Tuesday, September 30, 2008

अरे! ये महान वाम-पथ के चैंपियन

कम्युनिस्टों की बातें सुनकर एक अजीब सी उत्तेजना होती है. हां, वो दुनिया भी क्या होगी जहां सब बराबर हों. न कोई अमीर हो, न गरीब, हर साधन पर हर व्यक्ति का समान हक हो. कितनी प्यारी होगी वह दुनिया? और किसकी जिम्मेदारी है ऐसी दुनिया बनाना? आइये उनसे मिलें:

Fidel Castro1

1. फिडेल कास्ट्रो
अमेरिकी छाती पर 1959 से मूंग दल रहे हैं यह. अमेरिकी जमीन से कुछ ही दूर इनका देश है क्यूबा, जहां हर बच्चे को पैदा होते ही पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से नफरत, और अपने नेता फिडेल कास्ट्रो से प्यार सिखाया जाता है.

आये तो थे जिन्दगी पर सभी को बराबर का हक दिलाने. लेकिन 1959 से कुर्सी पर ऐसे बैठे कि उठने का मन फिर नहीं बना. महंगे सिगार पीते हुये सोचते रहे कि किस तरह गरीबों को उनका हक दिलाया जाये. समाधान ढूढंते-ढुंढ़ते बुढ़ा गये तो सत्ता अपने छोटे भाई को दे दी. बिल्कुल लालू यादव की तरह आखिर और कौन होगा उनके जितना जिम्मेदार?

अब शायद कुछ साल इनके भाई रॉल ये कठिन जिम्मेदारी संभालें. जब थक जायेंगे तो यकीनन उनके बाल-बेटे होंगे जिसे यह कठिन जिम्मेदारी वो सौंप पायें.

Robert Mugabe

2. रॉबर्ट मुगाबे
वो महान नेता जिसने गोरों के खिलाफ जिम्बाब्वे में हल्ला बोलकर तहलका मचा दिया, गोरों को खदेड़ दिया तो खुशी के मारे जनता ने इन्हें राष्ट्रपति बना दिया. काम इनको पसंद आ गया. 1980 से शौक फर्मा रहे हैं. बीच में तीन-चार बार नाम के चुनाव भी करवा चुके हैं. अपने दुश्मनों पर बहुत मेहरबान रहे हैं, कहते हैं कि कइयों को उनके बनाने वालों से मिलवा चुके हैं.

अब ये भी बूढ़े हो गये, आखिर बहुत सालों तक जनता को साम्यवाद बांटा है, थक भी गये. पुराने दोस्त अब उतारू हैं कि साहब को आराम करायें, और आगे समानता का अलख खुद जगायें.

hugo-chavez

3. ह्यूगो चावेज
बड़े मुखर वक्ता है. पूंजीवाद की हर बुराई का भरपूर ज्ञान है जिसे वक्त-बेवक्त बांटते रहते हैं. 1998 से वेनेजुयेला के राष्ट्रपति हैं. 1992 में सशस्त्र सत्ता-पलट में असफल रहे थे. पार्टी बनाकर चुनावी पलटी मार दी. साम्यवाद पर इतना भरोसा है कि मजदूर युनियनों के चुनाव भी राज्य के देख-रेख में कराते रहे हैं.

अभी जवान हैं, सिर्फ 10 साल हुये हैं सत्ता में. आगे इनमें बहुत संभावनायें हैं, कम-से-कम 30-35 साल और सत्ता में रहकर पूरी दुनिया के मजदूरों को एक करेंगे.

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4. माओ जेडोंग
वाम मार्गियों के लिये परम-पिता परमेश्वर से थोड़ा ही उपर रहे. इन्होंने चीन जैसे बड़े देश से पूंजीवाद का इस कदर नाश किया कि बाद में चीन अमेरिका के लिये most preferred investment destination बन गया. इन्होंने गांव के लोगों को गांव में, और शहर के लोगों को शहर में ही रखने का फरमान जारी किया. सभी की भलाई चाहते थे, इसलिये पूछने की जरुरत भी नहीं समझी कि कौन कहां रहना चाहता है.

बाद में इन्होंनें अपने देश को 'बड़ी ऊंची छलांग' (Great Leap Forward) लगवाई, जिसमें लोगों को अपनी खेती-बाड़ी छोड़कर सरकारी बेगार के लिये मजबूर करके पूंजीवादियों द्वारा मजबूर होने से बचा लिया. आज भी आधुनिक चीन तक में उनके सिखाये पाठ पढ़े चीनी नेता मजदूरों को खुद शोषित करके साम्राज्यवादियों द्वारा शोषित होने से बचाते हैं.

Monday, September 29, 2008

खाक चुनौती हैं मुसलमान साम्राज्यवाद के लिये.

साम्राज्यवाद - Imperialism. साम्राज्य - Empire. साम्राज्यवादी राज्य एक ऐसा राज्य जिसका उद्देश्य अपने साम्राज्य, या राज्य का विस्तार हो. कुछ लोगों को यह भ्रांति है कि मुसलमान साम्राज्यवाद के लिये अंतिम या इकलौती चुनौती हैं.

यह जो कथित पश्चिमी साम्राज्यवाद है, उसमें भी मुस्लिम हिस्सेदारी है.

आइये समझे की किस हद तक कुछ मुस्लिम राष्ट्र, और संस्थायें न सिर्फ इस साम्राज्यवाद की में शामिल हैं, बल्कि इसकी पोषक भी हैं.

इस समय दुनिया में अगर कोई देश है जो यह दावा करता है कि वो इस्लाम के उस रूप को मानता है जो शरियत में दर्शाया है, वो है सउदी अरब, जहां मक्का है.

मुसलमानों के लिये इस पवित्र देश में सबसे बड़ी मात्रा में जिस तत्व का उत्पादन और निर्यात किया जाता है, वह है तेल. इस तेल के बल पर विश्व की अर्थ-व्यवस्था चलती है.

तेल का सबसे बड़ा आयातक दुनिया का कथित तौर पर सबसे बड़ा साम्राज्यवादी देश - अमेरिका है. सउदी अरब के शासक शेख तेल का निर्यात करके डालरों का आयात करते हैं. लेकिन यह डालर सउद बैंको में पड़े नहीं रहते, इनका निवेश किया जाता है. कहां? क्या किसी मुस्लिम देश में (हां जरूर, आखिर विश्व के आतंकवाद का सबसे बड़ा फाइनेन्सर भी सउद ही है)? नहीं, इस पैसे को लगाया जाता है और पैसा बनाने के लिये.

जिस अमेरिकी अर्थव्यवस्था के बारे में दावा किया जा रहा है कि वो साम्राज्यवादी है उसमें सउद अपनी सारी आय का 60% निवेश करते हैं, 30% यूरोप में किया जाता है, और 10% बाकी दुनिया में.

सउदी डालरों का ही प्रताप है कि अमेरिकी कंपनियों के पास किसी भी उद्यम के लिये पैसे की कमी नहीं. अमेरिका में होने वाले कुल सलाना निवेश का 35% सउदी अरब से आता है, यह हिस्सेदारी किसी भी और देश से ज्यादा है. सउदी अरब के $860 अरब अमेरिका में निवेशित हैं (जो की अमेरिकी अर्थव्यवस्था का 6‍% है). और बहुत सारी बड़ी कंपनियां जिन्हें आप अमेरिकी मान बैठे हैं (और जो यकीनन साम्राज्यवादी लगेंगी) असल में अब सउदी अरब की हैं. कुछ कंपनियां जिनमें सउदी अरब ने बहुत बड़ा निवेश किया है - Apple computers, AOL, News Corp, Saks Inc. अमेरिकी बैंक Citibank (याद रखिये यह इस्लामिक बैंकिग के खिलाफ बैंकिग करती है) में भी अबु-धाबी के शेख अल-वालिद का majority stake है.

मतलब बहुत सारी 'साम्राज्यवादी' कंपनियां जिन्हें आप अमेरिकी मान बैठे हैं, असल में अपने मुसलमान आकाओं का ही साम्राज्यवाद फैला रहीं हैं.

साथ ही यह न भूलें की कथित साम्राज्यवादी अमेरिका की तरह इन सउदी देशों में भी दौलत कुछ ही हाथों में फंसी है. यहां के राज परिवारों पर आरोप है कि इन्होंने लगभग $800 अरब देश से बाहर छुपा रखा है.

इन देशों में एक तिहाई से आधी जनसंख्या बेरोजगार है. इन्हीं का ध्यान अपने द्वारा बनाई गई समस्याओं से हटाने के लिये सउदी राजनीतिज्ञ शोषण-शोषण चिल्ला कर आतंकवाद को हर-संभव मदद पहुंचा रहे हैं. साफ बात है, जिस भी व्यक्ति में क्रांति पैदा करने की ताकत और हिम्मत हो, उसे आतंकवादी बना कर देश से बाहर एक फालतू के डर से लड़ने भेज दो. अब देश में जो बच गया, उस पर सउद राजा आसानी से शासन कर लेंगे.

साम्राज्यवाद सिर्फ सउदी अरब के मुसलमान ही नहीं फैला रहे, दुबई में तो हालात इससे भी बदतर हैं. दुबई कि कंपनियां सारे विश्व में मशहूर है अपने न्याय विरोधी तरीकों के लिये. इनका लक्ष्य कुछ भी करके कान्ट्रेक्ट हासिल करना रहा है, और मौका मिलने पर यह लोगों को बेवकूफ बनाने की हर संभव कोशिश करती हैं.

अभी थोड़े ही दिनों पहले दुबई की एक कंपनी Emaar MGF ने भारत में पब्लिक इश्यु निकाला. इसे स्टॉक बूम का फायदा उठाने के लिये इतना महंगा रखा गया कि यह इस कंपनी की parent company की कुल कीमत से भी बड़ा रहता. लेकिन भारतीय निवेशक बेवकूफ नहीं बने, और यह असफल रहा.

बाकी कौन से मुस्लिम देश बचे? विश्व का सबसे बड़ा मुस्लिम देश - Indonesia. यहां का सलेम ग्रुप भी भारत-भूमि पर वाम-मार्गियों से सांठ-गांठ करके बहुत सी उपजाऊ भूमि हथिया चुका है जिसका विरोध भी हुआ है. यहां पूरी तरह से मार्केट अर्थ-व्यवस्था हैं.

