियों की पहचान है, और इसका अर्थ वही है. अगर अनर्थ निकालने कि जिद हो तो शब्द कई मिल जाते हैं.

2. ईस्लाम में ईश्वर के लिये जो शब्द है उसका अमेरिकि सैनिक किस मंतव्य में प्रयोग करते हैं?

3. यह शब्द किसी देशी ग्रन्थ का है?
बेशक इससे हिन्दओं को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि इतना सद्भाव और खुलापन उनमें आ चुका है कि वह हर बात का प्रमाण किसी ग्रंथ में खोजना जरूरी नहीं समझते.

3. अल्लाह शब्द की उत्पत्ति किसने की?

4. या विदेशियों का बख्शा हुआ है?
बख्शा तो खैर क्या होगा? वैसे बख्शा तो बहुत कुछ गया था. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद एक बहुत बड़ी रियासत बख्शी थी कुछ लालची अरबों ने एक गोरी विदेशी कौम के साथ मिलकर.

4. उस बख्शी गई रियासत का नाम क्या है.

5. हिन्दू शब्द का शब्दकोष में अर्थ क्या है?
कृपया न. 2 देखें.

5. सारी पश्चिमी सभ्यता के शब्दकोष में इस्लाम का अर्थ क्या है?

6. क्या किसी हिन्दू विद्वान ने इस नाम पर आपत्ति की है?
हिन्दूओं को धर्मान्धों कि आपत्ति से कोई फर्क नहीं पड़ता. किसी 'विद्वान' की फतवागिरी यहां नहीं चलती इसलिये आपत्ति कि बात हो न हो उसका कोई मतलब नहीं है.

6. उस कुरान के ज्ञानी विद्वान का नाम क्या है जिसका कलाम इतना सनसनीखेज है?

7. हिन्दुत्व क्या है?
हिन्दुत्व एक संस्कृति है, एक जीवनशैली है, एक पहचान है, एक विचार है, और भारत को जोड़ने वाला सबसे मजबूत सूत्र है. यह धर्म से आगे है,

7. एक खास धर्म में ऐसा क्या है जो उसको मानने वाले लोग इस कदर दीवाने हुये जाते हैं की इन्सान को इन्सान नहीं समझते?

8. इस शब्द को कब गढ़ा गया?
यह भी महत्वपूर्ण नहीं क्योंकि यह संस्कृति इसको दिये गये हर नाम से पुरानी है.

8. इस्लाम को पैगंबर ने कब अपनाया? इससे पहले वह किस धर्म को मानते थे?

9. इसकी परिभाषा क्या है?
एक ही सवाल बार-बार चोला बदल कर पूछा जाये तो क्या पूछने वाले के दिमागी संतुलन पर सवाल उठाया जा सकता है?

9. पूछने वाले को यह बेबात जिद क्यों है?

10. हिन्दुववादी के लक्षण और कार्य
हिन्दुव बहुत विशाल है. इसका कोई धार्मिक लक्षण नहीं. हिन्दुत्व अपने अन्दर सनातन धर्म, आर्यसमाज, बुद्ध धर्म, जैन धर्म, सिख धर्म, नास्तिकता और अगर चाहें तो इस्लाम और ईसाइयत को भी अपनाने की शक्ति रखता है. जो विशाल हृदय मानवता के लक्षण हैं वहीं हिन्दुत्व के लक्षण हैं.

10. क्या इन लक्षणों का अनुकरण करने के बारे में कभी सोचा है, या सिर्फ एक खास किताब में लिखे लक्षणों से ही इन्सान परिभाषित होता है?

11. क्या हिन्दुत्व किसी इश्वरीय ग्रन्थ पर आधारित है?
जब हिन्दुत्व धर्म के दायरे में नहीं आता तो उसके किसी ग्रन्थ पर आधारित होने का सवाल नहीं है. हां बहुत सारे ग्रन्थ हिन्दुत्व पर आधारित हैं. इनमें से कुछ सही हैं और कुछ गलत. यहां तक की हर ग्रन्थ में सही या गलत बातें मौजूद हो सकती हैं और हिन्दुत्व इस बात को स्वीकारता है और इन्हें सुधारता है.

11. क्या एक खास धर्म में लिखी किताब को अक्षरश: सही मान लेना बेवकूफाना नहीं है?

12. क्या हिन्दुत्व के सिद्धान्तो पर दुनिया में समाज है?
इस सवाल का जवाब सवाल से ही

12. जिन्हें भारतवर्ष दुनिया की सबसे पुराने सभ्यता (इस्लाम से भी पुरानी) नहीं दिखती उन्हें चश्मा बदलना चाहिये या नहीं?

13. इस नंबर का सवाल नहीं है.. क्या किसी खास धर्म में इस नंबर का प्रयोग वर्जित है? अगरा हां तो जरा वैज्ञानिक आधार बतायें.

14. महिलाओं के उत्थान के लिये हिन्दुत्व ने क्या किया?
800 साल के कुशासन और दमन के दौरान जो कमजोरियां हिन्दुत्व में आईं उन्हें लगातार दूर किया. पर्दा प्रथा हिन्दुओं में खत्म प्राय है. और इसी समाज की स्त्रियां एक खास धर्म की स्त्रियों से ज्यादा मुक्त, शिक्षित हैं. इसलिये अगर प्रतिशत में देखा जाये तो हिन्दू स्त्रियों की उपस्थिति सरकारी नौकरियों, प्राइवेट नौकरियों, बिजनेस में कहीं ज्यादा है. आज हिन्दू नारिया अपने हक के लिये पुरुषों की मोहताज नहीं है.

14. एक दूसरे धर्म में नारियों को अब तक कैद रखने की जिद क्यों है?

15. क्या हिन्दुत्व एक विश्वव्यापी अवधारणा है?
क्योंकि हिन्दुत्व की कुचेष्टा दूसरे धर्म के लोगों को बलात, या लालच देकर अपना धर्म बदलने की नहीं रही इसलिये इस धर्म के लोग धर्म परिवर्तन नहीं करते. वरन हिन्दू हर धर्म को अपना लेते हैं इसलिये हिन्दू घरों में गुरु नानक भी मिलेंगे, बुद्ध भी और जीसस भी.

15. क्या कोई दूसरा धर्म है ऐसा उदार?

16. या फिर क्षेत्रिय
जवाब 15 देखें.

16. एक दूसरे धर्म से अभी-अभी कौन सा क्षेत्र छीन कर एक तीसरे धर्म वालों ने कब्जा किया. नाम बतायें.

17. जो लोग हिन्दुत्व को नहीं मानते क्या हिन्दुत्व वादी उन्हें हीन समझते हैं?
हो सकता है कि पि़छली सदी में यह किसी हद तक सत्य हो लेकिन आज के दिन में कम से कम में यह बिना संशय के साथ कह सकता है कि हिन्दुत्व को मानने वाले सारी दुनिया के साथ कंधा मिलाकर चलते हैं न ऊपर न नीचे. हम हिन्दू सबकी तरह इन्सान है कोई और नस्ल नहीं.

17. क्यों एक खास धर्म को मानने वाले हमेशा अपने धर्म को ऊपर दिखलाने की जिद करते हैं? उनमें कौन से लाल लगे हैं?

