ये भी भूलने की बात नहीं कि ज्यादातर धर्म जिनकी आज बड़ी हैसियत है, पिछले तीन-चार हजार सालों के अंदर बनाये गये. हिन्दू धर्म भी इसका अपवाद नहीं, चाहे इसके मानने वाले इसे कितना ही पुराना मानें, किंतु पिछले चार हजार सालों में ही इसने वह संगठित (organized) स्वरूप प्राप्त किया जिसमें यह आज है.
यह वक्त इन्सानी सभ्यता में एक महत्वपूर्ण बदलाव का था. इस समय तक इन्सान खेती की कला अच्छी तरह सीख चुका था, और उसका बसेरा जंगलो की जगह गांवो में होने लगा था.
लगता है कि जो फुर्सत इन्सान को काम-काज और अपने बचाव से मिली, उसका इस्तेमाल नई-नई इजादों को लाने में किया, और शायद इन्हीं सब इजादों के बीच उसने खुदा के नये स्वरूप की भी इजाद कर डाली.
अब गौर करें की खुदा का जन्म कैसे हुआ
1. खुदा डर के समय अनजान सहारे की ख्वाहिश थी
बहुत उम्दा ख्याल है. जब आप मुसीबत में हो तब कोई सुपरमैन आपको बचा लेगा. खुदा का जन्म ऐसे ही हुआ होगा. एक तूफानी रात को अपना घर बचाने किसी बशर ने किसी अनजान खुदा से अर्ज की होगी की बारिश रोक दे. फिर तो ये परिपाटी चल निकली होगी, और हर मर्ज की दवा दुआ बन गई होगी.
2. खुदा डर भी था
उस समय शायद वक्त को भी खुदा की ख्वाहिश थी. कमजोर लोगों की लाठी था खुदा, और मजबूतों के लिये डर. एक ऐसी हस्ती जो सबसे जोरदार हो, जिसकी निगाह सब पर हो, जिससे कोई गुनाह छिपा न हो, जो सबका फैसला करे.
जब कानून का सहारा न हो, तो खुदा का डर ही जालिमों को फिक्रमन्द करता होगा.
3. और ईनाम भी
वह वक्त ऐसा था जब मानव कुदरत से ज्यादा ताकतवतर साबित हो रहा था. कुदरत उस समय अपनी दुश्मन नहीं, अपने लिये ईनाम लगने लगी, और इस ईनाम को अता करने का श्रेय भी खुदा को दे दिया गया.
यह तो जायज ही है, आखिरकार सजा की जिम्मेदारी भी खुदा की थी तो गिजा भी वह ही क्यों न दे.
क्रमश: (अगली किश्त में जारी)
नोट: आप सबके कमेन्ट्स का शुक्रिया. आपका रिसपोन्स उम्मीद से ज्यादा सकारात्मक रहा. क्योंकि यहां तो यह हालत है कि धर्म में अगर पांखड के भी खिलाफ कुछ कहा जाये तो मोर्चा खुल जाता है.
बहरहाल, यह मुहिम जारी रहेगी.
साम्प्रदायिकता की मुखालफ़त बिना धर्म का विशलेषण कर नहीं की जा सकती। बल्कि धर्म पर बात किए बगैर साम्प्रदायिकता की मुखालफ़त में रचे जा रहे साहित्य से इस बात को ज्यादा अच्छे से समझा जा सकता है कि एक तरह की साम्प्रदायिकता की मुखालफ़त में लिखी गयी कोई रचना कैसे किसी दूसरे भूगोल में वहां की साम्प्रदायिक ताकतों के लिए अपने तर्क को पुष्ट रूप से रखने में सहायक हो जाती है। तस्लिमा की रचनाऎं जो साम्प्रदायिकता की मुखालफ़त में ही रची गईं, अपने यहां उसके पाठ को एक खास नजरिये के साथ जोर जोर से उचारने वाले कौन रहे, किसी से छुपा नहीं है।
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