मुझे समझ नहीं आता क्यों लोग कहते हैं कि बातों की अहमियत नहीं. इस समय तो सबसे बड़ा काम होगा लोगों को जगाना, और शामिल करना इस प्रक्रिया में. उन्हें बताना क्या कारगर होगा इस देश के लिये, हमारे लिये. कुछ ऐसा जो राजनीति को दोबारा विश्वसनीय बना सके, वो जो नेता शब्द को सम्माननीय बना सके.
मत कहों कि बातों की अहमियत नहीं.
'तुम मुझे खून दो. मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा.' - सिर्फ बातें?'
'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो' - सिर्फ बातें?
'आज़ादी मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं इसे लेकर रहूंगा.' - सिर्फ शब्द?
क्या वो सब सिर्फ भाषण थे?
ये सच है कि शब्दों से मुश्किलें आसां नहीं होतीं. लेकिन सच यह भी है कि अगर हमारे पास वो शब्द न हो जिनसे देश में देशवासियों में जान फूंकी जा सके, उन्हें प्रेरित किया जा सके आगे बढ़ने के लिये, तो चाहे कितनी भी नीतियां बना लें हम, उनका कुछ असर न होगा.
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और बात हो उम्मीद की.
लोग कहते हैं कि उम्मीद की बातें फिज़ूल हैं. बचपना है यह, तर्कसंगत नहीं क्योंकि उम्मीदों पर जिया नहीं जा सकता. उम्मीद तो झूठ है, असलियत से दूर है.
दूर है असलियत से? क्या ये कहना चाहते हैं कि जिसे उम्मीद है उसे अक्ल नहीं? क्या वो सिर्फ अपने खुशफहम ख्यालों में मारा फिरता है इधर-उधर बिना चिंता करे उन मुश्किलों कि जिनसा साबका है हमारा?
उम्मीद क्या सिर्फ अंधी आशा है? क्या सिर्फ बैठ के इंतजार करना है कि कब होगी अच्छी घटनायें? कब साथ देगा यह जमाना? बचना संघर्ष से? नहीं वो उम्मीद नहीं है. उम्मीद मुश्किलों को अनदेखा नहीं करती, उम्मीद उनके बावजूद होती है.
उम्मीद सिर्फ दिल में नहीं, दिमाग में नहीं, उम्मीद होती है हमारे पूरे अस्तित्व में. उम्मीद सिखाती है हमें लड़ना, मुकाबला करना और जीतना.
यही उम्मीद थी जिसके सहारे हमारे पूर्वज लड़े थे आजादी के लिये. और इसी उम्मीद की मदद से हमें यह आजादी बनाये रखनी होगी. आने वाली पीढ़ीयों के लिये.
- बराक ओबामा के भाषण से रूपांतरित
We have come a long way from 'I have a dream' to 'Change'.
For equality.
For liberty.
For Justice.
For Everyone.
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