18. हिन्दुत्व ने समरस और समानता के सिद्धान्त इस्लाम से लिये?
नहीं यह सिद्धान्त इन्सानियत से लिये. इस्लाम से इतर बिना धार्मिक सोच रखने वालों ने इन सिद्धांतों को जन्म दिया. इसका क्रेडिट लोकतांत्रिक मूल्यों के जनकों और एक हद तक मार्कसवादी मूल्यों के जनकों को जाना चाहिये न कि किसी धर्म को

18. क्यों एक खास धर्म के लिये सिर्फ वही बराबर हैं जो उस धर्म को मानते हैं और बाकी सब हेय?

19. यदि नहीं लिया तो किस वर्णवादी ग्रन्थ से लिये.
दूसरे धर्मों की तरह हिन्दु धर्म नयी सोच के लिये अपने ग्रन्थों का मोहताज नहीं. हम खुद भी सोच लेते हैं.

19. एक खास धर्म में हर व्याख्या किसी एक किताब के संदर्भ में ही क्यों करनी पड़ती है? क्या उनके पास खुद का दिमाग है?

20. वह वर्ण व्यवस्था की वापसी चाहता है या सफाया?
निश्चित ही सफाया. आज का हिन्दू पहले के हिन्दू के मुकाबले कम वर्णवादी है, और आगे और कम होगा. हम अच्छी शिक्षा से यह संभव बना रहे हैं. हम तो बदलेंगे ही.

20. क्यों एक खास धर्म बाकी सारे धर्मों का सफाया चाहता है?

21. तथाकथित वैदिक काल में शूद्रों आदी पर अत्याचार निंदनीय है?
बिलकुल है, किसी भी इन्सान या फिर जीवित जानवर पर अमानवीय अत्याचार निंदनीय है और हिन्दूत्व को जानने वाले यह कहते, मानते, करते हैं.

21. क्यों धीरे-धीरे गला रेत कर दर्दनाक मौत मारने को सबाब का काम समझा जाता है?

22. या प्रशंसनीय?
यह उसी सवाल का बेबात का एक्सटेंशन है. नहीं यह प्रशंसनीय भी नहीं है.

22. क्यों धीरे-धीरे गला रेत कर दर्दनाक मौत मारने को कुर्बानी कहकर प्रशंसा की जाती है?

23. पैगंबर हजरत... के अनुयायियों के द्वारा अविष्कृत सामान का लाभ हिन्दू उठाते हैं?
हिन्दूत्व को मानने वाले लोग धार्मिकता के कारण अंधाये नहीं है कि वो इन्सान और इन्सान के असबाब में धर्म के नाम पर फर्क करें. हिन्दुओं के भी बहुत सारे आविष्कार पैगंबर हजरत... के मानने वाले उपयोग करते रहे जैसे शून्य, गणित विद्या आदी. आज भी हिन्दू आविष्कारक और इन्जीनियर हिन्दुस्तान और उससे बाहर बहुत से ऐसे नये आविष्कार कर रहे हैं जिसका उपयोग पैंगबर हजरत... के मानने वाले करते हैं. यहां कि कम्पयुटर के आविष्कार में भी एक हिन्दू ने रोल निभाया (विनोद धाम)

23. क्या इस खास धर्म को मानने वाले दूसरे धर्मों के आविष्कारकों के द्वारा बनाये उपकरणों का उपयोग नहीं करते? आपको पता है कि अनिस्थिसिया का आविष्कार एक यहूदी ने किया, आइंस्टाइन यहूदी था, मानव खून की ग्रुपिंग यहूदी ने की, यहां तक की आज इस्लामिक देशों की पहली चाहत एटम बम का आविष्कार भी यहूदियों ने किया. यहुदियों ने ज्यादा आविष्कार किये या एक खास धर्म के मानने वालों ने? सूची तैयार करें.

24. या फिर उनके उन्मूलन की चिन्ता में घुलते हैं?
हिन्दुओं ने कभी उनका उन्मूलन नहीं चाहा. हिन्दूत्व को मानने वाले न धर्म परिवर्तन करते हैं न धार्मिकता कि यह अन्धी जिद फैला रहे हैं जिसमें उन्हें धर्म के आगे कुछ दिखाई न दे. वह चितिंत हैं तो अपनी पहचान और जीवनशैली की रक्षा के लिये.

24. जब भी एक खास धर्म का शासन रहा तो उनके शासन में हिन्दुओं का लोप और उन्मूलन क्यों हुआ?

25. ग्राहम स्टेन्स को जिन्दा... अपराध मानते हैं?
किसी की भी हत्या अपराध है और यह हर हिन्दू मानता है दोषी पर कार्यवाही के लिये कानून का उपयोग होना चाहिये जो ग्राहम स्टेन्स के हत्यारे पर हुआ और हिन्दुओं ने ही समर्थन किया.

25. क्यों एक खास धर्म में यह जिद है कि दूसरे धर्म वाले को मारना अपराध नहीं. या फिर उसके मानने वाले कहते हैं कि उनके धर्म को छोड़ने वाले को मारना अपराध नहीं?

26. या फिर अपना आदर्श और हीरो़?
हमारा आदर्श वो कातिल नहीं. हमारा आदर्श है डा. भाभा (एक पारसी), एपीजे कलाम (मुसलमान) और हर वह इन्सान हिन्दू या दूसरे धर्म का जो इन्सानियत पर भरोसा करता है.

26. 5000 लोगों को एक झटके में मारने वाला क्यों एक खास धर्म का हीरो है?

27. महात्मा गांधी के हत्यारे कि सराहना या निन्दा?
निश्चय ही निन्दा. महात्मा गांधी का सम्मान हिन्दुओं के भरोसे ही है वरना आजादी में उनका योगदान का कितना वर्णन हिन्दुस्तान से ही कटे पाकिस्तान और बांग्लादेश में मिलता है वह सर्वविदित है.

27. क्या आप 5000 लोगों के हत्यारे की निन्दा पर एक निब्ंध लिखोगे या यह लिखोगे कि हर मुस्लिम को वैसा बनना चाहिये? (जैसा लिख चुके हैं)

28. हनुमान जी को वे जीवित मानते हैं या मृत?
हनुमान जी को हिन्दू ईश्वर का अंश मानते हैं.

28. इश्वर है या नहीं?

29. मीर बाकी द्वारा हनुमान जी का मंदिर गिराया उचित या नहीं?
बिलकुल अनुचित आपको संशय?

29. गुस्साये हिन्दू भीड़ के द्वारा मस्जित गिराया जाना उचित या अनुचित?

30. हनुमान जी ने मंदिर बचाना जरूरी क्यों नहीं समझा?
ठीक उसी लिये जिस तरह अल्लाह ने अपने जिन्नात/फरिश्ते आदी भेजकर मस्जिद बचाना नहीं समझा.

30. मस्जिद को बचाना अल्लाह या उसके फरिश्तों ने जरूरी क्यों नहीं समझा? सद्दाम हुसैन को बचाना? अफगानिस्तान को बचाना? इराक को बचाना? फिलिस्तीन को बचाना? पाकिस्तान को खुद से ही बचाना?

कुछ सवालों का जवाब जरूरी नहीं होता. जिनमें हिम्मत होती है वह ही दे पाते हैं. हम तो अपनी शक्तियां भी जानते है और कमजोरियां भी और दोनों की ही बात करते हैं.

वैसे मुझे अनिश्वरवाद प्रिय है और हिन्दूत्व में इसकी भी जगह है इसलिये मुझे यह सबसे प्रिय विचार है. इसलिये मुझे यह कहलाने से परहेज नहीं.