मलेशिया में मुस्लिम बहुल आबादी की एक ही आकांक्षा है, उनसे अमीर चीनी व्यापारियों को खदेड़ कर व्यापार पर कब्जा करना. चीनियों को तो दमदार चीन की वजह से नहीं दबा पाये, लेकिन भारतियों को एकदम साम्राज्यवादी तरीकों से कुचल रखा है. (कुछ ही दिन पहले भारतीयों से विरोध का भी हक छीन लिया गया, याद कीजिये वो खबरें जिसमें अत्याचार विरोधियों को आतंकवादी बताया गया).

***

असल में यह भूल भोले लोग करते हैं फिलिस्तीन, अफगानिस्तान, इराक आदी को देखकर.

सच तो यह है कि उक्त सारे देश साम्राज्यवाद से नहीं, अमेरिका, या पश्चिम से लड़ रहे हैं. इसलिये नहीं की इनको साम्राज्यवाद से कोई परेशानी है, बल्कि इसलिये की सिक्का इनका नहीं चल रहा. (इराक तो खासा साम्रज्यवादी रहा है, और इरान भी -- इन देशों के आपसी, और कुवैत से होने वाले युद्ध याद करें)

जो एकाध देश छूट गये उन पर दया कीजिये, उनके लिये साम्राज्यवाद विरोधी होने के अलावा कोई चारा नहीं, क्योंकि उनके पास तो खाने-पीने की ही समस्या है. मतलब अगर वो साम्राज्यवादी होने का दावा करते तो बात यूं रहती - जेब में नहीं दाने, अम्मां चली भुनाने.

क्या अब भी आप इस सपने में जी रहें हैं कि मुसलमान साम्राज्यवाद के लिये अंतिम चुनौती हैं?

Friday, September 26, 2008

क्या क्रिश्चियन आतंकवाद भी कभी था

अमेरिकन लोगों में यह बात प्रचलित है कि उनकी सरकार को नये-नये terms गढ़ने का शौक है, जैसे collateral damage, ऐसी ही एक देन है islamic terror, मतलब आतंकवाद को धार्मिक जामा पहनाना.

यह बहुत सुविधाजनक उपाय है. किसी भी कौम के खिलाफ नफरत भरने का. लोगों की जबान पर शब्द चढ़ा दीजिये, और धीरे-धीरे उनकी सोच भी वही बन जायेगी. इसी बात के बारे में जार्ज आर्वेल ने अपनी किताब 1984 लिखी थी.

लेकिन अगर आतंकवाद धार्मिक हो, तो christian terror इस्लामिक आतंकवाद से कुछ कम टेरेराइज़िंग नहीं था. आइये शुरुआत करें बाइबिल की कुछ आयतों से.

1. Ezekiel 9:6 "Slay utterly old and young, both maids, and little children, and women . . ."

2. Isaiah 13:16 "Their children also shall be dashed to pieces before their eyes; their houses shall be spoiled, and their wives ravished."

3. They entered into a covenant to seek the Lord, the God of their fathers, with all their heart and soul; and everyone who would not seek the Lord, the God of Israel, was to be put to death, whether small or great, whether man or woman. (2 Chronicles 15:12-13 NAB)

4. Suppose a man or woman among you, in one of your towns that the LORD your God is giving you, has done evil in the sight of the LORD your God and has violated the covenant by serving other gods or by worshiping the sun, the moon, or any of the forces of heaven, which I have strictly forbidden. When you hear about it, investigate the matter thoroughly. If it is true that this detestable thing has been done in Israel, then that man or woman must be taken to the gates of the town and stoned to death. (Deuteronomy 17:2-5 NLT)


ये सारी लाइनें बाइबिल के संस्करणों से हैं. यह सिर्फ तीन या तीस नहीं हैं. अगर आप उन लाइनों की पूरी सूची देखना चाहते हैं जो इन्सानियत के खिलाफ हैं तो इस पन्ने पर जाइये - http://www.evilbible.com/

क्रिश्चियन धर्म के कुछ पोप धार्मिक क्रूरता के मामले में ओसामा से भी मीलों आगे रहे हैं. ओसामा तो सिर्फ एक घटना में 5 हजार लोगों की हत्या कर सका लेकिन क्रिश्चियनों के जेहाद की एक बानगी यह देखिये : -

अर्नाड ने पोप Innocent III (innocent मतलब निर्दोष?) को लिखा
"आज के दिन, ऐ पुण्यात्मा, बीस हजार काफिरों (heretics) को तलवार के घाट उतारा. बिना परवाह किये स्थिति, उम्र, या लिंग के."

रोम के कैथोलिक चर्च ने हर उस उपाय का उपयोग किया जिससे दूसरे धर्मों का नाश, और स्वधर्म का प्रसार हो सके. चाहे वह हों: -

1. धार्मिक जेहाद (Crusades)
2. दूसरे मत वालों की हत्या (Trials & burning of heretics en masse)
3. धर्म की रुढ़ीयों को न मानने वालों की हत्या (Death of Galileo & Socrates, and millions others)


कहते हैं कि हिटलर द्वारा यहूदियों के संहार को मिलाकर कई करोड़ लोग क्रिश्चियन चर्च की धार्मिक हिंसा का शिकार हुए. यह संख्या कोई छोटी-मोटी नहीं है. इन हत्याओं में चर्च की सहमति, उसका आदेश, और प्रोत्साहन था. धर्म के नाम पर कत्ल करना पोप के कथनानुसार सबाब दिलवाता था, जिससे निश्चित ही स्वर्ग में जगह मिलती.

उस समय चर्च की स्थिती राजा से भी शक्तिशाली थी. और धार्मिक सत्ताधारी पोप और उसके गुर्गे आज के कुछ इमामों और मौलवियों की तरह लोगों को भड़काकर कुछ भी करवा लेते थे.

यीसू ने अपना खून बहाकर हम सबको बचा लिया. यह कहता है क्रिश्चियन धर्म. एक ऐसा मसीह जो इस कदर दया से भरा थी कि खुद जान दी इन्सानों के लिये. ऐसे धर्म के मानने वाले सबका खून बहाने में लगे थे.

तो फिर जो चर्च पहले पूरे समाज को हत्या के लिये उकसा पाता था, आज ऐसा क्यों नहीं कर पाता?

दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना.

क्रिश्चियन धर्म में बदलाव दूसरे धर्म के लोगों की समझाइश, या जोर आजमाइश से नहीं, उसी धर्म के भीतर पैदा होने वाले समझदार लोगों की वजह से हुआ.

कैथोलिक चर्च के खूनी खेल की वजह से बहुत सारे क्रिश्चियन वहां से अलग होने लगे, और नये समुदाय गठित होते रहे. इनमें से कूछ का तो कैथोलिक चर्च के द्वारा समूल नाश भी किया गया. लेकिन प्रोटेस्टेंट मजबूत हो गये, साथ ही राज्य जब समझ गया की चर्च के रहते राजा के पास पृर्णाधिकार नहीं है, तो उसने चर्च को राज्य से अलग करने की मुहिम चलाई.

परिणाम स्वरूप आज चर्च दया और प्रेम की बात करता है. जब साइंसदां कहते हैं कि सूर्य पृथ्वी के नहीं, पृथ्वी सूर्य के चारों और घूमती है, तो उनके जलाने के बजाय बाइबिल में सुधार की बाते करता है.

यह कैसा बदलाव, कैसा अबाउट टर्न आया?

***

आज जो लोग 'इस्लामिक आतंकवाद' डर रहे हैं उन्हें भी पता चले की इतिहास खुद को दोहरा रहा है.

जो कट्टरपंथी हैं इस्लाम के, उनका इलाज इस्लाम के ही बुद्धजीवी, इस्लाम के moderates, इस्लाम के heroes के पास ही है.

अगर christian terrorism काबू में आ सकता है, तो islamic terrorism भी.

आप सड़ें चाहे गलें, लेकिन अगर हमारा साथ छोड़ा, तो मिटा देंगे

हिन्दू धर्म की रक्षा हेतू निकल पड़े हैं तेजोमय वीर. ओत-प्रोत है वो भग्वद-भक्ती के भाव में. माने बैठें है खुद को श्रीकृष्णावतार जो संकल्पित है धर्म की ग्लानी और अधर्म के अभ्युत्थान को रोकने के लिये. निकल पड़े है ले-ले लट्ठ, पेट्रोल, तमंचा, चाकू धर्मांतरण के खिलाफ.

बांके वीर, जिनकी छवि देखते ही बने.

धर्मांतरण के खिलाफ इस हिंसक घटनाओं को सिर्फ हालिया घटनाओं का प्रतिफल समझ लेना गलती होगी. यह परिणाम है धर्म के ठेकेदारों की लंबी मुहिम का जिसमें बेकार बैठें हुये नौजवानों को brain-wash करके इस्तेमाल किया जा रहा है. (यही कुछ मौलवी भी कर रहे हैं, और पादरी भी). क्रिस्तानी नक्सलियों द्वारा हिंदू साधू का कत्ल तो बहाना मात्र था इस योजना पर अमली जामा पहनाने का.

बहुत सही खेल है यह. हर धर्म का ठेकेदार जुटा है इसमें कि कहीं लोग धार्मिक रूढ़ियां तोड़ कर आजाद न हो जायें.

***

किस भी व्यक्ति को अगवा करना गलत है. उसे अपनी मर्जी के बिना आचरण के लिये मजबूर करना गलत है. यह सरकारी नहीं, इन्सानी कानून की बात है. तो फिर किस बिना पर किसी भी व्यक्ति को कोई भी धर्म छोड़ कर दूसरा धर्म अपनाने से रोका जा सकता है?

ये बांके वीर जो धर्मांतरण के खिलाफ चर्च फूंकने में लगे है, क्या आपके उसी परम-पिता परमेश्वर के आदेश पर ऐसा कर रहे हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि वह हर मानव का कल्याण चाहता है?

***

किसी भी चर्च को जलाने से पहले.
किसी भी नव-क्रिस्तानी को सताने से पहले.
किसी भी किस्तानी पादरी को धार्मिक प्रचार से रोकने से पहले.

हम ये क्यों नहीं सोचते कि क्यों धर्म परिवर्तन करते हैं लोग.

