अगर किसी बच्चे का खुदा से तआरुफ न कराया जाये, तो उसके लिये परमात्मा नाम की किसी चीज का वजूद भी नहीं रहेगा. वो जियेगा अपनी जिन्दगी, आजाद, बिना जाने की दोजख क्या होती है, और स्वर्ग क्या. पुल-सिरात के नाम से भी उसका दिल नहीं दहलेगा.
दीन-धरम कुछ और नहीं एक बुरी आदत है जो हमारा परिवार हमें विरासत में दे जाता है, कि लो बेट्टे, अब झेलो खुदा की खुदाई. रोजाना सुबह उठकर जनेऊ डालकर घंटा बजाओ, दिन में पांच बार अपने घुटनों पर जोर आजमाइश करो, और अगर फिर भी सेहत बांकी न हो तो खुदा के नाम पर महीने भर का व्रत करो. और होना क्या हासिल है? पंडिज्जी का कहना है कलजुग में वैसे भी सभीने नर्क में जाना है.
एक बात याद रखने वाली है, धर्म और खुदा के अस्तित्व कर किसी को यकीं नहीं. सभी दिल ही दिल में इस झूठ की असलियत समझ रहे हैं, वह भी जो हाजी बने बैठें हैं, और वह भी जिन्होंने 12 तीरथ कर रखे हैं. वरना सच मानिये, अगर परमात्मा पर जिसे जरा सा भी यकीन है, क्या वो कोई भी ऐसा काम कर सकता है जिससे खुदा नाराज हो?
अगर आप झूठ बोल सकते हैं, छोटी-मोटी बेईमानी कर सकते हैं तो समझ जाईये की आप भी इस enlightened समाज का हिस्सा हैं जो भगवान की सच्चाई जान चुके हैं.
लेकिन फिर भी हमारे समाज में लोग धार्मिक होने का ऐसा भीषण स्वांग क्यों रचे बैठे हैं?
जवाब है - आदत.
-- बचपन में देखा की मम्मी-डैडी दो पैरों पर चल रहे हैं. मम्मी ने कहा, बेट्टा घुटनों पर नहीं पैरों पर चलो. बस चलना सीखा और तब से दो पैरों पर ही चल रहे हैं, और सही मान बैठे हैं.
-- थोड़ा बड़ा हुये तो स्कूल जाने लगे. पप्पाजी ने रस्ते में हनुमान मंदिर के सामने से गुजरते हुये कहा, मुन्ना हनुमान जी को नमस्कार करो, हमने कर दिया. इसी तरह अब्बाजी के साथ में मज्जिद में जाकर दुआ भी मांग आये. करत-करत अभ्यास यकीन हो गया की खुदा बैठा है कहीं ऊपर, ले तराजू बांट अपने इंतजार में, कि ये आये तो बेट्टाजी का हिसाब करुं.
असलियत में इन्सान की बेसिक फितरत धार्मिक होने की नहीं. लेकिन जिन भाई लोगों ने धर्म और भगवान का आविष्कार किया, उन्होंने कुछ को पटाकर, और बाकियों को डराकर खुदा का नाम बढ़ा दिया, और बस सदियों के लिये अपना उल्लू चला लिया.
और हां, ये भाई लोग बड़े चंट चिलाक हैं. इन्हें खूब समझ है कि परमात्मा के विचार भर से काम नहीं चलने का, अगर लोगों को गुलाम बनाना है तो इस विचार को जीवन का उतना ही अभिन्न अंग बनाना होगा जितना की पोट्टी जाना. इसलिये दुनिया भर के कर्मकाण्ड रच डाले, जिसको लोगों ने बिना सोचे समझे इतनी बार किया की बन गये आदत.
अगर आप तस्बीह या माला फेर-फेर कर बौरा गये हैं, और सोच रहे हैं कि अब तो मेरी सीट पक्की सुरग में, क्योंकि मैं लिये बैठा हूं 1000348 बार श्री राधेकिशन जी का नाम, तो भैया आप वही माल हो जिसके भरोसे मौलवी और पंडत अपनी-अपनी दुकानें खोले बैठें हैं.
