Sunday, December 14, 2008

पाकिस्तान से मिले कुछ ख़त जिन्हें पढ़ना बहुत ज़रूरी है

मुम्बई के बम विस्फोट के बाद बिना कुछ भी भूले अपने काम में लगा ही था कि कुछ अजीब से खत पकिस्तान से मिले. इन्हें पढ़ा तो बहुत बैचेनी महसूस हुई. समझ नहीं आता कि क्या निष्कर्ष निकालूं. जेहन की बात दिल नहीं मानना चाहता. लेकिन कहीं-न-कहीं एक छोटा शक सा घर कर गया है कि इस्लाम कठमुल्लों के चंगुल में इतना गहरा फंस गया है कि अब निकलना मुश्किल है.

असल में इनकी शुरुआत बहुत पहले हुई. कुछ महीनों पहले एक सामान पाकिस्तान के लोगों ने भी इन्टरनेट के द्वारा उस फर्म से खरीदा जिसमें मैं काम करता हूं. ये तो एक इन्टरनेशनल बिज़नेस ट्रांसेक्शन था जैसा अमेरिका और युरोप और विश्व के बाकि देशों के साथ हमारा होता ही रहता है. तो इसी दौरान मेरी उस खरीददार से ई-मेल पर काम के सिलसिले में बात हुई. और जैसा कि हमें पता है outlook express में जब भी हम किसी को जवाब देते हैं तो उस व्यक्ति का ई-मेल पता अपने-आप हमारी outlook एड्रेस बुक में आ जाता है. तो शायद मेरा पता भी पाकिस्तान के उस व्यक्ति की एड्रेस बुक में दर्ज होगा.

बम विस्फोटों के बाद उस लाहौर के इस सोफ्टवेयर इंजीनियर ने अपनी एड्रेस बुक में दर्ज सभी लोगों को एक ई-मेल भेजी जो शायद उसके इरादे के बिना मुझे भी मिली क्योंकि उस एड्रेस बुक में मैं भी था. उस ई-मेल का टाइटल यूं था...

*****************************************

"Muslim Students in Indian University... Plz see attachment"

M**** A*****

[सारे नाम छुपा दिये गये हैं.]

और साथ में एक विडियो attached था, उसे आप यहां से देख सकते हैं. (जो लोग आसानी से परेशान हो जाते हैं, वो न देखें)

http://esnips.com/web/noiwontshutupstuff

इस विडियो में भीड़ को कुछ लोगो को बुरी तरह मारते दिखाया है और पुलिस तमाशा देख रही है. सुझाव यह है कि भीड़ जिन्हें मार रही है वो लोग मुस्लिम हैं. और उनका गुनाह है कि वो लोग मुस्लिम हैं.

विडियो को देखकर बैचेनी से भर उठा, लेकिन इस तरह की कोई काम मुसलमानों के खिलाफ हुआ है, उसपर मुझे यकीन न था. शायद उस लिस्ट में बाकी 1-2 हज़ार लोगों में भी ऐसे कुछ लोग होंगे जो अभी तक rational हों. तो उनमें से एक ने सारी लिस्ट को एक ई-मेल भेजी.

A***, I dont think its related to muslims as  i have seen this video from some other source one month back and that source explains it as the clash between university groups which happens everywhere in the world. Please do confirm and update all of us.

regards,
I****** H*******

अनुवाद:
आ****, मुझे नहीं लगता कि इसका मुसलमानों से कोई वास्ता है क्योंकि एक महीने पहले मुझे यह कहीं और से मिली और वहां से पता लगा था कि इसमें युनिवर्सिटी के कुछ ग्रुपों कि लड़ाई है, जो सारी दुनिया में हो सकती है. कृपया बात को साफ करके हम सबको बतायें.

इस इन्सान कि मेल पढ़कर मुझे कुछ सुकून सा महसूस हुआ. मैंने नीचे दी गयी मेल उस लिस्ट के सभी लोगों को भेजी.

I have heard no reports of any violent incident against muslims in India after the bomb attacks. This could be negative propaganda. I think negative propaganda of any kind (against India, or against Pakistan) hurts both our countries.

Hopefully, we will be able to restrain ourselves and refrain from contributing in spreading any hate.

Peace to Earth.

Regards

अनुवाद:
मैंने मुम्बई बम धमाकों के बाद मुसलमानों के खिलाफ किसी भी हिंसक कार्यवाही की खबर नहीं सुनी. यह दुष्प्रचार लगता है. मुझे लगता है कि किसी भी प्रकार का दुष्प्रचार (हिन्दुस्तान, या पाकिस्तान के खिलाफ), हम दोनों के देशों को नुक्सान पहुंचाता है.