क्या देते हैं यह पादरी उस परिवार को जो चला जाता है 'येसू मसीह' की शरण में?
क्यों धुंधले पड़ जाते है आपके पीढ़ीयों के संस्कार?
क्यों लोग छोड़ने को तैयार हो जाते हैं अपने उस समाज, और परिवार को जिसमें से निकाला जाना बहुत बड़ी सजा है?

जवाब है -
एक बेहतर कल.

इस देश में सारी प्रशासनिक सेवाओं, व्यापार, व नौकरियों में हिन्दू ही भरे हैं. देश के बड़े अमीरों में भी अधिसंख्य हिन्दू हैं. फिर भी हिन्दुओं को 'पैसे, और शिक्षा' के द्वारा अपने धर्म के प्रसार करने वाले क्रिस्तानी संगठनों से खतरा महसूस होता है?

क्या हिन्दू धार्मिक संगठन सिर्फ मंदिर और मूर्ति ही बना सकते हैं?
क्या पुजारी-पंडे सिर्फ भजन, श्लोक और दक्षिणा ही जानते हैं?

जिन्हें चर्च के स्कूलों से डर लगता है, उन्होंने गुरुकुलों को क्यों नष्ट होने दिया?
क्या इस्तेमाल होता है उन करोंड़ो अरबों रुपयों का जो हर साल छोटे बड़े मंदिरों में दान के स्वरूप आते हैं?
क्या यह रकम चर्च के हिन्दुस्तान के सलाना बजट से कम है?

तो फिर क्यों चर्च के स्कूल ज्यादा हैं?
क्यों उनकी कल्याणकारी संस्थान ज्यादा हैं?
क्यों वो बेहतर तरीके से खुद को प्रचारित प्रसारित कर पाते हैं?


जो हिंदू 200 करोड़ का मंदिर बनवा कर गौरवान्वित महसूस करते हैं, वो देखें की उसके बगल में दो कमरों का स्कूल भी नहीं. लेकिन हर दो-कमरे के चर्च के साथ दस कमरों का स्कूल बनाया जाता है.

कैसे करेंगे आप उनसे मुकाबला?

***

धार्मिक कदाचारी वह नहीं हैं जो धर्म परिवर्तन करवा रहे हैं, या वह जो कर रहे हैं.

धार्मिक कदाचारी वह हैं जो अपने धर्म की कमजोरियों (जो नींव है इस समस्या का) की जगह सतही समाधान में जुटे हैं.

ये अपने मकसद में तो क्या सफल होंगे, बस इस देश के देशवासियों को थोड़ा और अलग-थलग कर देंगे.

Thursday, September 25, 2008

'नरेन्दर मोदी को अगर सजा मिल गया होता, तो आज टरेरिस्ट बने हैं जो नौजवान... वो नहीं होता'

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सरकार किनकी धर-पकड़ कर रही है? काहे का पोटा, और काहे का सुरक्षा बल, इस पूरी समस्या का हल तो लालू प्रसाद यादव ने बता दिया है. सीधे नरेन्द्र मोदी को पकड़ कर फांसी पर चढ़ा दो, आतंकवाद की समस्या हल है जी!

शीर्षक के उद्गार लालू प्रसाद ने जी-टीवी को दी गई अपनी बाइट में कहे हैं. मौका था जस्टिस नानावटी के छ: साली जांच की शुरुआती रपट का. जिसमें बताया गया है कि उस घटना के लिये नरेन्द्र मोदी नहीं, गोधरा का ही एक मौलवी जिम्मेदार है. 140 लीटर पैट्रोल खरीदा गया था उन मर्दों, औरतों और बच्चों को जिंदा जलाने के लिये. क्या कूवत थी उस आग में. इतनी सही जगह लगी की पूरा गुजरात जल उठा.

बहरहाल बात करें लालू के 'नरेन्दर मोदी' की. क्या बात कही है बिहारी बाबू ने. नाहक मोहन चन्द्र शर्मा ने जान गवायीं आतंकवादियों को पकड़ने में. कह देते - नहीं भाई, आप तो नरेन्द्र मोदी को पकड़िये, सारे आतंकवादी खुद ही आत्म समर्पण कर देंगे.

लालू जैसे देशहित के चिंतक हैं हमारे देश में, जो मामले की तह तक जाते हैं. ये अदालतें, पुलिस, जांच एजेंसियां सब बेबात हैं. दुख है कि लालू रेल मंत्री हुये, गृह मंत्री न हुये. वरना अब तक करवा देते 'नरेन्दर मोदी' का एनकाउन्टर की लाओ, टंटा ही समेटें.

कृपा है लालू जी की इन 'नौजवानों' का इलाज उन्होंने बता दिया. अब आप सबसे पढ़ने वालों से विनती है कि जरा लालू जी से अपील करिये कि ये भी बता दें की कश्मीर में जो 'नौजवान' आतंकवाद में लगे हैं, उन्हें सही राह पर लाने के लिये किसको सजा 'मिलना' चाहिये. किसे चढ़ायें फांसी पर? अटल बिहारी को? आडवाणी को?

***

मन की कड़वाहट शब्दों से क्या बयां कर पाऊंगा. कौन से शब्द लाऊं, कहां से लाऊं जो उस घृणा, उस वितृष्णा, उस बेचारगी, उस कसक को बयां करें जो इस समय महसूस हो रही है.

***

पता नहीं नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में क्या किया. पता नहीं कितना दोषी है वह. बस यह पता है कि इस तरह आतंकवादियों के कृत्यों का औचित्य निकाल कर उन्हें शह देना दर्दनाक है.

Tuesday, September 23, 2008

सुनिये पुण्य प्रसून बाजपेयी से मुठभेड़ का आंखों देखा हाल

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"और उसने जिसे मोबाइल से फोन किया खून से लथपथ इंसपेक्टर शर्मा थे..जो सिग्नल का इंतजार कर रहे थे। जिन्होंने दरवाजा खुलते ही गोलियां दागी । और उन लडकों ने भी गोलिया दागीं ।" (लेख यहां है)

ये किसी बौराये हुये आतंकवाद समर्थक की कल्पना नहीं है, यह है एक बेहद जिम्मेदार कहे जाने वाले पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी का चित्रण, उस घटना का जिसने दिल्ली को अंदर तक हिला दिया.

पुण्य प्रसून को दिल के किसी कोने में विश्वास है कि वो पुलिस वाला जो मारा गया दरवाजा खुलते ही गोलिया चला रहा था. लेकिन वो जिसने 35 आतंकवादियों को मारा, घुस गया गोलियां चलाते हुआ बिना बुलेटप्रूफ वेस्ट के (जिसका साथ शायद ही कोई एनकाउंटर के लिये जाने वाला आफिसर छोड़े), और कैसा कच्चा निशानेबाज निकला की हर वार चूका, और खुद ही गोलियों का शिकार हुआ.

उन भोले लड़कों की गोलियां का जो 'होनहार' विद्यार्थी थे, और जिनके साथियों के समर्थन में एक विश्वविद्यालय का वाइस-चांसलर खड़ा है.

पुण्य प्रसून को विश्वास है कि पुलिस का हर आदमी कमीना है, क्योंकि वो आने-जाने वाले लोगों को रोकते हैं. उनसे सवाल करते हैं.

उन्हें शौक है न सवाल करने का? घर में लेट के खटिया तोड़ने से बेहतर उन्हें बारिश-गर्मी-सर्दी-रात में राह किनारे खड़े होकर आने-जाने लोगों को परेशान करना लगता है. पुण्य प्रसून के लेख से साफ है कि वो चाहते हैं कि राहगीरों से सवाल न किये जायें. किसी को रोका न जाये.

क्यों इतने सारे पुलिस वाले खड़े हैं जामिया नगर में? सब घर जायें.  आराम करें. यकीनन वो पुलिस वाले भी यही चाहते होंगे.

उस घर का दरवाजा खटखटाते वक्त मोहन चन्द्र शर्मा शायद जानता होगा कि अन्दर से जो गोलियां बरसेगीं, वो लेमनचूस की नहीं होंगी, बंदूक की होंगी. फिर भी उसने खटखटाया वो दरवाजा, क्योंकि उसे शौक था गोलियां का सामना करने का. और उसे शौक था मरने के बाद अपनी फजीहत उन पत्रकारों से कराने का जिन्हें क्रिमिनल्स पास बिठाकर, कोला पिलाकर, फोटो खिंचाकर, इंटरव्यू देते हैं.

पुण्य प्रसून कश्मीर के शोपायां इलाके में हो आये, पूरी तरह सेना के प्रोटेक्शन में. और भी दस जगह हो आये होंगे. उन्हें क्या मुश्किल? आतंकवादी भी उन्हें कहवा पिलायेंगे, कि चलो अपना ये यार अपना नाम करेगा चैनल पर. मुश्किल है उस बाशिंदे की जो किसी बड़े चैनल से जुड़ा नहीं. जिसको रोजाना रिजक कमानी है उसी बाजार में जिस में बम फटा.

उसे तो अच्छे लगते होंगे वो पुलिस वाले जो खड़े हैं हर मुश्किल सह कर, कि आगे कोई बम न फूटे, आगे निर्दोष न मरें.

पुण्य प्रसून का क्या? उनका काम तो बम फटने के बाद शुरु होना है न?

तो फिर धर्मांतरण भी जायज है

क्या इन्सान के जीवन की सबसे बड़ी जिम्मेदारी अपने मजहब को मौलवीयों और पंडो के बनाये हुये standards पर चला कर दिखाने की है? नहीं, बिला शक नहीं. किसी भी मानव की सबसे बड़ी जिम्मेदारी खुद को, अपने परिवार को, और अपने देश के प्रति है. उसकी जिम्मेदारी है खुद को अपने परिवार को, और देश को इज्जत की existence देना. उनके लिये बेहतर भविष्य का निर्माण करना.

लेकिन आज के समाज में धर्म को इतना ऊंचा दर्जा दे दिया गया है कि इस पर सब कुछ कुर्बान है. ऐसे समाज में जब धर्मांतरण का मुद्दा उठता है तो कुछ लोगों का खून खौल उठता है, और वो सब होने लगता है जिसकी इजाजत किसी धर्म में नहीं.

आइये, इस बाबत कुछ सवाल पूछें जायें.