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Thursday, March 11, 2010

तो क्या मुस्लिम पुरुषों को आखिरकार मुस्लिम महिलाओं के अधिकार दिखने लगे?

वैसे तो महिलाओं कि किस्मत पहले ही इतनी जबर्दस्त है कि कितने ही पुरुष उनकी मर्यादा के सीमांकन और उसकी रक्षा के लिये इस कदर तत्पर हैं. ऊपर से मुस्लिम महिलाओं की किस्मत और भी जोर मारती है कि मुस्लिम पुरुष उन्हें बुर्के का हक दिलाने सुप्रीम कोर्ट तक चले जाते हैं (भले ही वहां से लतिया दिये जायें). इधर-उधर हम सुनने को मिलता है कि मुस्लिम समाज में औरतों की स्थिति बहुत कमजोर है. उन्हें घरों में कैद रखा जाता है. अच्छी शिक्षा, सुविधा, काम-काज के हक से वंचित रखा जाता है, बुर्के और बाकी रुढ़ीय़ां अपनाने पर मजबूर किया जाता है, लेकिन आजकल कुछ मंजर इस तरह का है कि लगता है कि मुसलमान पुरुषवादी अपने पिछले पापों को एकमुश्त धोने को कमर कसे बैठे हैं.

इसलिये तो कुछ् ही दिन पहले जिनकी ज़िद थी कि मुस्लिम औरतें वोट देने भी बुर्का पहन के जायें, अब यह चाहते हैं कि औरतों को आरक्षण बाद में मिले, और इसी शर्त पर मिले की मुस्लिम औरतों को आरक्षण पहले मिल रहा हो.Gazing Woman Sm

तो क्या पहले ज़मीर ने जोर मारा और अब बुर्के से निकाल कर मुस्लिम औरतों को सीधे विधानसभा में बिठाने की हसरत जोर मार रही है? या फिर विधानसभा में भी बुर्के में भेजेंगे यह अपने घरों की इज़्ज़त को? और चुनाव लड़ने की मशक्कत भी बुर्के में करेंगी औरतें?

या फिर सच यह है कि यादव-यादव-यादव और मुस्लिम गठजोड़ को सहन नहीं हो रहा कि औरतें को एकमुश्त इतनी आजादी मिल जाये कि वो देश में बनने वाले कानूनों को कम से 33% प्रभावित कर सकें.

सोचिये अगर विधानसभा में 33% औरतें हो तों:

1. क्या शाह बानू के खिलाफ जो विधेयक हमारी संसद ने पारित कर मुस्लिम औरतों को अपंग बनाया वो हो सकता था?

2. क्या मुसलमान पुरुषों के पास कई शादियां करना और औरतों को तलाक देना इतना आसान रह जायेगा?

3. क्या इन 'जैंटलमैंनों' के लिये विधानसभा में जूतम-पैजार इतनी आसान रहेगी?

4. क्या महिला अशिक्षा और उन पर अत्याचार जैसे मुद्दों को इसी तरह दबाया जा सकेगा?

पुरुष सत्ता को इस 33% आरक्षण से जो झटका लगेगा उससे देश की सारी पुरुष व्यवस्था हिलने वाली है. लेकिन इसे दबाने की कुचेष्टा इतनी जबर्दस्त है कि मुझे भी शक होता है कि इसी का बहाना लेकर कांग्रेस इस बिल को फिर से दबा न दे. आखिरकार इस हंगामें में उसकी महंगाई पर से ध्यान हटाने और विपक्ष को तितर-बितर करने की चाल तो कामयाब हो ही गई है.

इस बिल का विरोध करने का कोई मोरेल ग्राउंड क्योंकि यादव-यादव-यादव के पास नहीं है इसलिये उन्होंने मुस्लिम और दलित औरतों को बहाना बनाया है. इसका जबर्दस्त विरोध ही इस बात का सबूत है. वरना जो सपा-राजद अमेरिकी न्युक्लियर डील तक पर सरकार के साथ बनी रही (सपा वालों ने तो बकायदा सांसदों के सौदे करवाये), वो इस मुद्दे पर इतनी मुखर की मार्शलों से उठवा कर बाहर फिंकवाना पड़ा?

इतनी चिंता तो उन्हें महंगाई की बोझ से मरते गरीब देशवासियों की भी नहीं हुई.

इस सारे प्रकरण में हिस्सा लेने वाला हर सदस्य (कांग्रेस सहित) तब तक संदेह के घेरे में होगा जब तक यह बिल पास न हो जाये.

{दूसरी और: क्या यह खबर सुनी की सज्जन? कुमार को जमानत मिल गयी. अग्रिम जमानत तो पहले ही मिल चुकी थी. किसी चैनल पर यह खबर देखी? या मारने वाला अगर सत्ताधारी दल का शक्तिशाली नेता हो तो सारी मीडिया की ज़बान पर ताले लग जाते हैं?)

Wednesday, March 10, 2010

अबु आजमी ने कितने आतंकवादियों को बचाया? शहजाद, जुनैद… या कुछ और भी हैं?

अभी-अभी टीवी पर खुलासा हो रहा है कि मुम्बई के सपा नेता अबु आजमी बाटला हाउस के आतंकी शहजाद और जुनैद से मिला और उन्हें पैसा दिया कि वो छुप के रहें. चौरसिया और अजमानी मिलकर अबु आजमी से फोन पर बात कर रहे हैं, और कम से कम पहली बार चौरसिया के मुंह से कठिन सवाल सुनने को मिल रहे हैं

1. अबु आजमी दाउद की महफिल में शामिल रह चुका है.
2. अबु आजमी 1993 के विस्फोट के मामले में गिरफ्तार होकर जेल में रह चुका है.
3. अबु आजमी बार-बार आतंकवादी मामलों में संदिग्ध रहा है.
4. अबु आजमी ने खुद स्वीकार किया की शहजाद के बाप से उसके संबंध रहे और शहजाद का बाप उसके यहां आता जाता रहता है.

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बाटला हाउस में शहीद इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा के कातिलों में शामिल शहजाद को पैसे दिये और छुपने में मदद की... ठीक है.

लेकिन अभी-अभी मुझे याद आ रहा है कि मुंबई में ताज पर हमले में अबु आजमी गोलियों और हमलों के बीच में घुस कर कार लेकर आता है, और दो-तीन लोगों को बचाकर ले जाता है. बाद में बयान देता है कि वो सऊदी अरब के कुछ सम्माननीय लोग थे.

शहजाद का तो पता चला.. लेकिन अबु आजमी, कौन थे वो लोग जिन्हें तूने ताज होटल से निकाला था.

चौरसिया ने अभी अभी अबु आजमी से कहा
"आप इतने भोले भी नहीं है अबु आजमी की दाउद के घर में शादी में शामिल हों और आपका पता नहीं हो किसके घर में हैं"

अबु आजमी कह रहा है कि मैं भोला हूं... बिल्कुल भोला हूं.

"मैं मुसलमान हूं, मैं भगवान की नहीं अल्ला की कसम खा कर कहता हूं कि मैंने शहजाद को पैसे नहीं दिये और मैं उससे मिला भी नहीं हूं."