आशा है कि हम खुद पर काबू रख पायेंगे, और नफरत को फैलाने में मदद करने से बचेंगे.

धरती पर शांती हो.

मेरी मेल का जवाब कुछ यूं मिला.

Hi,
Yes we agreed that most of the people in both sides do a lot of negative propoganda but this is a fact that there are 39 separation groups fighting in INDIA and the only reason is indian hindu mentality

F***** I*****

अनुवाद:
हां हम मानते हैं कि दोनों तरफ के लोगों द्वारा बहुत सारा दुष्प्रचार किया जाता है, लेकिन यह सच्चाई है कि हिन्दुस्तान में 39 अलगाववादी संगठन काम कर रहे हैं और सिर्फ इसका एक कारण है -- हिन्दू मानसिकता.

मैंने इसका जवाब यूं दिया

Hello,
I wonder how many separatist groups are fighting in Pakistan? Is it any less hurt by terrorism than India? Sitting from the other side of the fence, you can't judge what kind of 'mentality' is the hindu mentality. That's just another term you can coin, like the americans have coined 'islamic terror'.
Think about that please.

अनुवाद:
और कितने अलगाववादी संगठन पाकिस्तान में कार्य कर रहे हैं? क्या पाकिस्तान को आतंकवाद ने हिन्दुस्तान से कम नुक्सान पहुंचाया है? दीवार के उस तरफ बैठकर आप कैसे जान सकते है कि किस प्रकार की 'मानसिकता' हिन्दू मानसिकता है. यह तो एक शब्द है जो आपने बना लिया, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार अमेरिकीयों ने मुस्लिम आतंकवाद बनाया.

कृपया इस बारे में सोचिये.

इस मेल का कोई जवाब नहीं आया. लेकिन I**** H**** की मेल का जवाब एक कठमुल्ले ने कुछ यूं दिया.

Just like there is a Muslim for the sake of Allah, there is a new phenomenon of a Muslim for the sake of the disbelievers. And just like the Muslim for the sake of Allah does everything thinking what will Allah will think of me, the Muslim for the sake of the disbelievers does everything thinking what the disbelievers would think of him. So when a Muslim speaks out he does so to please Allah and when our other Muslim does not speak out he does so in order to please the disbelievers. When a Muslim fights he does so for the sake of Allah and when this other Muslim does not fight -even though he has every reason to do so- he does that in order not to displease the disbelievers. Obviously this is not expressed as such but is packaged in nice terms such as 'this is not good for dawa', or 'this would turn away the people from Islam'.
Allah says: "It is not your responsibility to guide people but it is Allah who guides whomever He wills"
This Muslim is obsessed with his image in front of the disbelievers. He is so obsessed with it that it becomes his standard for wala and bara. So he loves the Muslims who present the 'good boy' image to the disbelievers and he despises the Muslims who give Muslims a 'bad name'.
Rasulullah (saaws) says: One of you does not achieve full Imaan until he loves for Allah, dislikes for Allah, gives for Allah and holds back for Allah.
This Muslim is so aggressive and intolerant with his fellow Muslims but is tolerant and kind towards the disbelievers. He is an extremist with Muslims and a moderate with disbelievers.
Whenever the interests of the disbelievers are threatened or harmed by Muslims he is the first to jump to their defense. He would speak against his brothers and betray them. He may even advise Muslims to spy against one another and report to the authorities. For him fighting for Islam, and for the ummah is terrorism, but he manages to shop for a fatwa that would allow him to serve in the armies of the disbelievers and fight against his brothers. Being a Muslim for the sake of the disbelievers permeates his every action. If he meets a Muslim he frowns and if he meets a disbeliever his face beams with a smile.
Infact there are some Muslims who are so much Muslim for the sake of kuffar that they do not even like Muslims who call the kuffar kuffar!

A***** M*****

अनुवाद: (यह है कठमुल्लों के विचार)
जिस प्रकार कुछ मुसलमान अल्लाह के लिये होते हैं. आजकल एक मुसलमानों कि एक नई पैदावार काफिरों के लिये भी हो रही है. और जिस प्रकार अल्लाह का मुसलमान हर काम यह सोचकर करता है कि अल्लाह इसके बारे में क्या सोचेगा, काफिरों का मुसलमान हर काम यह सोच कर करता है कि काफिर उसके बारे में क्या सोचेंगे. अल्लाह का मुसलमान अल्लाह को खुश करने के लिये बोलता है, और दूसरा मुसलमान जब बोलता है तो काफिर को खुश करने के लिये. एक मुसलमान लड़ता है अल्लाह के लिये, और दूसरा लड़ता ही नहीं है, जब कि हर कारण है -- वो ऐसा करता है कि काफिर नाराज़ न हों. जाहिर है इस बात को अच्छे शब्दों में कहते हैं, जैसे कि यह इस्लाम के लिये अच्छा नहीं है, या यह लोगों को इस्लाम से विरत करेगा.

