मेरा दिल लरज रहा है. अभी-अभी माओवादी मासूमियत की कौशल गाथा पढ़ कर चुका हूं. मासूम, भोले, प्यारे, बेचारे नक्सली भूख से इतने बेहाल हैं कि छुरी-कांटों से लैस होकर (बंदूक तो वहां थी नहीं! कहते हैं कुछ खास लोग) ट्रेनों की पैन्टृी कार लूट रहे हैं.
मजबूरी की हद क्या होती है? जब 150-200 लोगों की भीड़ को एक साथ मिलकर ट्रेन रुका-रुकाकर कंबल और पैन्टृी कारें लूटनी पड़ें तो यह मजबूरी की हद नहीं, बेहद है.
लेकिन कितनी डिग्नीफाइड मजबूरी है: ट्रेन पर ग्राफिटी पोत-पात के, एक अदद पैन्ट्री कार लूट-लाट के, दो-तीन मुसाफिरों को सूत-सात के ही तसल्ली को प्राप्त हुई.
किसी को गोली नहीं मारी, ट्रेन जलाई नहीं… तारीफ! तारीफ! पुल बंधने ही चाहिये. बांध रहें है हमारे महान वामपंथी कर्मठ. इन पुलों से होकर एक क्रांति की गाड़ी चलेगी जो भूखे ट्रेन-पैन्ट्री-कार-लूटकों को खाना मुहैया करायेगी.
वैसे मजबूरी जो न कराये! पहले भी मजबूरियत के चलते नक्सलियों को क्या नहीं करना पड़ा, कुछ बानगी देखिये:
- 2008 में नयागढ़ में पुलिस अस्त्रागार पर हमला और लगभग 1100 बंदूको, Ak-57, कारतूसों की लूट. (ये भी खायेंगे!)
- 2008 में ही छत्तीसगढ़ में 131 नागरिक, 63 सुरक्षा कर्मी, 14 पुलिस आफिसर की हत्या. इलेक्शन के दौरान ही 20 सुरक्षा कर्मियों की हत्या.
- 2008 में ही झारखंड में नक्सलियों ने 400 से ज्यादा लूटपाट की वारदातें कीं. 250 से ऊपर लोगों की हत्या की गई.
- 2009 में पूरे लालगढ़ को भूखे नक्सलियों ने अपने कब्जे में ले लिया बाद में सेना ने छुड़ाया.
- इसी साल नक्सली हिंसा ने नये प्रतिमान छुये, कई नये प्रदेश इसकी गिरफ्त में.
नक्सलियों के भोलेपन की एक और उदाहरण दिया इनके एक नेता किशनजी ने, यह खुला चैलेन्ज दिया कि 2011 तक वह कलकत्ता में नक्सली संघर्ष शुरु करवा देगा.
नक्सली भूख भोजन नहीं, सत्ता की है
नक्सली नेताओं ने भूख को भुनाने का पुराना फार्मूला बस उपयोग भर ही किया है. इसके नाम पर चार-छ: क्रांती ये दूसरे देशों में करा चुके हैं. वहां के बड़े-बड़े पैलेसों में इनके नेता अब माल उड़ा रहे हैं लेकिन लोग अभी भी भूखें हैं. क्या है कोई नक्सली जो इस सच्चाई को भी झुठला सके?
नक्सली कहते हैं – जहां हक न मिले वहां लूट सही, जहां सच न चले, वहां झूठ सही
हक कि जो लड़ाई है उसे और भी रास्ते हैं लड़ने के. मौके इन्हें भी मिले है हक दिलाने के. मत भूलो कि नक्सलियों का गढ़ उसी प्रदेश में है जहां पिछले बीस साल से माओ के चेले ही काबिज हैं. क्यों है वही प्रदेश देश के सबसे भूखे, गरीब, अशि़क्षित प्रदेशों में?
जो बंदर-बांट नेता कर रहे हैं उसे रोकने का रास्ता इन्हें लोकतंत्र में नहीं दिखता. इन्हें नहीं दिखता कि नेता बदले जा सकते हैं.
इन्हें क्रांति का एक ही रास्ता पता है – क्रांति जो बंदूक की नली से निकले (माओ उवाच), लेकिन यह क्रांति भी सिर्फ सत्ताधारियों की जेबों में होगी, गरीब फिर भी लुटेगा for the pigs will be no different than the humans.
इन झूठों, प्रपंचकारियों, मक्कारों को भूखों की आवाज समझेंगे हम?
Reference:
http://www.ipcs.org/pdf_file/issue/IB93-Kujur-Naxal.pdf
http://en.wikipedia.org/wiki/Naxalite