चौरसिया, क्या इस सवाल का जवाब निकलवा सकते हो कि इसने ताज होटल में किसको बचाया था.. कहीं कुछ और आतंकवादियों को तो नहीं निकाल ले गया? पुरानी फुटेज होगी न तुम्हारे पास?

लंदन भाग गया है अबु आजमी 5 तारीख को. ठीक उसी दिन जिस दिन दिल्ली पुलिस ने उससे पूछताछ की.

मनसे वालों तुमने हिंदी के नाम पर इसको झापड़ लगाया, क्या इस बात के लिये खुदा कसम इसको एक जबर्दस्त नहीं लगाना चाहिये?

और इधर कांग्रेस का एक पूर्व विधायक कांग्रेस की सरकार में हुये दिल्ली के बाटला हाउस एनकाउंटर जिसमें एक बहादुर पुलिस इंस्पेक्टर शहीद हुआ के बारे में कह रहा है कि ‘सारी दुनिया जानती है कि बाटला एनकाउंटर झूठ था’…

इस अब्दुस सलाम को लाफा कौन लगायेगा?

Tuesday, March 2, 2010

शिमोगा या यो कहें कि घुटन सिर्फ तस्लीमा के हिस्से में ही क्यों आती है?

तस्लीमा नसरीन ने बयान दिया कि कर्नाटक के अखबार में छपा लेख तो बहुत पुराना है, और छापा भी उनसे इजाज़त लिये बगैर है. तस्लीमा होकर जीना हिम्मत का काम है. तस्लीमा ने यह नहीं कहा कि लेख मैंने नहीं लिखा.

taslima Taslima, we apologize for those who didn’t understand.

वो अपनी बात कहना चाहती हैं. उनका लक्ष्य धर्म में पागल और अंधे हुये लोगों को इन्सानियत की कीमत समझाना है, इसलिये जब उनकी बात को ही बहाना बना जब बकवास, बेकार, घटिया और बेहद शर्मनाक बुर्के जैसी प्रथा की रक्षा के लिये जब इतने सारे पागल पैंट-शर्ट और अन्य आधुनिक पोशाकें पहन कर जान लेने-देने की तैयारी के साथ निकलते हैं तो तस्लीमा को महसूस हुये दर्द की व्याख्या मुश्किल है.

शिमोगा में मुस्लिम धर्मांधों के प्रदर्शन ने हिंसक रूप ले लिया और बलवे में दो लोगो की हत्या कर दी गई. दंगे और हिंसक प्रदर्शन पूरे कर्नाटक में हुए. बुर्के के ऊपर उस लेख को छापने वाले अखबार के आफिस पर हमला किया गया जिसमें माल और व्यक्ति दोनों को ही क्षति पहुंचाई गई.

बुर्के के खिलाफ लिखने की कीमत दो लोगों की जान? और इसकी जिम्मेदारी. वो किसकी है?

मीडिया में उबाल है कि 'तस्लीमा के लिखे के कारण कर्नाटक में हिंसा भड़की'

तस्लीमा के लिखे लेख के कारण?

क्या इसकी ग्लानी तस्लीमा के हिस्से में है? यही नजर आता है हमारी पढ़े-लिखे लोगों से भरी समझदार मीडिया को? अगर हां तो क्यों न फैले धर्मांधता, क्यों न और भी बल मिले हत्यारों और आतंकियों और क्यों न अंधेरे, अवसाद और डर के और भी घने कोहरे में धंसते चले जायें हमारे चिंतक, विचारक और सुधारक.

कर्नाटक में भड़की हिंसा तस्लीमा के लिखे लेख के कारण नहीं भड़की,

  • वो भड़्की सदियों से चलती आ रही एक दमनशील रिवाज़ को थोपने वाले मानसिक रोगियों की असहिष्णुता से.
  • वो भड़की अपनी आजादी को भोगाने और दूसरों को उससे वंचित करने वाले विलासियों के कारण.
  • वो भड़की  दूसरों को जानवर की तरह कैद करने की मंशा रखने वालों की वजह से.

लेकिन मीडिया में क्या सुनते हैं हम? तस्लीमा नसरीन के लिखे लेख की वजह से हिंसा भड़की. क्योंकि तस्लीमा ने लिखा, और अखबार ने छापा.

कहीं भी मैंने नहीं देखा कि असहिष्णुता के कारण हिंसा भड़की.
कहीं भी मैंने नहीं देखा कि धर्मांधता के कारण हिंसा भड़की.
कहीं भी मैंने नहीं देखा की कुरीतियों के कारण हिंसा भड़की.

बुर्के का प्रतिवाद करो तो हिंसा भड़कती है कौन करता है हिंसा? बुरका पहने हुई महिलायें? या फिर बिना बुर्का पहने पुरुष जो महिलाओं को बुर्के में ही रखना चाहते हैं?

और क्या गलत लिखा तस्लीमा ने अगर उसने कहा कि यह मत करो. क्यों स्पष्टीकरण मांगा जा रहा है उससे. क्यों नहीं स्पष्टीकरण मांगा जा रहा उन कठमुल्लों से जो कर्नाटक में बैठ कर लोगों को भड़का रहे हैं.

अगर सच बोलने पर हिंसा करने वालों की बजाय सच बोलने वालों पर सवाल उठाया जाता रहेगा तो कैसे जन्मेगा कोई दयानंद जिसने सति प्रथा पर सवाल उठाया, पर्दे पर सवाल उठाया, नारी अशिक्षा पर सवाल उठाया. और सवाल ही नहीं उठाया, समाधान किया.

सति प्रथा के खिलाफ अगर दयानंद और राममोहन रॉय की आवाज़ को भी इसी तरह भींचा जाता तो क्या हमारे देश की औरतें अब भी चिता पर होतीं? विधवायें आश्रमों में? और लड़कियां स्कूलों से बाहर?

क्या हमारा मीडिया इतना कायर है जो सच को जानते बूझते हुये भी सच नहीं कह सकता? या फिर इतना एक-पक्षीय? मैं समझ नहीं पा रहा हुं कि यह सब क्यों हो रहा है? किस तरह पूरी व्यवस्था और लोकतंत्र का चौथा स्तंभ इतना अंधा हो गया.

बेहतर है अब कुछ दिन खबरें न देखूं.

Monday, February 22, 2010

नक्सलीयों के 72 दिन शांति नहीं, अपने बचाव की कारवाई. हिन्दुस्तानी सरकार क्या तुम जाल में फंसोगी?

किशन 'जी?' की 72 दिन की शांति की पेशकश से पहले ही नक्सली कुत्तों का सामुहिक रूदन शुरु हो चुका है. कुछ ने तो इस पेशकश को भारतीय सरकार के लिये घोर गनीमत बना दिया है, कि नक्सली तुम्हारे पृ्ष्ठभाग पर जो कदमताल कर रहे हैं लो उनकी दया पर 72 दिन आराम कर लो. लेकिन क्या इस पेशकश की सच्चाई क्या है?

क्या नक्सलीयों का हॉलिडे सीज़न चल रहा है कि साल भर इतने लड़ाई-लफड़े के बाद जा कर हिल-स्टेशन पर आराम किया जाये?

या

वो महीनों से काम में लगे पुलिस वालों को छुट्टी के 72 दिन देना चाहते हैं?