अल्लाह ने कहा है - "तुम्हारी जिम्मेदारी लोगों को रास्ता दिखाने की नहीं है, क्योंकि अल्लाह जिसको रास्ता दिखाना है, दिखा देता है."

यह मुस्लिम काफिरों के सामने अपनी इमेज के लिये परेशान रहता है. He is so obsessed with it that it becomes his standard for wala and bara. इसलिये वो उन मुसलमानों को प्यार करता है जो काफिरों के सामने 'अच्छे लड़के' की इमेज प्रस्तुत करते हैं, और उन्हें नफरत करता है जो मुसलमानो को 'बदनाम' करते हैं.

रसूल-अल्लाह ने कहा है: तुममें से एक भी पूरा ईमान तब तक नहीं प्राप्त कर सकता जब तक वो अल्लाह के लिये प्यार न करे, अल्लाह के लिये नफरत न करे, अल्लाह के लिये सर्वस्व न दे, और अल्लाह के लिये देने से इंकार न करे.

काफिरों का मुसलमान अपने साथी मुसलमानों के लिये हिंसक और intolerant होता है, लेकिन काफिरों के लिये tolerant और दिलदार. वो अतिवादी है मुसलमानों के साथ, और मोडरेट है काफिरों के साथ. जब भी काफिरों को मुसलमानों से कोई भी नुक्सान होने की संभावना हो तो वो उनके बचाव के लिये कूद पड़ता है. वो अपने भाई के खिलाफ बात करता है, और उसे धोखा देता है. वो मुसलमानों को मुसलमानों पर ही जासूसी करके प्रशासन को इत्तला देने के लिये उकसा भी सकता है. उसके लिये इस्लाम और उम्माह के लिये लड़ाई आतंकवाद है. लेकिन वो उस फतवे का इंतजाम कर लेता है जिसमें उसे काफिरों की फौज में भर्ती होकर अपने भाई के खिलाफ लड़ने की इजाजत मिल जाये. काफिरों का हित उसके हार कार्य में झलकता है. अगर वो किसी मुसलमान से मिले तो भौहों में बल पड़ जाते हैं, लेकिन काफिर से मिलने पर चेहरे पर खुशी आ जाती है.

यहां तक कुछ मुसलमान कुफ्र के इतने हिमायती हैं कि वह उन मुसलमानों को भी नापसंद करते हैं जो कुफ्र को कुफ्र कहते हैं.

मुझे तरस आता है I***** H***** पर. यह मेल A**** M**** ने लिस्ट के सभी आदमियों को CC की थी.

अब एक मेल इस सारी बातचीत की शुरुआत करने वाले, यानी वीडियो भेजने वाले लाहौरी सोफ्टवेयर इंजीनियर ने भेजी.

Dear All,
specially Ishfaq Bhai

Yeah I am not sure about the video I forward to you people. But, we all know that Indian Hindus are always being very extremist against Muslims. Indian media is representing inverse picture to the world. I believe India is involve in most of terrorist activities in Pakistan. They are using Innocent people for their purpose after brain washing them or cashing their situation. As most of them have lost their families during all this and they are blind out of mind out of religion. Thousands of people in Pakistan have lost their lives and people have proved the out of border intervention.

But Pakistanis needs very strong and confirmed evidence against India. Why, I said why. If Indian, American etc have negatively presented the Muslims all our the world without any proof [which has been found very effective].  Then why we need evidence, even we know that they are actually doing that. Why Pakistani govt and people always being ignorant and silent.

Then I want to say that even if it was some other issue. We have to present Hindus this way. I can go for propaganda even.

Regards,
M**** A*****

अनुवाद:
हां मुझे इस वीडियो पर पूरा यकीन नहीं है. लेकिन हम सभी को पता है कि हिन्दुस्तान के हिन्दू मुसलमानों के खिलाफ हमेशा अतिवादी रहे हैं. हिन्दुस्तानी मीडिया तस्वीर को उलट कर दुनिया को दिखा रही है. मुझे लगता है हिन्दुस्तान का पाकिस्तान में हुई ज्यादातर आतंकवादी कार्यवाहियों में हाथ है. वो लोग निर्दोषों का इस्तेमाल उन्हें ब्रेनवाश कर, या उनकी स्थिति का फायदा उठाकर कर रहे हैं, क्योंकि उनमें से ज्यादातर ने अपने परिवारों को इस के दौरान खो दिया है, और धर्मांधता में वो अंधे हो गये हैं. पाकिस्तान में हजारों लोगों ने अपनी जानें गंवा दी हैं, और बार्डर पार का हाथ होना लोगों ने साबित कर दिया है.