1 - कोई भी व्यक्ति धर्म न बदले यह उसका चुनाव है. इसी तरह जो व्यक्ति धर्म बदले वह उसका चुनाव है, तो उसे किस बिना पर रोका जाये?
2 - उसे रोकने से पहले इस बात की खोज क्यों न की जाये की धर्मांतरण क्यों चुना?
3 - जो लोग प्रलोभन के चलते धर्म बदलने को तैयार हो, निश्चित ही उन्हें अपने खुदा पर यकीन नहीं. तो ऐसे लोगों कि इस धर्म को क्या जरुरत है?
4 - क्या उस धर्म में ऐसा कुछ होगा जिसकी वजह से किसी व्यक्ति को लगे की धर्म बदल लेना चाहिये?

हां, चौथा सवाल सबसे सामयिक है. क्या है उस धर्म की कमजोरियां जिनकी वजह से कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन चुनेगा.

अ. अगर उस धर्म में जाती प्रथा हो जिसकी वजह से किसी तबके को लगातार हेय समझा जाये तो क्या वह तबका धर्म नहीं छोड़ना चाहेगा?
आ. अगर वह धर्म व्यक्ति को वह सब न दे जिसकी उसे जरुरत है (शिक्षा, अच्छी जिन्दगी, संतोष), और सिर्फ ढकोसले में ही डूबा रहे तो क्यों वह धर्म नहीं बदले?
इ. अगर उस धर्म में अतंर्कलह हो, जो उस धर्म को कमजोर करे, तो कैसे रोका जाये धर्मांतरण?

जब कभी धर्मांतरण होता दिखे तो क्यों न हम दूसरे तरीके से सोचें -- क्यों न हम सोचें की ऐसा क्या था जो उस व्यक्ति को हमारा या आपका धर्म खराब दिखा जो वह दूसरे धर्म में गया. क्यों न हम सोचें की हम धर्म में जनकल्याण कैसे सम्मिलित करें जिससे दूसरे धर्मों के व्यक्तियों को लगे कि इस धर्म में जाना है?

अगर इस धर्म के लोगों को धर्मांतरण रोकना है तो पहले कुछ संकल्प करें

-- जाती छोड़िये (यह जाती प्रथा में विश्वास न करने से बड़ा कदम है)
-- धर्म का उद्देश्य पंडा-मौलवी कल्य़ाण नहीं, जन कल्याण को बनाइये
-- हर धार्मिक स्थल के साथ स्कूल का निर्माण करिये
-- यह अपेक्षा न करिये की जिनका आपका समाज शोषण कर रहा है, वह आपका साथ दे.
-- धर्म को जीवन का लक्ष्य नहीं, हिस्सा बनाइये.

या इससे भी अच्छा रहेगा:

इन्सान बनें, धार्मिक नहीं. धर्म छोड़िये.

Monday, September 22, 2008

जब सब कुछ साफ-साफ दिखे, तो अंधेरे में तीर चलाने की जिद क्यों?

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जब बात देश से जुड़े मुद्दों की आती है, तो कुछ लोग क्रियटेविटी (रचनाशीलता) की हर हद पार कर जाते हैं. अपने पूर्वाग्रह और छुपे एजेंडे को सही साबित करने के लिये वो किसी भी सच को झूठ बना सकते हैं.

सच बड़ा delicate होता है. एक खरोंच भी उसकी खूबसूरती नष्ट कर देती है. बहुत आसान है सच को नुक्सान पहुंचाना, बस थोड़े विश्वसनीय से सुनाई देने वाले बेवकूफी के प्रश्न उठा दिये जायें. साथ ही एकाध जुमला जोड़ दिया जाये मानवहित, या ऐसे ही किसी उंचे आदर्श का. बेशक आप उस आदर्श से कोसों दूर हों.

ऐसी कुत्सित बातें किसी की शहादत को भी धूमिल कर देती हैं.

जैसे मोहन चन्द्र शर्मा के साथ किया जा रहा है. जिन लोगों के गले आतंकवाद का सच नहीं उतर रहा, वो लगे हैं अपना कलुषित एजेंडा लागू करने. इसलिये मोहन चन्द्र शर्मा के लिये कहा जा रहा है कि उनकी हत्या आतंकवादियों ने नहीं, उन्हीं के साथियों ने की. इसलिये नहीं कि मोहन चन्द्र शर्मा को इन्साफ दिलाना है, बल्कि इसलिये की वो कैसे भी करके उन आतंकियों कि घिनौनेपन को भोलेपन की चादर से ढांप सकें.

इसलिये दरकिनार कर दिया जाता है उस गवाही को जिसके दम पर हत्यारे सैफ का स्केच बना. इन अंधो को वो असला, वो शूटिंग नहीं दिखी जो उस दिन वहां घटित हुई, उन्हें दिखे आतंकियों के मां-बाप जो कसमें ले रहे थे कि उनके बच्चे तो बछड़े थे, जो सिर्फ घास को ही नुक्सान पहुंचा सकते थे.

क्यों ये घृणित एजेंडे वाले घृ्णित लोग मानव व्यवहार के बारे में ऐसी नासमझी दिखाते हैं? कौन से ऐसे मां-बाप हैं जो कहेंगे कि हां, हमने भरा अपने बच्चों के दिल में धार्मिक पूर्वाग्रह, हमने बताया हर मोड़ पर उन्हें की दूसरे धर्म वालों से हम नफरत करते हैं, डरते हैं उनसे, और उनकी संस्कृति हेय लगती है हमें.

और अगर आपको लगता है कि मां-बाप ऐसा नहीं करते, तो आप मूढ़ होने का नाटक कर रहे हैं. क्योंकि कोई भी इतना मूढ़ नहीं हो सकता.

अगर इसी तरह हर शाहादत पर शक पैदा किया जाता रहा, आतंकवाद के खिलाफ हर कदम को धर्म से जोड़ा जाता रहा, और मजहब के नाम पर आतंकवादियों को शह देनें की कोशिश की जाती रही तो आतंकवाद इस समाज के ऐसे दो फाड़ करेगा जो आपस में कभी नहीं मिलेंगे, ठीक नदी के दो किनारों की तरह.

आप जो तीर अंधेरे में चला रहे हैं... आपको नहीं दिखता, लेकिन निशाने पर आप ही का सीना है.

Saturday, September 20, 2008

भुला दो ये बाइबल, ये कुरान, ये गीता, ये पुराण #2

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ये भी भूलने की बात नहीं कि ज्यादातर धर्म जिनकी आज बड़ी हैसियत है, पिछले तीन-चार हजार सालों के अंदर बनाये गये. हिन्दू धर्म भी इसका अपवाद नहीं, चाहे इसके मानने वाले इसे कितना ही पुराना मानें, किंतु पिछले चार हजार सालों में ही इसने वह संगठित (organized) स्वरूप प्राप्त किया जिसमें यह आज है.

यह वक्त इन्सानी सभ्यता में एक महत्वपूर्ण बदलाव का था. इस समय तक इन्सान खेती की कला अच्छी तरह सीख चुका था, और उसका बसेरा जंगलो की जगह गांवो में होने लगा था.

लगता है कि जो फुर्सत इन्सान को काम-काज और अपने बचाव से मिली, उसका इस्तेमाल नई-नई इजादों को लाने में किया, और शायद इन्हीं सब इजादों के बीच उसने खुदा के नये स्वरूप की भी इजाद कर डाली.

अब गौर करें की खुदा का जन्म कैसे हुआ

1. खुदा डर के समय अनजान सहारे की ख्वाहिश थी
बहुत उम्दा ख्याल है. जब आप मुसीबत में हो तब कोई सुपरमैन आपको बचा लेगा. खुदा का जन्म ऐसे ही हुआ होगा. एक तूफानी रात को अपना घर बचाने किसी बशर ने किसी अनजान खुदा से अर्ज की होगी की बारिश रोक दे. फिर तो ये परिपाटी चल निकली होगी, और हर मर्ज की दवा दुआ बन गई होगी.

2. खुदा डर भी था
उस समय शायद वक्त को भी खुदा की ख्वाहिश थी. कमजोर लोगों की लाठी था खुदा, और मजबूतों के लिये डर. एक ऐसी हस्ती जो सबसे जोरदार हो, जिसकी निगाह सब पर हो, जिससे कोई गुनाह छिपा न हो, जो सबका फैसला करे.

जब कानून का सहारा न हो, तो खुदा का डर ही जालिमों को फिक्रमन्द करता होगा.

3. और ईनाम भी
वह वक्त ऐसा था जब मानव कुदरत से ज्यादा ताकतवतर साबित हो रहा था. कुदरत उस समय अपनी दुश्मन नहीं, अपने लिये ईनाम लगने लगी, और इस ईनाम को अता करने का श्रेय भी खुदा को दे दिया गया.

यह तो जायज ही है, आखिरकार सजा की जिम्मेदारी भी खुदा की थी तो गिजा भी वह ही क्यों न दे.

क्रमश: (अगली किश्त में जारी)

नोट: आप सबके कमेन्ट्स का शुक्रिया. आपका रिसपोन्स उम्मीद से ज्यादा सकारात्मक रहा. क्योंकि यहां तो यह हालत है कि धर्म में अगर पांखड के भी खिलाफ कुछ कहा जाये तो मोर्चा खुल जाता है.

बहरहाल, यह मुहिम जारी रहेगी.

Friday, September 19, 2008

शहीदों की उम्र कम होती है पर जिंदगी बड़ी

दिल्ली पुलिस के इन्सपेक्टर मोहन चन्द्र शर्मा आज आतंकवादियों से मुकाबला करते हुये शहीद हो गये. वो इस एनकाउन्टर को आगे से लीड कर रहे थे, आतंकियों की संख्या और असले की फिक्र करे बिना भिड़ गये, और चार गोलियों झेलीं.

इस जाबांज सिपाही ने अब तक 35 आतंकवादियों को ढेर किया, और 85 आतंकियों को कानून के हाथों तक पहुंचाया. इनके बारे में कहते थे कि इन्हें आतंकियों को पकड़ने में महारत है.

ऐसे शानदार आफिसर का जाना दिल्ली और देश के लिये बड़ा दुख है.

हमीं जांनिसार हैं हिन्द के, हमीं दिलफिगार हैं हिन्द के
हमें पास महरो-वफा का है, उन्हें जान दे के दिखा दिया
(खलीक)

इन्हें नमन.

कुछ ज्यादा कह नहीं पा रहा. शब्द नहीं मिलते.

