Tuesday, September 23, 2008

सुनिये पुण्य प्रसून बाजपेयी से मुठभेड़ का आंखों देखा हाल

pp_bajpayee

"और उसने जिसे मोबाइल से फोन किया खून से लथपथ इंसपेक्टर शर्मा थे..जो सिग्नल का इंतजार कर रहे थे। जिन्होंने दरवाजा खुलते ही गोलियां दागी । और उन लडकों ने भी गोलिया दागीं ।" (लेख यहां है)

ये किसी बौराये हुये आतंकवाद समर्थक की कल्पना नहीं है, यह है एक बेहद जिम्मेदार कहे जाने वाले पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी का चित्रण, उस घटना का जिसने दिल्ली को अंदर तक हिला दिया.

पुण्य प्रसून को दिल के किसी कोने में विश्वास है कि वो पुलिस वाला जो मारा गया दरवाजा खुलते ही गोलिया चला रहा था. लेकिन वो जिसने 35 आतंकवादियों को मारा, घुस गया गोलियां चलाते हुआ बिना बुलेटप्रूफ वेस्ट के (जिसका साथ शायद ही कोई एनकाउंटर के लिये जाने वाला आफिसर छोड़े), और कैसा कच्चा निशानेबाज निकला की हर वार चूका, और खुद ही गोलियों का शिकार हुआ.

उन भोले लड़कों की गोलियां का जो 'होनहार' विद्यार्थी थे, और जिनके साथियों के समर्थन में एक विश्वविद्यालय का वाइस-चांसलर खड़ा है.

पुण्य प्रसून को विश्वास है कि पुलिस का हर आदमी कमीना है, क्योंकि वो आने-जाने वाले लोगों को रोकते हैं. उनसे सवाल करते हैं.

उन्हें शौक है न सवाल करने का? घर में लेट के खटिया तोड़ने से बेहतर उन्हें बारिश-गर्मी-सर्दी-रात में राह किनारे खड़े होकर आने-जाने लोगों को परेशान करना लगता है. पुण्य प्रसून के लेख से साफ है कि वो चाहते हैं कि राहगीरों से सवाल न किये जायें. किसी को रोका न जाये.

क्यों इतने सारे पुलिस वाले खड़े हैं जामिया नगर में? सब घर जायें.  आराम करें. यकीनन वो पुलिस वाले भी यही चाहते होंगे.

उस घर का दरवाजा खटखटाते वक्त मोहन चन्द्र शर्मा शायद जानता होगा कि अन्दर से जो गोलियां बरसेगीं, वो लेमनचूस की नहीं होंगी, बंदूक की होंगी. फिर भी उसने खटखटाया वो दरवाजा, क्योंकि उसे शौक था गोलियां का सामना करने का. और उसे शौक था मरने के बाद अपनी फजीहत उन पत्रकारों से कराने का जिन्हें क्रिमिनल्स पास बिठाकर, कोला पिलाकर, फोटो खिंचाकर, इंटरव्यू देते हैं.

पुण्य प्रसून कश्मीर के शोपायां इलाके में हो आये, पूरी तरह सेना के प्रोटेक्शन में. और भी दस जगह हो आये होंगे. उन्हें क्या मुश्किल? आतंकवादी भी उन्हें कहवा पिलायेंगे, कि चलो अपना ये यार अपना नाम करेगा चैनल पर. मुश्किल है उस बाशिंदे की जो किसी बड़े चैनल से जुड़ा नहीं. जिसको रोजाना रिजक कमानी है उसी बाजार में जिस में बम फटा.

उसे तो अच्छे लगते होंगे वो पुलिस वाले जो खड़े हैं हर मुश्किल सह कर, कि आगे कोई बम न फूटे, आगे निर्दोष न मरें.

पुण्य प्रसून का क्या? उनका काम तो बम फटने के बाद शुरु होना है न?

22 comments:

  1. धिक्कार है ऐसे पत्र कार पर...
    नीरज

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  2. पूण्य प्रस्सुन वहीं खड़े खड़े देख रहे थे. तभी तो क्या कमाल का आँखों देखा हाल लिखा है.