साल भर कत्ले-आम करने वाले नक्सली आखिर चिदंबरम को 72 घंटे क्यों भेंट करना चाहते हैं? किसी भी तरह की पेशकश सुनने से भी पहले इस पर विचार कर लेना चाहिये, क्योंकि सच्चाई वह नहीं है जो किशनजी नाम का आतंकवादी कह रहा है और सच्चाई वह भी नहीं है जो इस आतंकी समूह के 'बुद्धुजीवी' चमचे पेश कर रहे हैं.

सच्चाई है:

नक्सलियों को चाहिये 72 दिन जंगलो से बचकर भाग जाने के लिये.

असल में नक्सली आतंकी झारखंड और छत्तीसगढ़ के जिन जंगलो में छिपे हैं वो जंगल में मुख्यत: साल के पेड़ है. यह वह समय है जब साल के पेड़ों पर से पत्ते झड़ते हैं और जंगल के जंगल बेरंग हो जाते हैं. साल के घने वृक्षों में छिपे नक्सलियों के लिये एक-दो हफ्तों के बाद शरण दुर्लभ होने वाली है, क्योंकि अप्रेल-मई तक साल के वृक्षों में नये पत्ते नहीं आने वाले.

वृक्षों से पत्ते झड़ जायें इससे पहले नक्सली कातिल भाग कर सुरक्षित ठिकानों में छिप जाना चाहते हैं. इसलिये उन्हें चाहिये 72 दिन. अगर सरकार ने यह पेशकश मान ली तो नक्सलियों के लिये बच के निकल जाना बेहद आसान हो जायेगा.

यह पेशकश मानना अक्षम्य अपराध होगा उन लोगों और पुलिस वालों के साथ जिन्होंने अपनी जान नक्सलियों के खिलाफ संघर्ष में दी है.

अब वक्त है कि सरकार सही फैसला ले और नक्सलियों के खिलाफ संघर्ष को वह तेजी दे जो साल भर नहीं दी, ताकी नंगे होते जंगलों में छुपे नक्सलियों को वक्त रहते खत्म किया जा सके. यह वह दुर्लभ मौका है जो साल में एक बार आता है, और त्वरित कार्यवाही से निश्चित है बहुत से नक्सली कातिल पकड़े/मारे जा सकेंगे.

चिदंमबरम, तुम हर हत्याकांड के बाद आंसू बहाते हो. अब फैसला तुम्हें करना है, और देखना हमें है कि तुम्हारे आंसू घड़ियाली हैं, या तुम आतंक को सचमुच मिटाने की कोशिश करोगे.

भारत, प्रधानमंत्री और पहला हक अल्प-संख्यकों का और पाकिस्तान के वो अल्प-संख्यक सिक्ख.

1. हिन्दुस्तानी सरकार के नुमाइंदे अपील कर रहे हैं कनाडा, यूएसए और यूरोप में बैठे सिक्खों से कि वो अपनी सरकारों पर दबाव बनायें कि वह सब मिल कर पाकिस्तान से कहें कि सिक्खों की जानमाल की रक्षा करो.

2. हिन्दुस्तान पाकिस्तान से बातचीत करने को तैयार है. कश्मीर पर भी, क्योंकि उसे विश्वास है कि पाकिस्तान के हर सवाल का उसके पास माकूल जवाब होगा. हिन्दुस्तान पाकिस्तान के हर सवाल का जवाब देगा, लेकिन एक भी सवाल नहीं होगा खुद उसके पास पूछने के लिये. यह भी नहीं कि कश्मीर के लिये आंसू बहाने वाले पाकिस्तानियों, क्या तुमने उन्हें देख रहे हो जो पाकिस्तान में ही मजहब के नाम पर मारे जा रहे हैं?

3. सुप्रीम कोर्ट ने सज्जन कुमार के खिलाफ नॉन बैलेबल वारंट निकाल दिया. तो 1984 से 25 साल बाद अब तो सज्जन कुमार गिरफ्तार हो जायेगा... या इसके लिये भी सिक्ख भाइयों को युरोप और यु-एस-ए में दबाव बनाना होगा?

4. मनमोहन 'सिंह' इतने महान निकले कि सिक्खों की कुर्बानी हंसते-हंसते दे रहे हैं. चाहे वो 1984 हो, या कश्मीर में सिक्खों की बड़े पैमाने पर हत्या, या अब पाकिस्तान, किसी से कुछ नहीं कहा जायेगा.

5. जूता मार कर एक खालसा ने टाइटलर का टिकट काट दिया. सरकार को रास्ते पर लाने के लिये कितने खालसों को जूते उठाने पड़ेंगे? कहां-कहां और किस-किस पर?

6. हिन्दुस्तान में 1411 बाघ हैं. सबको पता है. पाकिस्तान में 'सिंह' कितने है? इनको बचाने के लिये कौन सी कम्पनी बात करने की गुजारिश करेगी?

7. जो अल्पसंख्यक, मानवाधिकार, आदी-आदी वादी भारत के 'चिंताजनक' हालात पर बात करते नहीं थकते, क्यों वो चिंता नहीं करते हमारे उन लोगों कि जो बाहर अल्प-संख्यक हो गये हैं. क्या सिर्फ एक बयान भी इतना महंगा लगता है कि नहीं दिया जाता?

8. गुरु ने कहा था

चिड़ियां नाल मैं बाज लड़ांवा
तां गोबिंद सिंह नांव कहांवा...

और

देह शिवा वर मोहे इहै
शुभ कर्मन ते कबहुं न टरौं
न डरौं अरि सों जब जाय लरौं
निश्चय कर अपनी जीत करौं

तो क्या कमी हो गई हमारे निश्चय में कि जीती नहीं, हर बाजी हारी हमने और मोहताज हुये सहारे का उन्हीं लोगों का जो जिम्मेदार हैं इस शर्म का.

Saturday, February 6, 2010

'बेगुनाहों' ने मार दिया बाटला अभियुक्त को गिरफ्तार कराने वाले मास्टर को

दिल्ली के बाटला कांड के 'बेगुनाह' अब भी जेल में सड़ रहे हैं और उनके सुराग देने पर दिल्ली पुलिस की एटीएस आजमगढ़ जाकर शहजाद को पकड़ लाई. वही शहजाद जिसने कबूल किया कि उसने भी वीर शहीद इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा (जिसके परिवार की सुरक्षा दिल्ली सरकार ने वापस ले ली अभी-अभी) पर गोली चलाई थी.

शहजाद को पकड़ने में एटीएस की मदद एक स्थानीय स्कूल के प्रबंधक ने की थी. उसने एटीएस के लोगों को रुकने का स्थान मुहैया कराया और एटीएस को शहजाद के बारे में महत्वपूर्ण सुराग दिये. इनका नाम श्री दिनेश यादव था, जिन्हें अब मार दिया गया है. इस कांड में स्कूल का एक आदमी और भी मारे गये. 

सबसे पहले तो नमन उस शहीद दिनेश यादव को जिसने भेड़ियों के शहर में रहते हुये भी देश का साथ न छोड़ा, और फिर धिक्कार उस दिगविजय सिंह को जिसने अभी-अभी आजमगढ़ की यात्रा कर बाटला कार्यवाही पर सवाल उठाने वालों को यह भरोसा दिलाया कि वह जांच मे 'पूरा सच' निकलवायेंगे.

क्या है पूरा सच दिग्विजय सिंह?

  • क्या मोहनचंद्र कि हत्या आतंकियों ने नहीं की?

हमें भी बताओ तुम्हें किस चीज़ पर शक है.