भुला दो ये बाइबल, ये कुरान, ये गीता, ये पुराण #1

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अपने मनोहारी अतीत के मुगालते में हम उन बुर्जुआ विचारकों की लीद ढो रहे हैं जो बर्बरता से सिर्फ दो सीढ़ी ऊपर थे. उनकी याद में हम जाति, सम्प्रदाय, रंग, धर्म और न जाने किस-किस पर भेद कर लेते हैं.

फिलहाल दुनिया की सबसे बड़ी परेशानी धर्म है. दुनिया भर का हर धार्मिक व्यक्ति को पूरी तरह विश्वास है कि उसका धर्म ही आखिरी सत्य है और विश्व के बाकी 500-करोड़ बाशिंदे सीधे दोजख/नर्क/Hell/Your version में जाने वाले हैं.

सभी को विश्चास है कि दुनिया को परमात्मा के उनके संस्करण ने बनाया, और सभी मनुष्यों का रचेयता वो शक्तिशाली खुदा सभी मनुष्यों का फैसला करेगा.

लेकिन कोई धर्म हो, दुनिया के अधिसंख्य लोग उसके विधर्मी होंगे. फिर क्या मजाक है वह परमात्मा जिसपर दुनिया के ज्यादातर लोगों को यकीन नहीं?

कोई साधारण बुद्धी रखने वाला मनुष्य भी थोड़ा सोच-विचार कर इस असलियत को समझ सकता है. फिर क्या कारण है इस अंध-विश्वास का?

1. हम हैं खुदा की भेड़ें/गैयां
हर धर्म का जोर है निश्शंक भरोसे (unquestioning faith) पर. आपको आदेश है ईश्वर की भेड़े बनने का, जिन्हें जहां मर्जी हो धर्म के ठेकेदार हांक ले जायें. जहां आपने सवाल किया आप काफिर, हेरेटिक, धर्मच्युत, और न जाने क्या-क्या हो जायेंगे. जब-जब सवाल पैदा होता है, तब-तब धार्मिक ठेकेदार धर्मांध मूढ़ों द्वारा दमन करवाते हैं (आगे के लेखों में जानेंगे इसके उदाहरण).

सबसे पहले तो धर्म पर शंका करो, खुदा पर शंका करो, पूज्य किताबों पर शंका करो.

2. बचपन से ब्रेनवाश
हर बच्चा खुला (या खाली) दिमाग लेकर पैदा होता है. उसमें आप जो रंग भर दें वही खिल उठेगा. किसी को यीशू पर यकीन दिलाया, तो किसी को मुहम्मद पर, बाकी जो बचे राम, कृष्ण, शिव और न जाने कितनों में बंट गये. सबको बचपन से सिखाया कि खुदा है, बैठा है आपके सरों पर, इनसे डर के रहना! तो सब ने कर लिया विश्वास. बड़े होकर अपने बच्चों के सामने भी दोहरा दिया.

बचपन से चूहा दिखाकर किसी को कहा जाये कि बेटा यह हाथी है, तो वह बच्चा उसे हाथी ही कहेगा, चूहा नहीं. और जब बड़ा होकर कोई अनजाना उसे कहेगा कि ये तो चूहा है तो बच्चा चौंक उठेगा, सहसा विश्वास नहीं करेगा. जब 10-15 लोग यही बात दोहरायेंगे तब समझेगा कि परिवार वालों ने उसका पप्पु बना दिया.

यही हाल धर्म का है. फर्क इतना है कि आस-पास के सभी लोगों का पप्पु बन चुका है, और कोई यह बताने वाला नहीं कि जिसे तुम हाथी समझे बैठे हो, वह तो चूहा है. एकाध जो आवाजें उठतीं हैं वो 'हाथी! हाथी!' चिल्लाने वालों में दब जातीं हैं.

पप्पा ने बताया इसलिये पप्पु मत बनो. शक करो, क्योंकि वो भी इन्सान हैं, उनसे गलती हो सकती है.

क्रमश : (आगे कि किश्त में जारी)

Wednesday, September 17, 2008

एक सच्चा मुसलमान ऐसा नहीं लिख सकता

आल इंडिया शिया काउंसिल के प्रमुख मौलाना जहीर अब्बास रिजवी ने कहा कि ब्लास्ट वाली जो ई-मेल चैनलों को भेजी गयी वो नकली है, क्योंकि उसमेम लिखा है - 'बिस्मिल्ला रहेमान रहीम', और एक सच्चा मुसलमान इस पवित्र वाक्य को लिखते समय गलती नहीं. कर सकता.

बहुत माकूल दलील दी है मौलाना साहिब ने. एक सच्चा मुसलमान 'बिस्मिल्लाह-अर-रहमान-अर-रहीम' को लिखने में गलती नहीं कर सकता. लेकिन क्या एक अध-पढ़, धर्मांध, मूढ़, जिसे खुदा नहीं समझाया गया, सिर्फ दहशत समझाई गयी है यह गलती कर सकता है?

कातिब की भूलों पर भी माजरत की तलब 
उनकी इंसानियत के क्या कहने

आसिम की हिमायत, खुदा का लेके नाम  
वो भोली हिकमतों के क्या कहने
(विश्व)

अच्छा लगता अगर जहीर साहिब ने इसकी जगह यह कहा होता कि एक 'सच्चा मुसलमान' बम विस्फोट जैसा अपवित्र काम नहीं कर सकता.

अगर उन्होंने आह्वान किया होता कौम का, और फतवा दिया होता कौम से उन खूनियों को निकालने का, ठीक उसी तरह जिस तरह फतवा दिया गया सलमान के अब्बा सलीम के खिलाफ, क्योंकि उनके यहां गणेश पूजा हुई.

किसी भी दुर्घटना के बाद धर्म के हाकिम (चाहे हिन्दू हों, या मुसलमान) हमेशा गलत संदेश ही क्यों भेजते हैं ?

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कातिब - लेखक
माजरत - मुआफी
आसिम - पापी
हिकमत - तरकीब

दीनो-धरम कुछ और नहीं, एक बुरी आदत हैं

अगर किसी बच्चे का खुदा से तआरुफ न कराया जाये, तो उसके लिये परमात्मा नाम की किसी चीज का वजूद भी नहीं रहेगा. वो जियेगा अपनी जिन्दगी, आजाद, बिना जाने की दोजख क्या होती है, और स्वर्ग क्या. पुल-सिरात के नाम से भी उसका दिल नहीं दहलेगा.

दीन-धरम कुछ और नहीं एक बुरी आदत है जो हमारा परिवार हमें विरासत में दे जाता है, कि लो बेट्टे, अब झेलो खुदा की खुदाई. रोजाना सुबह उठकर जनेऊ डालकर घंटा बजाओ, दिन में पांच बार अपने घुटनों पर जोर आजमाइश करो, और अगर फिर भी सेहत बांकी न हो तो खुदा के नाम पर महीने भर का व्रत करो. और होना क्या हासिल है? पंडिज्जी का कहना है कलजुग में वैसे भी सभीने नर्क में जाना है.

एक बात याद रखने वाली है, धर्म और खुदा के अस्तित्व कर किसी को यकीं नहीं. सभी दिल ही दिल में इस झूठ की असलियत समझ रहे हैं, वह भी जो हाजी बने बैठें हैं, और वह भी जिन्होंने 12 तीरथ कर रखे हैं. वरना सच मानिये, अगर परमात्मा पर जिसे जरा सा भी यकीन है, क्या वो कोई भी ऐसा काम कर सकता है जिससे खुदा नाराज हो?

अगर आप झूठ बोल सकते हैं, छोटी-मोटी बेईमानी कर सकते हैं तो समझ जाईये की आप भी इस enlightened समाज का हिस्सा हैं जो भगवान की सच्चाई जान चुके हैं.

लेकिन फिर भी हमारे समाज में लोग धार्मिक होने का ऐसा भीषण स्वांग क्यों रचे बैठे हैं?

जवाब है - आदत.

-- बचपन में देखा की मम्मी-डैडी दो पैरों पर चल रहे हैं. मम्मी ने कहा, बेट्टा घुटनों पर नहीं पैरों पर चलो. बस चलना सीखा और तब से दो पैरों पर ही चल रहे हैं, और सही मान बैठे हैं.

-- थोड़ा बड़ा हुये तो स्कूल जाने लगे. पप्पाजी ने रस्ते में हनुमान मंदिर के सामने से गुजरते हुये कहा, मुन्ना हनुमान जी को नमस्कार करो, हमने कर दिया. इसी तरह अब्बाजी के साथ में मज्जिद में जाकर दुआ भी मांग आये. करत-करत अभ्यास यकीन हो गया की खुदा बैठा है कहीं ऊपर, ले तराजू बांट अपने इंतजार में, कि ये आये तो बेट्टाजी का हिसाब करुं.

असलियत में इन्सान की बेसिक फितरत धार्मिक होने की नहीं. लेकिन जिन भाई लोगों ने धर्म और भगवान का आविष्कार किया, उन्होंने कुछ को पटाकर, और बाकियों को डराकर खुदा का नाम बढ़ा दिया, और बस सदियों के लिये अपना उल्लू चला लिया.

और हां, ये भाई लोग बड़े चंट चिलाक हैं. इन्हें खूब समझ है कि परमात्मा के विचार भर से काम नहीं चलने का, अगर लोगों को गुलाम बनाना है तो इस विचार को जीवन का उतना ही अभिन्न अंग बनाना होगा जितना की पोट्टी जाना. इसलिये दुनिया भर के कर्मकाण्ड रच डाले, जिसको लोगों ने बिना सोचे समझे इतनी बार किया की बन गये आदत.

अगर आप तस्बीह या माला फेर-फेर कर बौरा गये हैं, और सोच रहे हैं कि अब तो मेरी सीट पक्की सुरग में, क्योंकि मैं लिये बैठा हूं 1000348 बार श्री राधेकिशन जी का नाम, तो भैया आप वही माल हो जिसके भरोसे मौलवी और पंडत अपनी-अपनी दुकानें खोले बैठें हैं.