एक बार भगवान से की तहे-दिल से शिकायत
या खुदा, तुझे दिन-रात मैंने पूजा
तेरी शान में कसीदे पढ़े, तेरे नाम जपता रहा
लेकिन तूने कभी पलट के खबर न ली
तकते-तकते तेरी बांट अब मेरा समय गुजर गया
अब आने को हूं तेरे पास, पूछूंगा तुझसे खुद
खुदा, तू इतना संग-दिल क्यों निकला
पता नहीं वो खुदा था, ये मेरी पिनक-ए-अफीम
लेकिन जो सुना वो बयां करता हूं
खुदा ने कहा, बेटा रामपरसाद, तू सही कहे है
तू बड़ा भकत है मेरा, ये ले टोकन, लाईन में आजा
तेरे जैसे और भी लगे हैं यहां आगे तुझसे
बारी-बारी से सभी को निपटा रहा हूं
मैंने टोकन पर लिखा नम्बर देखा - 1354853489
सच ही कहा है किसी ने, मैं बुदबुदाया
खुदा के घर देर है, अंधेर नहीं
दूसरे दिन पड़ोसी ने कहा
चच्चच... बड़ा धार्मिक बंदा था बेचारा
गोधरा से दिल्ली तक
ReplyDeleteअपने दर्द का कुछ हिस्सा आपकी खिदमत में पेश है -
न आसें टूटतीं अपनी, न जलता आशियाँ अपना,
न होता सैद-अफ़्गन गर ये ज़ालिम बाग़बां अपना।
न जाने कुफ्र-ओ-ईमां की कहाँ जाकर हदें छूटें,
चलो ढूँढें नया कोई अमीर-ए-कारवाँ अपना।
मज़ाक़-ए-काफिरी है अब, शगुफ्ता ज़िंदगी है अब,
कहाँ लाया है दानिस्ता, हमें दर्द-ए-निहां अपना।
मोअज़्ज़िन इक अज़ां पे खींच लाया भीड़ लोगों की,
यहाँ हम ढूंढते फिरते रहे इक हमज़बाँ अपना।
चमन में रंग-ओ-बू-ए-गुल ये क्या इतराते फिरते हैं,
चले आओ ज़रा लेकर जमाल-ए-बेकराँ अपना।
(सैद-अफ़्गन - शिकारी। बाग़बां - बाग़ का रखवाला, माली। कुफ्र-ओ-इमाँ - आस्तिकता और नास्तिकता , हदें छूटें - सीमाओं से बाहर आयें. अमीर-ए-कारवाँ - नेतृत्व करने वाला, कारवाँ की अगुवाई करने वाला। मज़ाक़-ए-काफिरी - नास्तिकता की ओर रुझान । शगुफ्ता - प्रफुल्लित। दानिस्ता - समझ बूझ कर । दर्द-ए-निहां - आन्तरिक पीड़ा। मोअज़्ज़िन - मस्जिद में अजां देने वाला जिसे सुन कर लोग नमाज़ पढ़ने आते हैं। हमज़बाँ - अपनी भाषा समझने वाला। रंग-ओ-बू-ए-गुल - फूलों के अलग अलग रंग और खु़शबू। जमाल-ए-बेकराँ - निस्सीम सौंदर्य )
इस ग़ज़ल का पहला शेर गोधरा काण्ड के वक़्त जनाब नरेन्द्र मोदी की नज़र था जो उस सन्दर्भ में समझा जा सकता है। अपने अन्तिम शेर की प्रेरणा मुझे डॉ राधाकृष्णन के एक लेख से मिली थी, लेकिन वो फिर कभी....
- हर्ष
बहुत सुंदर गज़ल है. इसे यहां पहुंचाने के लिये धन्यवाद.
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