दिग्विजय सिंह क्या तुम एक बार और जाओगे आजमगढ़ उस शहीद की अंतिम यात्रा में जिसने देशद्रोही आतंकियों के खिलाफ मुहिम में अपनी जान कुर्बान की? या फिर तुम सत्ता के भूखे भेड़िये की तरह सिर्फ वोट खसोटने के लिये ही यात्रायें करते हो?

अब भी जिन्हें बाटला कांड की सत्यता और श्री मोहन चंद्र शर्मा की शहीदी पर शक हो उन्हें शर्म से डूब मरना चाहिये. लेकिन अगर यह शर्म का मामला होता तो डूब भी मरते, यह तो साफ-साफ देशद्रोहियों की साजिश है.

बिहार में चुनाव होते हैं तो मुम्बई में हाहाकर मचता है, और मुंबई में चुनाव होने होते हैं तो बिहार में रेल स्टेशन जल जाता है. सत्ता हथियाने के लिये जो न करना पड़े वो कम है़.

जब देश जल रहा होगा तब सत्ताधारी उसके हाल पर रोयेंगे या नीरों की तरह चैन से बंसी बजायेंगे?

खबर: नईदुनिया के हवाले से.

Tuesday, February 2, 2010

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जो किसी की नाक से टकराकर खत्म हो जाये

अंग्रेजी भाषा में एक कहावत है - 'Your freedom stops where the tip of my nose starts.' मतलब तो इसका होता है कि स्वतंत्रता का इस्तेमाल किसी और की कीमत पर नहीं किया जा सकता, लेकिन कुछ लोगों ने इसका मतलब समझते हैं कि हम चाहे जहां नाक घुसेड़ दें, वहीं सबका बंटाधार.

भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता यो कहें तो एक मूल अधिकार है. मतलब अगर आप किसी से असहमत हैं तो उसके खिलाफ आप वक्तव्य दे सकते हैं. उसकी बुराईयां उजागर कर सकते हैं और चुन-चुनकर गलतियां गिना सकते हैं. साथ ही यह अधिकार है कि अगर कोई आप पर मिथ्या आरोप लगाये तो आप उस पर कानूनी कार्यवाही कर सकते हैं.

इसी का उपयोग पिछले साल एक बरखा दत्त नामक पत्रकार ने चेतन कुंटे नामक एक ब्लागर को धमकाने के लिये किया. कुंटे धमक में आ गया और बरखा दत्त का जिक्र करता अपना लेख हटा लिया, साथ ही माफी भी मांगी. उस समय पूरे ब्लाग जगत में शक्तिशाली प्रतिक्रिया उठी और कुंटे से भी खतरनाक कई सौ लेख आये. साथ ही उच्च कोटी के कानूनदां लोगों ने राय दी की बरखा दत्त की धमकी में कोई दम नहीं था. और कोई भी अदालत केस को बाहर फेंक देती. असल में इस तरह के कानून का उपयोग छोटे-मोटे बदमाश, नेता, चोर और फांदेबाज भी लोगों को धमकाने के लिये करते आये हैं, लेकिन बरखा जैसे 'फ्रीडम और स्पीच चैंपियन' की यह हरकत लोगों को नागावार गुजरी.

वैसे कानून में भी libel के सटीक डेफिनिशन है. यह देखिये

  • It is not defamation to impute anything which is true concerning any person, if it is for public good that the imputation should be made or published.
  • It is not defamation to express in good faith any opinion whatever regarding the conduct or character of a public servant in discharge of his public function.
  • It is not defamation to express in good faith any opinion regarding the conduct or character of any person touching any public question.
  • It is not defamation to publish a substantially true report or result of a Court of Justice of any such proceedings.
  • It is not defamation to express in good faith any opinion regarding the merits of any case, which has been decided by a Court of Justice, or the conduct of any person as a party, or the witness or the agent, in such case.
  • It is not defamation to express in good faith any opinion regarding the merits of any performance which an author has submitted to the judgement of the public.
  • It is not defamation if a person having any authority over another person, either conferred by law or arising out of a lawful contract, to pass in good faith any censure on the conduct of that other in matters to which such lawful authority relates.
  • It is not defamation to prefer in good faith an accusation against any person to any of those who have lawful authority over that person with respect to the subject matter of accusation.
  • It is not defamation to make an imputation on the character of another person, provided it is made in good faith by person for protection of his or other's interests.

मतलब अगर आप सत्य बोल रहे हैं तो आप को डिफेमेशन कानून से कोई डर नहीं.  डर है तो सिर्फ केस में उलझाकर नाहक परेशान करने की धमकियों से.

वैसे बरखा दत्त के केस में जिस तरह विभिन्न मतभेदों को बुलाकर अनेक ब्लागरों ने अपनी आपत्ती दर्ज की थी वह देखने लायक थी. उसके बाद हुये प्रकरण में बरखा दत्त को संभावित कानूनी नोटिस की जानकारी मैंने भी अपने ब्लाग में प्रेषित की थी.

फिलहाल तो कुछ छिछली मानसिकता के लोगों का बरखा-दत्त सरीखा हास्यास्पद प्रयास देखकर तरस ही आ सकता है.

देर-सवेर वह भी सच्चाई जान ही जायेंगे जिन्हें इनके बारे में गलतफहमी है.

Saturday, January 9, 2010

उस आयोजित कार्यक्रम के बाहर खड़े थे कुछ प्रायोजित बच्चे

"नक्सलियों नें मेरी आखों के आगे बेरहमी से मेरे मां-बाप को मार दिया, वो याद करके आज भी मैं थर्रा जाता हूं"
- राजेन्द्र कुमार (अब अनाथ आदीवासी बच्चा), दन्तेवाड

"मैं भी बड़ा होकर पुलिस बनूंगा, जिन नक्सलियों ने मेरे पापा को मारा, मैं उन्हें मार दूंगा"
- अभिषेक इन्दुवर (उस पुलिस आफिसर का बेटा जिसका सर काट कर फेंक दिया गया)

छत्तीसगढ़ में एक आयोजित कार्यक्रम के बाहर खड़े थे कुछ तथाकथित “प्रायोजित" बच्चे. वह बच्चे जो अब अनाथ हैं. मार दिया उनके मां-बापों को मानवाधिकार वालों के चहेते नक्सलवादियों ने.

अब यह बच्चे इन्तज़ार करते हैं मानवाधिकार वालों की 'कारों' के आगे ताकि वह पूछ सकें - "मुझे अनाथ करने वालों को आप क्यों बचाना चाहती हैं आंटी़?",

कोई तो हो जो इनसे बात करने के आगे इनकी बात करने की भी सोचे.

कोई तो हो जो इन बच्चों के विरोध को प्रायोजित कहने से पहले यह भी सोचे की नक्सलियों और उनके हिमायतियों के आयोजनों का प्रायोजन कौन करता है?

जो लोग नक्सलियों के शिकार बच्चों को प्रायोजित कहते हैं वो नक्सलियों के चमचों के आयोजन को इतनी आसानी से इजाजत क्यों दे देते हैं?

क्या सिर्फ फोटो खिंचवाने की आस में?

छप गई फोटो. अब तो आपकी ही जये हे, जय हे, जय हे.

क्या आयोजन, प्रायोजन, अपनी बात कहने का अधिकार सिर्फ नक्सलियों को है?