एक बार भगवान से की तहे-दिल से शिकायत
या खुदा, तुझे दिन-रात मैंने पूजा
तेरी शान में कसीदे पढ़े, तेरे नाम जपता रहा
लेकिन तूने कभी पलट के खबर न ली
तकते-तकते तेरी बांट अब मेरा समय गुजर गया
अब आने को हूं तेरे पास, पूछूंगा तुझसे खुद
खुदा, तू इतना संग-दिल क्यों निकला

पता नहीं वो खुदा था, ये मेरी पिनक-ए-अफीम
लेकिन जो सुना वो बयां करता हूं
खुदा ने कहा, बेटा रामपरसाद, तू सही कहे है
तू बड़ा भकत है मेरा, ये ले टोकन, लाईन में आजा
तेरे जैसे और भी लगे हैं यहां आगे तुझसे
बारी-बारी से सभी को निपटा रहा हूं

मैंने टोकन पर लिखा नम्बर देखा - 1354853489
सच ही कहा है किसी ने, मैं बुदबुदाया
खुदा के घर देर है, अंधेर नहीं

दूसरे दिन पड़ोसी ने कहा
चच्चच... बड़ा धार्मिक बंदा था बेचारा

Tuesday, September 16, 2008

क्यों भारत सरकार फैसले की घड़ी पर हमेशा खुद को असहाय पाती है ?

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हर तस्वीर के दो पहलू होते हैं, एक दिखाने के लिये, और दूसरा छिपाने के लिये. राजनीतिज्ञ से ज्यादा perception की महत्ता कोई और नहीं समझता, इसलिए इनके लिये करने से ज्यादा जरूरी है दिखाना की हम कर रहे हैं.

सच्चाई ये है  कि अगर कोई राजनीतिज्ञ दिखावे से ऊपर उठकर अपनी विचारधारा, या बताई हुईं नीतियां लागू करने पर आ जाये तो शर्तिया वो राजनीति में कुछ ही रोज़ का मेहमान रहेगा.

इसलिये आपकी-हमारी सरकार चिल्लाती रहेगी - हम कर रहे हैं-हम कर रहें हैं, लेकिन एक भी असरदार कदम आपको नहीं दिखेगा.

आज dissect करते हैं कि ऐसा है, तो क्यों.

1. विविधता वाले जनतंत्र में हर मत के लिये पर्याप्त विरोध मौजूद है.

पूंजीवादी, समाजवादी, माओवादी, नस्लवादी, राष्ट्रवादी, मानवतावादी, ... हर तरह के वादी के लिये इस देश में पर्याप्त जगह है. क्योंकि इस देश में इतनी विविधता है, कि हर रंग, हर ढंग के लोग और विचार हैं यहां.

इसलिये पूरे देश के लिये समान नीति बनाना असंभव सी बात हो जाती है. मुद्दा चाहे हेल्मेट पहनने जैसी छोटी सी बात का हो, वैट जैसे वित्तिय प्रावाधानों, या फिर मकोका जैसे अपराध-निरोधी कानून, पूरे देश में हर नीति के विरोधी हैं, और विरोधी भी प्रबल और अधि-संख्यी, जिन्हें दबाना या समझाना मुश्किल हो.

साथ ही जब भी कोई नीती या मुद्दा उठता है, अवसरवादी लोग उसपर अपनी रोटियां सेंकने आ जाते हैं. इसलिये कोई आश्चर्य नहीं की आतंकवाद जैसे खतरनाक मुद्दों के साथ भी राजनीति चल रही है.

2. भारतीय सरकार का उद्देश्य राज्य नहीं, सरकार की रक्षा है

अजीब विडम्बना है कि वर्तमान भारत सरकार परमाणू करार जैसे अमुद्दे पर गिरने को तैयार है, लेकिन आतंकवाद जैसे बड़े खतरे का मुकाबला करने के लिये अप्रिय निर्णय लेने को तैयार नहीं.

इसका कारण यह है कि हमारी सरकार का उद्देश्य राज्य नहीं, अपने राज की रक्षा करना है. अपने वोट बटोरने के लिए कुछ पार्टियों ने मुस्लिम वर्ग को लगातार मुख्य धारा से अलग रखने के लिये कुटिल चालें चलीं और कामयाब रही.

एक पूरे वर्ग को programmed paranoia का शिकार बनाया गया ताकी उन्हें अपने मतलबानुसार वोट देने पर बाध्य किया जा सके. लेकिन इस paranoia का प्रभाव ये राजनीतिक दल भी नियंत्रण में नहीं रख पाये और उन्हें इस शक्तिशाली वोटबैंक का बंधुआ बनना पड़ा.

इसलिये अब सरकार परमाणू परिक्षण के नाम पर गिरना स्वीकार कर सकती है, क्योंकि कांग्रेस को पता है कि उसके वापस आने की संभावनायें बनीं रहेंगी, लेकिन अगर वो अपने मुख्य वोट बैंक को अगर वे नाराज करते हैं तो उनके वापस आने की कोई संभावना नहीं. इसलिये आतंकवादियों के खिलाफ उस स्तर के combing operations नहीं होते जिनकी जरुरत है.

3. राजनेता की योग्यता कर्मवीरता नहीं वाकवीरता से नापी जाती है

किसी कार्यालय के निचले स्तर के कर्मचारियों तक की भर्ती में योग्यता मापी जाती है. देखा जाता है कि व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों का कितनी अच्छी तरह से निर्वाह कर पाता है. लेकिन राजनेताओं की योग्यता मापने का कोई मानदंड नहीं है.

ज्यादातर कोई व्यक्ति राजनेता इसलिये बनता है क्योंकि वो किसी खास जाती, समुदाय, परिवार का है, वाक्पटु है, या अपने समाज में किसी कारण से लोकप्रिय है. इस बात का ख्याल नहीं रखा जाता की सामने वाला राजकर्म में कितना कुशल है. इसलिये आज व्यापारी पैसों के बल पर, गुंडे बाहुबल पर, और फिल्मी कलाकार अपनी प्रसिद्धी के बल पर राजनेता बन रहे हैं.

यह लोग जब सरकार में जाते हैं तो राज्यकर्म में खुद को असहाय पाते हैं. या तो यह फैसला नहीं ले पाते, गलत फैसला लेते हैं, या अगर फैसला सही भी हो तो उसे कार्यान्वित नहीं कर पाते.

4. राजनैतिक पार्टियां काम करने वाले नहीं, चुनकर आने वालों को टिकट देती हैं.

यह लोकशाही की बुनियादी असफलता है कि उसके चुने गये राजकर्मियों की सफलता का मानदंड उनके द्वारा लागू नीतियों के कल्याणकारी प्रभाव नहीं, बलकि लोकप्रियता है. इसलिये कोई भी ऐसा फैसला कैसे लिया जाये जो लोकहित में हो, लेकिन लोकप्रिय नहीं?

अगर कोई राजनेता अपने कार्य का अच्छी तरह से निर्वाह करेगा तो कम-से-कम short-term में तो वो बहुत से लोगों को नाराज़ कर देगा, और उसका दोबारा चुनकर आना संदिग्ध हो जायेगा. इसलिये पार्टियां ऐसे उम्मीदवार चुनती हैं जो काम चाहे न करें, लेकिन लोगों को यकीन दिला दें की वो उनके भले में लगे हैं.

कौम के गम में खाते हैं डिनर हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत है, मगर आराम के साथ

देने दिलासा उनको, जो बम से खूनो-ख्वार हुये 
नई पोशाक में आयेंगे, दुख तमाम के साथ
(विश्व)

Monday, September 15, 2008

बदलाव कैसे आता है # 1 - उस काली औरत ने बस के पीछे वाली सीट पर बैठने से इंकार कर दिया

rosa किसी वर्ग को पूरी तरह दबाने के लिये जरूरी है उसका आत्मसम्मान खत्म कर देना. जब अपने लिये खुद के दिल में ही सम्मान न हो तो बहुत मुश्किल है किसी दूसरे के हाथों अपना अपमान रोकना.

ऐसे माहौल में बदलाव की उम्मीद भी महंगी जान पड़ती है. लोग सोचते हैं बदलाव के लिये भीड़ इकट्ठी करनी पड़ेगी, भाषण देने होंगे, जुलूस निकालने होंगे. लेकिन बदलाव के बीज तो इस सबसे बहुत पहले बोये जाते हैं. जिस तरह रोसा पार्क्स ने बोये.

अमेरिका में रंगभेद के दौर में रोसा का जन्म हुआ. जब उत्तर में तो काले व्यक्तियों को उनके कुछ हक मिलने लगे थे, लेकिन दक्षिण के कुछ प्रांत अब भी काले व्यक्तियों को बराबर का इन्सान मानने को तैयार न थे.

दिसंबर 1, 1955 की सुबह अलबामा में बस से सफर करते हुये रोसा ने बस के आगे वाली सीट एक गोरे के लिये खाली कर पीछे की तरफ बैठने से इंकार कर दिया जो कि कानून के अनुसार काले व्यक्तियों के लिये जरूरी था.

इस पोलीसि को अमेरिका के दक्षिणी प्रांतो में नाम दिया गया था "बराबरी, लेकिन अलग". याद करिये ओर्वैल की एनिमल फार्म - "All animals are equal, but some animals are more equal than others."

यह घातक वार था दक्षिण की अलगवादी नीति पर, और इस घटना के बाद बसों का बायकाट का आंदोलन शुरु हुआ. वह संघर्ष पूरे एक साल चला. बाद में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया कि काले व्यक्तियों को बस के पीछे वाली सीटों पर बैठने को विवश करना गलत है.

इस तरह रोसा और काले लोगों ने जीता बस के आगे की तरफ बैठने का अधिकार.

जाद:-ए-हुब्बे-वतन (देशप्रेम) में पेंचो-खम का खून क्या
चलने वाला चाहिये, यह राह कुछ मुश्किल नहीं

(सुखदेव प्रसाद)

क्या बजरंग दल/विहिप इंडियन मुजाहिदीन जैसे हैं ?

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कुछ वक्फ़ा पहले जब सिमि पर से प्रतिबंध हटाने का विरोध हुआ, और नये सिरे से प्रतिबंध लगाने के लिये आंदोलन चालू हुआ तो कुछ राजनीतिक पार्टियों ने इसका विरोध किया. उनके अनुसार सिमि पर से प्रतिबंध हटना चाहिये. इनमें शामिल हैं - लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मुलायम सिंह, व कांग्रेस.

दलीलें कई दी गयीं, लेकिन सबसे हास्यास्पद बात थी यह मांग की सिमि पर प्रतिबंध है तो बजरंग दल व विहिप पर भी लगना चाहिये. आइये, आज इसी मांग का dissection करें.