लेकिन पाकिस्तानियों को हिन्दुस्तान के खिलाफ बहुत मजबूत सबूतों की जरुरत है. क्यों? मैंने कहा क्यों? जब हिन्दुस्तानी, अमेरीकी, आदी मुसलमानों की गलत तस्वीर दुनिया को दिखा रहे हैं बिना सबूतों के [जो कि बहुत effective रहा है]. तो हमें सबूत क्यों चाहिये, जबकी हमें पता है वो ऐसा कर रहे हैं. पाकिस्तानी शासन और अवाम हमेशा अनजान और चुप क्यों है?

तो मैं यह कहना चाहता हूं कि चाहे बात कूछ और भी हो, हमें हिन्दुओं को इसी तरह से दिखना है. मैं दुष्प्रचार भी कर सकता हूं.

फिर एक मेल कुछ यों आई

aslam u alaikum A****
kindly try to avoid sending such conent emails, this can be harmful for heart patients ( young ppl can also be heart patients but not aware of it as they might not have consulted a doc for complete diagnosis).

i, myself, felt really bad the whole day after watching this video.

regards,
M***** M****

अनुवाद:
अस्सलाम उ आलेकुम A****
कृपया इस तरह की चीजें भेजने से बचो, यह दिल के मरीजों के लिये घातक हो सकता है (जवान लोग भी दिल के मरीज हो सकते हैं, और उन्हें डाक्टर से मिले बिना इसका पता भी नहीं हो)

खुद मुझे सारे दिन बुरा लगा इस वीडियो को देखकर

और इस बातचीत में आखिरी मेल जो दो दिन पहले मुझे मिली थी, वो यूं थी

AOA all,
Yes we should not post these kind of things, this will lead younger generation to wrong direction. My brother was sitting with me and I asked him to see what indians doing with muslims in india, after watching this video, he got disturbed and could not sleep all night and other day he asked me we should stop all this, and he said I want to do Jehad against them after watching this video.
So kindly dont post such things with the name of Islam as this will be harmfull for Younger generation.
Thanks
U*****

अनुवाद:
हां हमें ऐसी चीजें नहीं डालनी चाहिये, इससे नई पीढ़ी गलत दिशा में भटक सकती है. मेरा भाई मेरे साथ बैठा था, और मैंने उससे कहा कि देखो हिन्दुस्तानी मुसलमानों के साथ क्या कर रहे हैं. उस वीडियो को देखकर वो इतना परेशान हो गया की सारी रात सो नहीं पाया, और दूसरे दिन उसने मुझसे कहा कि हमें इस सब को रोकना चाहिये, और उसने कहा कि वो उन के खिलाफ इस वीडियो को देखने के बाद जेहाद करना चाहता है.

तो कृपया इस्लाम के नाम पर इस तरह की चीजें डालना बंद करो, क्योंकि यह नई पीढ़ी के लिये नुक्सान देह है.

********************************************************

यह बातचीत बेवकूफ आतंकवादियों के बीच नहीं, बेहद पढ़े-लिखे, जिम्मेदार, समाज के उच्च वर्ग के लोगों के बीच थी.

मैं इस सब को पढ़कर इतना परेशान हो जाता हूं कि सोचना बंद कर देता हूं. अब तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा हूं... न ही लगता है पहुंच पाऊंगा. बस अब एक फैसला कर लिया है कि किसी पाकिस्तानी से कोई व्यापार में हिस्सा नहीं लूंगा ताकी इस तरह की चीजें फिर न देखने को मिले और मैं अपने मिथकों में जी सकूं.

Monday, December 1, 2008

धन्यवाद ओंबळे, कम से कम एक आतंकवादी तो जिन्दा पकड़ा गया!

दो आतंकवादी एके 47 और हैंड ग्रेनेड से लैस थे और इस पुलिसवाले के पास बस एक वाकी टाकी था. कोई भी रास्ता नहीं था जिससे यह 48 साल का दारोगा तुकाराम ओंबळे इस मुठभेड़ से बच पाता. लेकिन मुम्बई पोलिस का ये बहादुर एएसआई भारत पर 26/11 के आतंकवादी हमले का कम से कम आतंकवादी जिन्दा पकड़ा जाना तय करके मरा .