अगर आपको प्रायोजित करना हो तो किन्हें चुनेंगे, ये बच्चे या नक्सलियों के मददगार मानवाधिकारवादियों को? बताइयेगा जरूर.

medha
ये हैं वो ‘प्रायोजित’ अनाथ (फोटो साभार: पत्रकारिता ब्लाग)

Friday, January 8, 2010

स्वतंत्रता ही नियती है

स्वतंत्रता का न ओर हो सकता है न छोर, लेकिन सत्य में तो स्वतंत्रता का दायरा उतना ही सीमित या विस्तृत होता है जितने की आपका समाज इजाज़त दे.  जहां भौंहें उठना चालू होती हैं वहां choices बहुत जल्दी embarassment बन जाती हैं.

लेकिन अगर कोई ध्याद दे तो पायेगा कि स्वतंत्रता का दायरा तो लगातार विस्तृत होता जा रहा है. पहले जो बुरा या अचरजपूर्ण था, अब वो साधारण है, और आज जो समाज के लिये सहना मुश्किल है, कल वह भी नितांत common-place व साधारण होगा.

जो लोग संस्कृति, समाज, परिवार, व्यवस्था के कारण चिंतित हैं पहले तो उन्हें यह समझना होगा कि सब कुछ transient है. आज समाज के जिस रूप की रक्षा हम करना चाहते हैं कल वह नहीं था. अभी कुछ ही तो सदियां बीतीं होंगी जब इस समाज के तब के स्वरूप में रहना हमारे लिये असहनीय होता, ‘छी:, कितने राक्षसपूर्ण, असभ्य हैं यह लोग’, यह हम उनके लिये भी कह सकते हैं, और वो हमारे लिये भी.

freedom

जो यह समझ के लिये कि समाज और संस्कृति की भी उम्र होती है, और उम्र होने पर यह भी गुजर जाता है वह समाज और संस्कृति के लिये चिंतित नहीं होता. और होता भी है तो यह जानता है कि चिंता नहीं पूर्वाग्रह (bias) है जो उसे उन अलग values को ग्रहण करने से रोकती हैं.

ज्यादातर लोगों को आगे आने वाले समाज से डर लगता है क्योंकि वह खुद को उसके अनुरूप नहीं पाते. इसलिये वह बदलाव को धक्का देकर रोकने की कोशिश करते हैं, पर बदलाव को गिरफ्तार तो किया जा सकता है, हमेशा के लिये रोका नहीं जा सकता.

स्वतंत्रता नियती है. इसे रोका नहीं जा सकता, और क्यों रोका नहीं जा सकता इसको समझने से पहले व्यक्ति और समाज के बीच बदलते समीकरणों को समझना होगा.

पहले-पहल जब समाज बना होगा तो व्यक्ति से उसका संबंध प्रगाढ़ होगा. समाज के क्रिया-कलाप दैनिक दिनचर्या में शामिल होंगे क्योंकि आपका समाज जिस पर आप दाने-पानी, बर्तन, छत, के लिये निर्भर हैं आपके लिये अजनबी नहीं था. आप अपने समाज के हर उस हिस्से परिचित थे जिसके द्वारा दी गयी सुविधा का आप उपयोग कर रहे थे. इसलिये समाज को मानना आपके लिये मजबूरी थी.

आज समाज अदृश्य है. जिससे आप  मिलना चाहें मिलें, संबंध रखना चाहें रखें, यह आप पर निर्भर है. आपके लिये मजबूरी नहीं है. अपने जीवन के निर्वाह के लिये जिन वस्तुओं की आपको जरुरत हैं वह समाज के नियमों के खिलाफ जाकर भी आपको मिल सकती हैं क्योंकि सभ्य दुनिया में कोई पंचायत आपको जात-बाहर नहीं कर सकती.

इसलिये व्यक्ति समाज पर भारी पड़ जाता है. इसलिये स्वतंत्रता का दायरा बढता जा रहा है और निरंतर बढ़ता जायेगा. कल जो taboo था आज वो routine है, और आज जो टैबू है कल रूटीन होगा.

क्योंकि सच यह है कि हर कोई स्वतंत्र होना चाहता है, उस हद तक जिस भी हद तक वह हो पाये. व्यक्ति समाज को धकेल-धकेल कर स्वतंत्रता हासिल कर लेगा. और इनमें वह भी शामिल हैं जो समाज के लिये इतने चिंतित है.

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Sunday, January 3, 2010

क्रांति अब कभी नहीं होगी

इंकलाब या क्रांति. एक ऐसा संघर्ष जिसका समापन व्यवस्था के पलटने से हो. बूढ़ी हो चुकी व्यवस्था क्रांति का शिकार होकर अचानक ढेर हो जाये और उसकी जगह आये एक नया विचार जिसे फिर अपनी कसौटी पर परखें लोग. पर लगता है कि आखिरी क्रांति बहुत पहले गुजर चुकि और जो व्यवस्था है उसे shape तो किया जा सकता है, लेकिन बदला नहीं जा सकता.

क्या यही व्यवस्था वह पर्फेक्ट सिस्टम है जिसमें विद्रोह और नियंत्रण (chaos and order) का एक ऐसा सटीक बैलेन्स है कि यह हमेशा चल सकती है? हो भी सकता है, क्योंकि जहां इस व्यवस्था में निरंकुश शासक हैं, वहीं एक ऐसा शासित वर्ग भी है जो समय-समय पर शासकों को उनकी औकात बता कर अपने अंदर उठते गदर के तूफान को ठंडा कर देता है.

तो इसमें शासक और शासित दोनों की आत्म-अभिव्यक्ति (या कहें अपनी भड़ास निकालने) के लिये काफी जगह है. इसलिये यह व्यवस्था एक मौन-सन्धी, एक अस्थाई armistice है जिसमें इतने असंतोष के बावजूद भी दोनों वर्गों के लिये संतुष्टि है. शायद इसलिये जार्ज-बुश का डिक्टेटरशिप का सपना, या फिर किसी असंतुष्ट नागरिक का क्रांति का सपना सिर्फ सपना ही रह जाता है. उसमें व्यवस्था को बदलने की ऊर्जा नहीं होती. शायद इसलिये पाकिस्तान जैसे देशों को डिक्टेटरशिप से बार-बार लौटकर इसी व्यवस्था पर आना पड़ता है.

कोई भी वस्तु निरंतर इस्तेमाल से या तो जर्जर होती है या परिष्कृत. यह व्यवस्था भी अब नयी नहीं रही शायद थोड़ी जर्जर भी हुई है लेकिन या शासक और शासित दोनों को ही इतनी प्रिय है कि जब भी जर्जरता हावी होती है दोनों मिलकर इसे थोड़ा परिष्कृत कर लेते हैं.

कभी एक छोटा सा कानून जो शासकों पर निगरानी रखने का अधिकार दे, या फिर मुक्त रूप से शासको की आलोचना की आजादी या कभी एक ऐसा कानून जिसके इस्तेमाल कर कभी भी किसी नागरिक को बिना आरोप साबित किये लंबे समय तक जेल में रखने का हक. जब भी पलड़ा एक तरफ झुकता है और दबाव बनता है तब दोनों में से कोई वर्ग अपना कोई अधिकार छोड़ने को तैयार हो जाता है और व्यवस्था जारी रहती है.