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  3. क्या कहना इन पत्रकारों का।

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  4. भाई,पुण्य प्रसून बाजपेयी जैसे देशभक्त तो हमारी धरती पर हमेशा से हैं आप इसके अलावा और क्या अपेक्षा रखते हैं

    नमक का हक तो इन्हें अदा करना ही है

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  5. पुण्य प्रसून बाजपेई और जिम्मेदार?
    किसके प्रति जिम्मेदार?

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  6. पुण्य प्रसून बाजपेई को हर जगह काश्मीर काश्मीर ही क्यों दिखता है?

    कोई इस पर प्रकाश डाल सकते हैं?

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  7. पुण्य प्रसून पर मेरा विश्वास समाप्त होता जा रहा है..एसे आलेख कहीं रहा सम्मान न मिटा दें..अफसोस कि लोकतंत्र का स्तंभ है मीडिया

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  8. बन्द कमरो मे बैठ कर आखो देखा हाल तो इनसे सुनो लफ़्फ़ाज़ी की सारी हदे पार कर देते है

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  9. महान पत्रकार हैं भाई

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  10. पुण्य प्रसून जी अगले बम विस्फ़ोट का आँखों देखा हाल भी सुनायेंगे, उनके मित्र यासीन मलिक ने उन्हें बता दि्या है कि अगला विस्फ़ोट कहाँ होने वाला है, इसलिये इंतज़ार करें एक और सनसनीखेज़ रिपोर्ट का… कर्टसी पुण्यप्रसून द ग्रेट पत्रकार्… (कहीं ये भी राजदीप सरदेसाई की तरह किसी पद्म पुरस्कार की जुगाड़ में तो नहीं है???)

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  11. Ths blog of Punya Prasoon Bajpeyee is good example of embeded journalism.

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  12. हो सकता है कल को ये पत्रकार महोदय किसी होणार आतंकी की आपबीती लेकर हाजिर हो जाएँ. धिक्कार हैं ऐसे पत्रकार पर जो अपने ही रक्षकों पर सवाल उठा रहा है...

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  13. मित्रों,
    सिर्फ पुण्य प्रसून ही इस आंखों देखा हाल को बताने के लिए पुण्य के पात्र नहीं हैं- बल्कि दैनिक भास्कर जैसा अखबार भी इस पुण्य में सहभागी है। उसके यशस्वी संपादक श्रवण गर्ग और समाचार संपादक हरिमोहन मिश्र भी उतने ही उत्तरदायित्वबोध से भरे हैं - जितना बोध पुण्य साहब में है। अब आप पूछेंगे कि ये हरिमोहन जी क्यों हैं - दरअसल जिस पेज पर पुण्य जी ने ये पुण्य काम किया है, उसके प्रभारी वही हैं। किशन पटनायक जी के चेले रहे हैं - अब लगता है कि दीपांकर भट्टाचार्य (सीपीआईएमएल)वाले उन्हें लुभा रहे हैं।

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  14. भावनाओं और सत्‍य में बड़ा अंतर होता है और ये कड़वा सच है कि हकीकत की मुठभेड़ में चिडि़या का बच्‍चा भी बहुत मुश्किल से मरता है। लेकिन ये व्‍यवस्‍था ही ऐसी है जहां कानून अपराधी को सजा ही नहीं दे पाता, जहां पुलिस के तीन चौथाई जवानों से बंदूक का भार नहीं संभलता। उनकी अपनी फिटनेस ही लाजबाब है। ऐसे में अगर कुछ बहादुर पुलिसकर्मी पकड़कर भी मार देते हैं तो जनता राहत की सांस लेती है। हो सकता है कि ये मुठभेड़ असली हो और आतंकवादियों को परंपरागत तरीके से आंका गया हो। आधी अधूरी मुखबिरी हो। लेकिन फिर भी बहादुर इंस्‍पेक्‍टर की शहादत तभी सफल होगी जब इस धरती से आतंकवाद मिट जाए लेकिन यदि पुण्‍य कुछ सवाल उठा रहे हैं (हो सकता है वह बेबुनियाद हों।)तो धिक्‍कार देने से पहले हमें एक बार पुण्‍यप्रसून का ट्रैक रिकार्ड भी देख लेना चाहिए। सत्‍य और इल्‍यूजन के बीच का अंतर समझ लेना चाहिए। हो सकता है कि पुण्‍य के पत्रकार जीवन की ये एक बडी चूक हो लेकिन मैं मानता हूं कि वह भले ही घटनास्‍थल पर न गए हों लेकिन हर हाल में वह टिप्‍पढ़ीकर्ताओं से ज्‍यादा भिज्ञ होंगे। आप चाहें तो सच कहने पर मेरी कमीज भी फाड़ सकते हैं।