- एक बार प्रभु ने रामधन से कहा 'मांग जो तुझे चाहिये, बस शर्त इतनी के तेरे पड़ोसी को उससे दुगुना मिलेगा'. रामधन सोच कर बोला, 'प्रभू मेरी एक आंख फोड़ दो'.

लालू, मुलायम, रामविलास सिमी पर प्रतिबंध लगवाने के लिये तैयार हैं, बशर्ते विहिप और बजरंग दल पर लग जाये. वाह री राजनीति!

- सउदी धर्म के किसी मौलाना के भाषण में सुना (Documentary : Radical Islam) कि अमेरिकी और बाकी विश्व उसका तेल ले रहा है, और सउदी अरब की हर तकलीफ के जिम्मेदार वो हैं, यहां तक की वहां होने वाले अपराधों का भी.

नेता चाहे यहां के हो, या वहां के, जानते हैं कि जनता को अच्छी जिंदगी न दे सकें तो एक मुद्दा थमा देना चाहिये. इसलिये लालू-पार्टी मुसलमानों के उत्थान के लिये चाहे कुछ करे-न-करे, बजरंग दल के मुद्दे को उछाल कर उनका भावनात्मक शोषण तो कर ही रही है.

-अगर कभी दाउद हिन्दुस्तान की गिरफ्त में आया तो कहेगा, 'मुझे पकड़ने से पहले छोटा राजन को पकड़ो, वरना मुझे भी खुला छोड़ दो.'

साफ बात है, कांग्रेस-लालू पार्टी को कई सौ लोगों की जान लेने की जिम्मेदार इंडियन मुजाहिद्दीन (सिमी भी कह सकते हैं) पर नकेल तभी स्वीकार है जब पहले बजरंग-दल और विहिप पर नकेल कस चुकी हो.

- भेड़िये को पकड़ने से पहले मरखने बकरे का फैसला करेगी यह सरकार.

ये तो सभी मानते हैं कि बजरंग दल वाले कोई महान कार्य नहीं कर रहे, लेकिन उनकी सिमी से तुलना उनका मूल्यांकन उन्हें एक बहुत अलग स्तर पर ले जाना है.

बजरंग दल की तरह की गतिविधियां करने वाली तो न जाने कितने छोटे-मोटे इस्लामिक संगठन हैं जिन पर प्रतिबंध की तो मांग भी नहीं उठी है (परिप्रेक्ष्य तस्लीमा के खिलाफ गतिविधियां).

बजरंगीयों में शैतानियत कम, बेवकूफी ज्यादा है, लेकिन सिमी और उसका इंडियन मुजाहिद्दीन खुले तौर पर शैतान की औलादें हैं.

तो फिर सिमी से बजरंग दल की तुलना क्यों करते हैं यह राजनेता?

- ताकी वो आपका अपनी अकर्मण्यता से ध्यान हटा सकें.

- ताकी वो मुस्लिम समाज को मुगालते में रख सकें की वो उनके हितचिन्तक हैं.

- ताकी वो अपने मुस्लिम वोट बैंक को बनाये रख पायें, और इसकी कीमत वो बम विस्फोटों में निर्दोष जानों से देने को तैयार हैं.

- ताकी वो अपने विरोधी पार्टियों, व दलों को बैकफुट पर ला सकें (If you don't have a defense, respond with an attack).

कोई भी स्टैन्ड दो ही कारणों से लिया जाता है

1. प्रबल विचार.
2. जाती फायदा.

यह सोचना मूर्खता है कि जो राजनीतिज्ञ सिमी पर प्रतिबंध का विरोध कर रहे थे वो अपने वैचारिक प्रतिबद्धता के चलते ऐसा कर रहे थे. क्योंकि लोगों की हत्या की प्रतिबद्धता तो सिर्फ आतंकियों की होगी, और यकीनन कोई भी नेता उस जमात में नहीं शामिल दिखना चाहेगा.

तो उन्होंने ऐसा क्यों किया इसका जवाब सिर्फ जाती फायदे वाले नुक्ते में ढूंढ़िये.

 अफक के पार भी नजारा है बहुत दूर तलक
तंग-चश्मों को मगर इल्म-ए-हकीकत क्यों हो
(विश्व)

- मुद्दआ जारी रहेगा.

और हां. बजरंग दल के साथ क्या होना चाहिये, आगे इसकी चर्चा भी होगी.

Sunday, September 14, 2008

हमने पोटा हटाया, मकोका नहीं क्योंकि वो पुराना था. और हां गुजरात के लिये मकोका जैसा नया कानून नहीं देंगे.

terror

अभिषेक मनु सिंघवी सावधान राजनेता हैं, वो चाहते हैं कि लोग उनका वही मतलब समझें जो वो कहना चाहते हैं. वो टेलिव्हिजन पर कहते हैं - "मुझे पूरा मौका दीजिये अपनी बात कहने का, क्योंकि बहुत सारे लोग देख रहे हैं, और वो भी अपना दिमाग इस्तेमाल करेंगे."

लेकिन लगता है कि अभिषेक मनु सिंघवी को अपनी ही बात पर भरोसा नहीं. नहीं तो वो समझ जाते की जो दलीलें उन्होंने दीं वो कितनी थोथी थीं.

राजनीति मुद्दे से ध्यान भटकाकर अमुद्दे पर ले जाने की कला है, और अरुण जेटली भी इसमें कम माहिर नहीं. दोनों शातिर खिलाड़ी लगे हैं सबको बेवकूफ बनाने.

- कांग्रेस आतंकवादी विरोधी कानून बनाने को तैयार नहीं.
- बीजेपी केन्द्र संचालित आतंकवाद निरोधक विभाग के लिये तैयार नहीं.

क्यों? क्यों? क्यों? क्यों?!!!!

कांग्रेस कहती है

- पोटा कानून के अंतर्गत मानवाधिकार उल्लंघन का रिकार्ड है.
1. आतंकवाद के अंतर्गत मानवाधिकार उल्लंघन नहीं होता? कुल कितनी जानें गईं  - अहमदाबाद विस्फोट, मुम्बई, बैंगलोर, दिल्ली. क्या पोटा में उससे ज्यादा लोगों के मानवाधिकार का उल्लंघन हुआ?

क्या देश के नागरिक मानव नहीं हैं?

2. मानवाधिकार का उल्लंघन कानून नहीं करता, कानून के कारिंदे करते हैं. मानवाधिकार का उल्लंघन दफा 300, 302, 320, 351, (आगे)... में भी किया जा सकता है, तो क्यों न आप देश के सारे कानून निरस्त करें?

देश में हर साल कितने लोगों की पुलिस कस्टडी में जान जाती है? क्या वो सब पोटा के अंतर्गत मरते हैं? या उनके मानवाधिकार पोटा बंदी के मानवाधिकारों से कम थे?

क्या जरुरत कानून से बचने की है या उसका सही इस्तेमाल पक्का करने की.

हां ? नहीं ?

- पोटा से क्या आतंकवादी घटनायें रुक गईं ? संसद पर फिर भी हमला हुआ.

कांग्रेस की इस दलील पर कुर्बान हो जाने का दिल करता है.

इतने सारे कानून हैं इस देश में. कत्ल के खिलाफ, चोरी के खिलाफ, ब्लात्कार के खिलाफ, फिर भी क्या यह सब अपराध रुके?

हटा दो! हर कानून मिटा दो! विनती है तुमसे.

अपराध का निर्मूलन कानून बनाने से कब हुआ है? अपराध का निर्मूलन कानून को सही लागू करने से होता है. लेकिन लागू करने वालों के हाथों में सही कानून होना चाहिये. क्या खाली हाथ हमारी सुरक्षा एजेंसियां बदकार आतंकवादियों से लड़ पायेंगी?

- पोटा के अंतर्गत अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया गया.

लेकिन कानून तो बनाया गया था आतंकवादियों को निशाना बनाने के लिये. तो क्यों न यह निश्चित किया गया कि जो निर्दोष हो (बहुसंख्यक समुदाय से, या अल्पसंख्यक समुदाय से) उसे बचाया जा सके.

दूसरी बात. लगभग सभी आतंकवादी अल्पसंख्यक समुदाय के ही हैं. उन्हें बड़े स्तर पर प्रोपोगेन्डा का इस्तेमाल कर देश व समाज के विरुद्ध ब्रेनवाश किया जा रहा है. जब लगभग हर आतंकवादी इसी समाज का हो, तो यह दलील देना बहुत आसान है कि इस अल्पसंख्यक समाज को निशाना बनाया जा रहा है, क्योंकि जो आतंकवादी मिलेगा, ज्यादातर मामलों में इसी समुदाय का होगा. तब क्या उसको गिरफ्तार न किया जाये?

क्या जो बचे-खुचे कानून हैं, उनमें अल्पसंख्यकों को गिरफ्तार न करने का प्रावाधान है, आरोप चाहे जो हो?

- गुजरात को मकोका जैसा कानून नहीं देंगे, क्योंकि गुजरात में उसका बेजा इस्तेमाल हो सकता है. महाराष्ट्र से मकोका नहीं हटायेंगे, क्योंकि वो पुराना है.

क्या हम सब देशवासी निर्बुद्धी हैं जिन्हें इस दलील के छेद दिखाई नहीं देंगे़?

गुजरात क्या देश का हिस्सा नहीं? या आतंकवाद गुजरात की समस्या नहीं? क्या केन्द्र सरकार को अहमदाबाद, अक्षरधाम, सूरत दिखाई नहीं देते? या फिर गुजराती मरें तो केन्द्र को फर्क नहीं पड़ता? तो क्यों न गुजरात को महाराष्ट्र की बराबरी का दर्जा देकर मकोका जैसा कानून दिया जाये?

या अगर ये ही मान लें कि मकोका इसलिये नहीं देना चाहिये क्योंकि उसका बेजा इस्तेमाल होगा तो फिर महाराष्ट्र में क्यों इस तरह का कानून है? वहां क्या इल्जाम नहीं लगे कि इस कानून का बेजा इस्तेमाल हो रहा है?  या क्योंकि महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार है तो वहां इसका बेजा इस्तेमाल इजाजत योग्य है?

अगर किसी कानून के गलत इस्तेमाल की संभावनायें हैं, इतनी कि उसे दूसरे राज्य में लागू करना सहीं नहीं माना जा रहा, तो क्या सिर्फ इस आधार पर उसे निरस्त न करना उचित है कि वह पुराना है?