इसलिये मुझे लगता है कि क्रांति अब नहीं होगी. आखिरी क्रांति वही थी जिसने इस व्यवस्था को जन्म दिया, और अब हम लादेंगे इसी व्यवस्था को, आजन्म और मृत्यु-पर्यन्त.

लेकिन इस व्यवस्था का इस रूप में जारी रहना एक खतरनाक trend है, आखिर कैसे कोई ऐसा समाज बिना बीमार हुये रह सकता है जिसमें अधिकार तो लिखे हुये, इतने स्पष्ट, इतने साफ हों लेकिन कर्तव्य न हों. जिसमें दोनों ही वर्ग जितने अपने अधिकारों के लिये सचेत हों उससे दस फीसद भी कर्तव्यों के लिये न हों. उस व्यवस्था का जारी रहना तो पूरी सभ्यता को सड़ा सकता है.

लेकिन क्रांति फिर भी नहीं होगी, क्योंकि इस पीढ़ी के पास कोई बेहतर विचार नहीं, न इससे बेहतर चाहने की तलब. अगर है तो सिर्फ अपने अधिकारों को फैलाने की अंधी प्यास. इसलिये क्रांती अब नहीं होगी.

क्रांती तब तक नहीं होगी जब तक कोई नया, एकदम अजीब-सा, अचरजपूर्ण विचार जड़ न पकड़े. वो विचार जो अभी नहीं है, लेकिन शायद एक दिन होगा. तब होगा जब इस व्यवस्था के दोनों ही वर्गों के पास न कुछ देने के लिये बचेगा न लेने के लिये.

Friday, January 1, 2010

आप गुलाम रहिये क्योंकि अपने कमीनेपन पर हम काबू नहीं कर सकते

मुझे लगता है कि फेमिनिज़्म कुछ लोगों के लिये इतना तकलीफदेह बन गया है कि किसी भी स्वतंत्र नारी को देखकर वह बिना कसमसायें और फब्तियां कसे नहीं रह सकते.

उनके लिये असहनीय होती है एक ऐसी स्त्री जो किसी पुरुष के आधीन न हो, जो आत्मनिर्भर होकर पुरुषों कि दुनिया में अस्तित्व बनाये रखे और उस पर हद यह कि उसके पास 'opinion' हो. Opinionated women उन्हें एक ऐसी बीमारी कि तरह लगती हैं जिसे कैसे भी करके दबाना, हराना है क्योंकि वो उन्हें अपने पुंसत्व पर एक सवालिया निशान कि तरह दिखती हैं.

मुझे आश्चर्य होता है उन पुरुषों को देखकर जिनके जीवन का एक प्रमुख उद्देश्य नारी-मर्यादा का व्याख्यान है. इतने चितिंत हैं यह, इतने परेशान. क्या इन दूर, अकल्पनीय opinionated नारियों में इन्हें अपने परिवार की स्त्रियों का भविष्य दिखाई देता है?

दिक्कत की बात यह है कि जिन तर्कों से यह स्त्रियों की choices पर सवाल लगाते हैं, यह नहीं देख पाते की उनमें कहीं-न-कहीं एक कमीना पुरुष भी लिप्त हैं.

जिन आरोपों का इस्तेमाल वो नारियों की बदलती स्थिति के खिलाफ करना चाहते हैं वो असल में पुरुषों के खिलाफ हैं. क्या यह भारतीय परिवारों के लिये परेशान पुरुष इतने अंधे हो चुके हैं कि वो यह नहीं देख पाते?

वो परेशान हैं कि इस भौतिकवादी, इश्वर विमुख संसार में नारियों कि गिरती स्थिति से, और बदलना चाहते हैं नारियों को जो इस विलासवादी सभ्यता के चंगुल में फंस गई हैं.

वो परेशान हैं:

  • समाचार पत्रों में स्त्रियों की नग्न तस्वीरों से (जो पुरुष देखते होंगे, स्त्रियां नहीं. अगर स्त्रीयों के देखने के लिये बाजार हो तो पैसे देकर पुरुषों कि नग्न तस्वीरें और भी आसानी से हासिल की जा सकती हैं, इसमें शक है?)
  • रास्तों आफिसों में छेड़खानी से. (रास्ते पर चलती, आफिसों में काम करती स्त्रियां जीन्स-पैन्ट, स्कर्ट, पहनकर क्या इतनी accessible हो जाती हैं कि कोई भी कमीना पुरुष उन्हें छेड़ कर ग्लानी भी महसूस न करे?)
  • स्त्रियों पर बढ़ते अपराधों से. (जो उनके मुताबिक इसलिये हैं क्योंकि स्त्रियां बुरकापरस्त नहीं हैं. क्या इसमें भी उन कमीने पुरुषों का दोष नहीं है जो अपराध करते हैं?)

इन अपराधों को रोकने के लिये स्त्रियों को मर्यादा में रहना चाहिये.

  • - घर से बाहर कम निकले वह.
  • - कैरियर न बनाये वह.
  • - बुर्का/साड़ी या जिस लिबास में उन्हें स्त्रीत्व की रक्षा दिखे, पहने वह.
  • - हद में रहकर बात करना सीखे वह.

जो यह बाते करते हैं वह अहमक हैं या मक्कार?

- सड़क पर चलते हुये एक आदमी को रोज कुछ बदमाश लूट लेते हैं. एक दिन वह आजिज आकर थाने जाता है और शिकायत करता है. थानेदार उसे पकड़ कर लॉकअप में बंद कर देता है जिससे वह सड़क पर चले ही न कि बदमाश उसे लूट सकें.

सोचिये जब आप लुटें तो बदमाशों कि जगह आपको थाने में डाल दिया जाये.

जो यह बाते करते हैं वह अहमक हैं या मक्कार?

क्या टीवी, मैग्ज़ीन, सड़क, आफिस पर स्त्रियों के exploitation में उन्हें पुरुषों का कमीनापन नजर नहीं आता?

क्यों सुधारना चाहते हैं वह स्त्रियों को, क्यों नहीं सुधारना चाहते वह पुरुषों को?

टार्गेट कुछ और है, निशाना कुछ और
नारी की बदलती स्त्री का आंकलन ये अहमक/मक्कार कम कपड़ों और अपराधों से ही क्यों करते हैं?

  • क्या उन्हें आज की नारी ज्यादा शिक्षित व समझदार नहीं दिखती या यह ही असली खतरा है जिससे वो परेशान हैं?
  • क्या उन्हें आज की नारी आर्थिक रूप से ज्यादा स्वतंत्र नहीं दिखती या यह ही असली खतरा है जिससे वो परेशान हैं?
  • क्या उन्हें यह नहीं दिखता की आज कि नारी पुरुषों की bullshit स्वीकारने के लिये कम मजबूर है या यह ही असली खतरा है जिससे वो परेशान हैं?

इस तरह के पुरुष अहमक/मक्कार ही नहीं ढोंगी भी हैं, क्योंकि यह कहते हैं कि हम नारियों के लिये लड़ रहे हैं, लेकिन असल में यह चाहते हैं कि इनका कब्जा बना रहे, ठीक उस अंग्रेज बटालियन कि तरह जो अंग्रेज सरकार भारतीय राजाओं के खर्चे पर उन्हीं की सुरक्षा के लिये स्थापित करती थी.

न जाने कब तक आधी-आबादी इन अहमकों/मक्कारों+ढोंगियों को झेलने के लिये शापित रहेगी.