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  15. हरि मोहन जी कि बात से सहमत हैं कि पुण्य टिप्पणीकर्ता से ज्यादा भिज्ञ हैं, लेकिन यह बात तो और भी बड़ा सवाल उठाती है, सीधे उनके झुकाव/नैतिकता पर.

    क्या उनकी भिज्ञता यह कहती है कि मुठभेड़ नकली है, या पुलिस ने पहले फायरिंग की? अगर ऐसा है तो उनकी नैतिक जिम्मेदारी है कि खुलासा करें.

    भिज्ञता झुकाव को हिसाब में नहीं लेती. हिटलर भिज्ञ था कि उसके राज में क्या अत्याचार हो रहे हैं, लेकिन अपने पूर्वाग्रहों की वजह से वह उन्हें अत्याचार नहीं बदला समझता रहा.

    पुण्य बहुत पुराने पत्रकार हो गये हैं. इस बात का हिसाब आसानी से रखा जा सकता है कि उनका झुकाव कब-कब, कहां-कहां रहा, और इस समय कहां है.

    बाकी इस टिप्पणीकारों का मंतव्य पुण्य की व्याख्या पर सवाल उठाना था, उनकी भिज्ञता पर नहीं. उनकी व्याख्या के लिये उनकी भिज्ञता कोई justification नहीं.

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  16. और ज्यादा कुछ नही बस दिल से बददुआ दे डालिये इसे, देशवासियो की आह से वह खुद ही स्वाह हो जायेगा।

    चलिये यह भी तय करे कि जिस चैनल मे यह जायेगा उसका विरोध करेंगे। तब तक जब तक यह अपने ठिकाने नही चला जायेगा। ठिकाने मतलब वही जगह जहाँ इस देश के दुश्मन रहते है।

    धिक्कार है आस्तीन के इस साँप पर।

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  17. टिप्पडीयों से १०० प्रतिशत सहमत हूँ

    वीनस

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  18. bechaaraa apani roti kamaa rahaa hai . aap log to pichhe hi pad gaye.

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  21. क्या फर्क पड़ता है ऐसे बुध्जिवियों के ऊपर जिनका लंगडा और काना सेकुलरिज्म सिर्फ़ टी आर पी देखेगा या फ़िर वोट बैंक, एक हैं स्येदैन जैदी साहब जो की मुसलमानों के स्वयम्भू नेता बन गए हैं और वाजीब ठहरा रहे हैं बोम्ब ब्लास्ट को क्योंकि गुजरात में दंगा हुआ है, भइया हमने सिर्फ़ एक बात पूछने की गुस्ताखी कर ली की इतिहास की कब्र से कब तक मुर्दे निकालेंगे और अगर निकालेंगे तो अगले पर भी तो इल्जाम लगेगा.

    प्रसून जी के ब्लॉग पर टिप्पणियों से समझ में आ जायेगा की सब उनकी निगाह में अहमक हैं , कौमार्य से उपजी कुंठा के शिकार हैं, बीमार हैं.

    http://prasunbajpai.itzmyblog.com/2008/09/blog-post_24.html

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  22. पुण्य प्रसून जैसे ही लोग आतंकवादियों की बौद्धिक रूप से समर्थन करते है ये वे लोग है जो प्रायोजित भीड़ को इकट्ठे कर सरकार और पुलिस पर बेवजह दवाब बनाते है .... और शायद अफजल और कसाब जैसी देश को रक्तरंजित करने वाले मजे से जेल की रोटियां तोड़ते है ...

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