अगर इस तर्क को उचित माना जाये तो फिर उन सारे कानूनों को निरस्त कैसे करा जा सकता था जिनका निर्माण अंग्रेजों ने देशवासियों का दमन करने के लिये किया था?

बीजेपी कहती है

- केन्द्रीय जांच एजेंसी से पहले पोटा जैसा कानून लाइये.

कांग्रेस आतंकवाद की जांच के लिये केन्द्रीय एजेन्सी बनाना चाहती है, लेकिन बीजेपी का कहना है कि समर्थन के लिये पोटा जैसा कानून लाइये.

एक तरफ तो अरुण जेटली का कहना है कि केन्द्रीय जांच बल की सोच आडवाणी की थी और उसके लिये तब कांग्रेस शासित प्रदेश तैयार नहीं थे. अब उसके शासित प्रदेश इसके निर्माण के लिये तैयार नहीं? निरी धांधली है यह.

क्या केन्द्रीय जांच ऐजेंसी का निर्माण सिर्फ इसलिये टलता रहे कि दोनों पार्टियां अपनी छिछली सौदेबाजी और बदला लेने की कार्यवाही में लगी हैं. क्या देशवासियों की जान इतनी सस्ती है?

बीजेपी को क्यों दिखाई नहीं देता की हर छोटा-से-छोटा कदम जिससे आतंकवादी कमजोर हो, देशहित में हैं, और इसको रोकने के बदले प्रोत्साहित करना चाहिये. क्या इस मुद्दे यह ओछापन देशद्रोह से कम है?

मैं कहता हूं

टूट जायेगी गुलामी की कड़ी दम भर में आप
हिन्दु-ओ-मुस्लिम के बस कंधा सटा देने के बाद
(माहिर)

ऐ हिन्दू, ऐ मुसलमान. उठ जाओ दीनो-धर्म से ऊपर.

सबसे बड़ा धर्म है इंसानियत, क्योंकि खुदा तक ने तुम्हें अकेला छोड़ दिया पाप-पुण्य के नाम पर मरने को और साथ दिया तो बस दूसरे इन्सानों ने.

आतंकवाद का उन्मूलन करने के लिये बात हो लिबर्टी की, फ्रीडम की, उम्मीद की, दीन की बिलकुल नहीं, धर्म की बिलकुल नहीं.

सबसे पहले तो हर देशवासी निश्चय करे की देश के खिलाफ किसी प्रकार का प्रोपोगेन्डा सुना न जाये, और इसके प्रसार को रोका जाये.

-- मुद्दआ जारी रहेगा.

निकोला टेस्ला - कौन था वो जिससे एडिसन डरता था?

tesla आधुनिक जगत की ज्यादातर सहुलियतें दो सदी पहले हुई खोजों, आविष्कारों पर आधारित हैं. उस सदी के महानायक थे एडिसन और आइन्सटाइन. लेकिन एक और भी था जिसका नाम किताबों में नहीं मिलता, पर जिसका योगदान इनसे कम न था. वो था निकोला टेस्ला. रशियन मूल का एक लंबा, पतला नौजवान जिसके आविष्कार हमारे साथ हैं, लेकिन नाम नहीं.

 

यह हैं टेस्ला की कुछ खोजें

1. AC बिजली.
2. टेस्ला वेव्स (Electric waves)
3. बिजली से चलने वाली मोटर. (जिस पर बिजली की हर चीज आधारित है.)
4. वायरलेस संचार.
5. रोबोटिक्स, रिमोट कंट्रोल, राडार.

टेस्ला की उपलब्धियां एडिसन और आइन्सटाइन से कम नहीं थीं. लेकिन इस चुपचाप रहने वाले रूसी आदमी में वो चुंबकीय आकर्षण नहीं था जो उनमें था. टेस्ला विज्ञान को समझता था, पर सामाजिक व्यवहार को नहीं. इसलिये वो कभी भी उस कीर्ति को प्राप्त नहीं कर पाया जो एडिसन को मिली.

एडिसन से उसकी दुश्मनी पूरे विज्ञान जगत में चर्चा की विषय थी. हालंकि उसने एडीसन के लिये काम भी किया. कहते हैं कि एडिसन ने एक बार टेस्ला से कहा कि अगर वो ऐसा बिजली स्त्रोत बना पाये जिससे बिजली को बड़े स्तर पर पैदा कर जन-जन तक पहुंचाया जा सके तो वल टेस्ला को दस हजार डालर देगा.

टेस्ला ने AC current की खोज कर ऐसा कर दिखाया, लेकिन एडिसन अपने वादे से मुकर गया. गुस्से में टेस्ला ने एडिसन का साथ छोड़ दिया.

वो समय था एडिसन के DC current का टेस्ला के AC current से लड़ाई का. एडिसन ने AC current का डर पैदा करने के लिये हर संसाधन का इस्तेमाल किया. यहां तक की एक हाथी को जनता के सामने करंट से मारकर AC current की नष्टकारी शक्ति से डराया. लेकिन हर घर में बिजली सिर्फ AC current से पहुंच सकती थी, और टेस्ला जीत गया.

बाद के दिनों में टेस्ला के कुछ प्रयोग असफल रहे, जिससे वह अवसाद ग्रसित हो गया. उसने बाहर के लोगों से मिलना कम कर दिया, और अपनी बाकी जिन्दगी में बहुत से ऐसे आविष्कार और खोजें की जिनसे लोग चमत्कृत हुये, लेकिन आविष्कारक का नाम मशहूर नहीं हुआ.

टेस्ला ने नोबेल प्राइज जीता, और भी बहुत सारे देशों में बहुत से सम्मान मिले उसे, लेकिन इतिहास में सही जगह से वंचित रहा.

क्यों टेस्ला नदारद है उन पाठ्य पुस्तकों में से जिनमें उससे कम योगदान करने वाले का जिक्र है? टेस्ला क्यों भुला दिया गया?

क्या आप टेस्ला को याद रख पायेंगे?

Saturday, September 13, 2008

ये मत कहो कि शब्दों की अहमियत नहीं

मुझे समझ नहीं आता क्यों लोग कहते हैं कि बातों की अहमियत नहीं. इस समय तो सबसे बड़ा काम होगा लोगों को जगाना, और शामिल करना इस प्रक्रिया में. उन्हें बताना क्या कारगर होगा इस देश के लिये, हमारे लिये. कुछ ऐसा जो राजनीति को दोबारा विश्वसनीय बना सके, वो जो नेता शब्द को सम्माननीय बना सके.

मत कहों कि बातों की अहमियत नहीं.

'तुम मुझे खून दो. मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा.' - सिर्फ बातें?'

'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो' - सिर्फ बातें?

  'आज़ादी मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं इसे लेकर रहूंगा.' - सिर्फ शब्द?

क्या वो सब सिर्फ भाषण थे?

ये सच है कि शब्दों से मुश्किलें आसां नहीं होतीं. लेकिन सच यह भी है कि अगर हमारे पास वो शब्द न हो जिनसे देश में देशवासियों में जान फूंकी जा सके, उन्हें प्रेरित किया जा सके आगे बढ़ने के लिये, तो चाहे कितनी भी नीतियां बना लें हम, उनका कुछ असर न होगा.

***

और बात हो उम्मीद की.

लोग कहते हैं कि उम्मीद की बातें फिज़ूल हैं. बचपना है यह, तर्कसंगत नहीं क्योंकि उम्मीदों पर जिया नहीं जा सकता. उम्मीद तो झूठ है, असलियत से दूर है.

दूर है असलियत से? क्या ये कहना चाहते हैं कि जिसे उम्मीद है उसे अक्ल नहीं? क्या वो सिर्फ अपने खुशफहम ख्यालों में मारा फिरता है इधर-उधर बिना चिंता करे उन मुश्किलों कि जिनसा साबका है हमारा?

उम्मीद क्या सिर्फ अंधी आशा है? क्या सिर्फ बैठ के इंतजार करना है कि कब होगी अच्छी घटनायें? कब साथ देगा यह जमाना? बचना संघर्ष से? नहीं वो उम्मीद नहीं है. उम्मीद मुश्किलों को अनदेखा नहीं करती, उम्मीद उनके बावजूद होती है.

उम्मीद सिर्फ दिल में नहीं, दिमाग में नहीं, उम्मीद होती है हमारे पूरे अस्तित्व में. उम्मीद सिखाती है हमें लड़ना, मुकाबला करना और जीतना.

यही उम्मीद थी जिसके सहारे हमारे पूर्वज लड़े थे आजादी के लिये. और इसी उम्मीद की मदद से हमें यह आजादी बनाये रखनी होगी. आने वाली पीढ़ीयों के लिये.

- बराक ओबामा के भाषण से रूपांतरित

obama

We have come a long way from 'I have a dream' to 'Change'. 

For equality.
For liberty.
For Justice.
For Everyone.

अब गुस्सा भी नहीं आता

Scream

जो एक चिंगारी से जल उठता था अब राख बन चुका. सिर्फ एक मूक गवाह बचा हूं, जो देखता है सब चुपचाप लेकिन बस देख ही सकता है.

मेरी दिल्ली में आग भड़क रही है आज.

कल के आबाद घरों में बर्बादी का मातम है, और जो कसूरवार हैं इस बर्बादी के, वो छिपे हैं कहीं अपने अड्डों में, और मना रहे हैं जश्न कामयाबी का.

ऐसा पिछली बार जब देखा तो खून खौला था मेरा. लेकिन आज सिर्फ अवसाद है. पिछली बार जो आंखें लाल हो उठीं थी रोष से, आज उनमें ताब नहीं निगाह मिलाने कि इन तस्वीरों से.

कहीं खुद को ही दोषी समझ रहा हूं कुछ. मेरी भी थोड़ी भागीदारी रही होगी इस सब में. क्योंकि चुप तो मैं भी था.

चुप हूं अब भी, और ये चुप्पी आसान है पिछली बार से भी.  जब-जब यह मंजर दोहरायेगा खुद को, तब-तब और भी आसान होती जायेगी चुप्पी.

पर बढ़ेगा अपराध बोध.

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जहर पीने की तो आदत है जमाने वालों
अब कोई और दवा दो, कि मैं जिंदा हूं अभी
(मेरा नहीं है)

हुआ गुस्से में यूं बेबस की बेहिस हो गया
मुझे शर्मिन्दा बना दो, कि मैं जिंदा हूं अभी
(विश्व)