Tuesday, September 16, 2008

क्यों भारत सरकार फैसले की घड़ी पर हमेशा खुद को असहाय पाती है ?

leader

हर तस्वीर के दो पहलू होते हैं, एक दिखाने के लिये, और दूसरा छिपाने के लिये. राजनीतिज्ञ से ज्यादा perception की महत्ता कोई और नहीं समझता, इसलिए इनके लिये करने से ज्यादा जरूरी है दिखाना की हम कर रहे हैं.

सच्चाई ये है  कि अगर कोई राजनीतिज्ञ दिखावे से ऊपर उठकर अपनी विचारधारा, या बताई हुईं नीतियां लागू करने पर आ जाये तो शर्तिया वो राजनीति में कुछ ही रोज़ का मेहमान रहेगा.

इसलिये आपकी-हमारी सरकार चिल्लाती रहेगी - हम कर रहे हैं-हम कर रहें हैं, लेकिन एक भी असरदार कदम आपको नहीं दिखेगा.

आज dissect करते हैं कि ऐसा है, तो क्यों.

1. विविधता वाले जनतंत्र में हर मत के लिये पर्याप्त विरोध मौजूद है.

पूंजीवादी, समाजवादी, माओवादी, नस्लवादी, राष्ट्रवादी, मानवतावादी, ... हर तरह के वादी के लिये इस देश में पर्याप्त जगह है. क्योंकि इस देश में इतनी विविधता है, कि हर रंग, हर ढंग के लोग और विचार हैं यहां.

इसलिये पूरे देश के लिये समान नीति बनाना असंभव सी बात हो जाती है. मुद्दा चाहे हेल्मेट पहनने जैसी छोटी सी बात का हो, वैट जैसे वित्तिय प्रावाधानों, या फिर मकोका जैसे अपराध-निरोधी कानून, पूरे देश में हर नीति के विरोधी हैं, और विरोधी भी प्रबल और अधि-संख्यी, जिन्हें दबाना या समझाना मुश्किल हो.

साथ ही जब भी कोई नीती या मुद्दा उठता है, अवसरवादी लोग उसपर अपनी रोटियां सेंकने आ जाते हैं. इसलिये कोई आश्चर्य नहीं की आतंकवाद जैसे खतरनाक मुद्दों के साथ भी राजनीति चल रही है.

2. भारतीय सरकार का उद्देश्य राज्य नहीं, सरकार की रक्षा है

अजीब विडम्बना है कि वर्तमान भारत सरकार परमाणू करार जैसे अमुद्दे पर गिरने को तैयार है, लेकिन आतंकवाद जैसे बड़े खतरे का मुकाबला करने के लिये अप्रिय निर्णय लेने को तैयार नहीं.

इसका कारण यह है कि हमारी सरकार का उद्देश्य राज्य नहीं, अपने राज की रक्षा करना है. अपने वोट बटोरने के लिए कुछ पार्टियों ने मुस्लिम वर्ग को लगातार मुख्य धारा से अलग रखने के लिये कुटिल चालें चलीं और कामयाब रही.

एक पूरे वर्ग को programmed paranoia का शिकार बनाया गया ताकी उन्हें अपने मतलबानुसार वोट देने पर बाध्य किया जा सके. लेकिन इस paranoia का प्रभाव ये राजनीतिक दल भी नियंत्रण में नहीं रख पाये और उन्हें इस शक्तिशाली वोटबैंक का बंधुआ बनना पड़ा.

इसलिये अब सरकार परमाणू परिक्षण के नाम पर गिरना स्वीकार कर सकती है, क्योंकि कांग्रेस को पता है कि उसके वापस आने की संभावनायें बनीं रहेंगी, लेकिन अगर वो अपने मुख्य वोट बैंक को अगर वे नाराज करते हैं तो उनके वापस आने की कोई संभावना नहीं. इसलिये आतंकवादियों के खिलाफ उस स्तर के combing operations नहीं होते जिनकी जरुरत है.

3. राजनेता की योग्यता कर्मवीरता नहीं वाकवीरता से नापी जाती है

किसी कार्यालय के निचले स्तर के कर्मचारियों तक की भर्ती में योग्यता मापी जाती है. देखा जाता है कि व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों का कितनी अच्छी तरह से निर्वाह कर पाता है. लेकिन राजनेताओं की योग्यता मापने का कोई मानदंड नहीं है.

ज्यादातर कोई व्यक्ति राजनेता इसलिये बनता है क्योंकि वो किसी खास जाती, समुदाय, परिवार का है, वाक्पटु है, या अपने समाज में किसी कारण से लोकप्रिय है. इस बात का ख्याल नहीं रखा जाता की सामने वाला राजकर्म में कितना कुशल है. इसलिये आज व्यापारी पैसों के बल पर, गुंडे बाहुबल पर, और फिल्मी कलाकार अपनी प्रसिद्धी के बल पर राजनेता बन रहे हैं.

यह लोग जब सरकार में जाते हैं तो राज्यकर्म में खुद को असहाय पाते हैं. या तो यह फैसला नहीं ले पाते, गलत फैसला लेते हैं, या अगर फैसला सही भी हो तो उसे कार्यान्वित नहीं कर पाते.

4. राजनैतिक पार्टियां काम करने वाले नहीं, चुनकर आने वालों को टिकट देती हैं.

यह लोकशाही की बुनियादी असफलता है कि उसके चुने गये राजकर्मियों की सफलता का मानदंड उनके द्वारा लागू नीतियों के कल्याणकारी प्रभाव नहीं, बलकि लोकप्रियता है. इसलिये कोई भी ऐसा फैसला कैसे लिया जाये जो लोकहित में हो, लेकिन लोकप्रिय नहीं?

अगर कोई राजनेता अपने कार्य का अच्छी तरह से निर्वाह करेगा तो कम-से-कम short-term में तो वो बहुत से लोगों को नाराज़ कर देगा, और उसका दोबारा चुनकर आना संदिग्ध हो जायेगा. इसलिये पार्टियां ऐसे उम्मीदवार चुनती हैं जो काम चाहे न करें, लेकिन लोगों को यकीन दिला दें की वो उनके भले में लगे हैं.

कौम के गम में खाते हैं डिनर हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत है, मगर आराम के साथ

देने दिलासा उनको, जो बम से खूनो-ख्वार हुये 
नई पोशाक में आयेंगे, दुख तमाम के साथ
(विश्व)

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