बुधवार की रात तुकाराम ओंबळे को ताज होटल की फायरिंग पता लगने पर मैरीन ड्राइव पर तैनात कर दिया गया. आधी रात 12.45 का समय था. तुकाराम ओंबळे को अपने वाकी टाकी पर अलर्ट मिला कि दो आतंकवादी स्कोडा कार को हाइजैक करके गिरगांव चौपाटी की ओर बढ़ रहे हैं. कुछ मिनट बाद ही वह स्कोडा तुकाराम ओंबळे के पास से सर्राती हुई गुजर गई.


तुकाराम ओंबळे तुरन्त अपनी मोटरसाइकिल पर कूद कर स्कोडा के पीछे दौड गया. डीबीमार्ग पोलिस थाने की एक टीम ने पहले से ही चौपाटी सिगनल पर नाका बन्दी की हुई थी. आतंकवादियों ने एके 47 से गोलियों चलायीं लेकिन बैरिकैड्स की वजह से इन आतंकवादियों को कार की स्पीड कम करनी पड़ी.


तुकाराम ओंबळे ने अपनी मोटरसाइकिल ओवरटेक करके कार के आगे अड़ा दी जिससे कार के आतंकवादियों को अपनी दांयी ओर डिवाइडर पर चढ़ा देनी पड़ी और इससे उन आतंकवादियों का ध्यान कुछ ही सैकंडो के लिये बंट गया.


तुकाराम ओंबळे ने मोटरसाइकिल से छलांग लगायी और आतंकवादी आमिर कासिब की एके 47 के राइफल की नाल दोनों हाथों से पकड़ कर एके47 छीनने की कोशिश की. राइफल की नाल तुकाराम ओंबळे की ओर गई. आमिर कासिब ने राइफल का ट्रिगर दबा दिया और उस राइफल से निकली गोलियों की बौछार ने तुकाराम ओंबळे के पेट को छलनी कर दिया. तुकाराम ओंबळे बेहोश होकर गिर गया लेकिन उसके हाथों की पकड़ आतंकवादी की राइफल पर मजबूती से जमी थी. अपनी आखरी सांस तक तुकाराम ओंबळे ने आतंकवादी आमिर कासब को किसी और पर गोली चलाने का मौका नहीं दिया.

तब तक दूसरे पुलिसवालों ने दूसरे आतंकवादी इस्माइल को मार डाला और पुलिस के हाथों तुकाराम ओंबळे की कुर्बानी के कारण आमिर कासिब जैसा खूंखार आतंकवादी जिन्दा हाथ आया और अब हमारी जांच एजेन्सियों के हाथ लगेंगी महत्व पूर्ण जानकारियां.

तुकाराम ओंबळे अपनी पत्नी और बिलखती चार बेटियां छोड़ गया है. यही है हमारा असली हीरो, आईये इसे सलाम करें
============================================
उपसंहार

  • मुझे नहीं मालूम कि आप तुकाराम ओंबले की इस शहादत के बारे में जानते हैं.
  • मुझे नहीं मालूम कि इसे तिरंगे में लपेटा गया या नहीं.
  • मुझे नहीं मालूम कि इसकी शवयात्रा किसी चैनल पर दिखायी गई या नहीं.
  • मुझे नहीं मालूम कि किसी देश के प्रधानमंत्री ने इसका नाम राष्ट्र के नाम दिये गये संदेश में लिया,
  • पता नहीं कि इसे 21 तोपों की सलामी दी गयी या नहीं,
  • इसके दरवाजे पर देशमुख, मोदी या पाटिल एक करोड़ रुपये देने गये या नहीं.
  • मुझे यह भी नहीं मालूम कि इसे आतंकवाद से लड़ने का उच्च प्रशिक्षण मिला होगा

और मैं यह सब जानना भी नहीं चाहता.
मुझे इतना मालूम है कि ये मेरे देश का सच्चा शहीद है.

Sunday, November 30, 2008

मुम्बई के आतंकी हमलों में असल में कितने मरे? 200, या 1000?

सरकारी की बात मानें तो मुम्बई आतंकवादी कार्यवाही में मारे गये लोगों का ब्यौरा कुछ यूं है.

सी एस टी – 55 लोग मरे
ताज – 22 मरे
ओबेरॉय – 30 मरे
टैक्सी विले पार्ले – 4 लोग
पुलिस और सुरक्षाबल – 20 लोग

सरकार ने आतंकी कार्यवाही की लगभग शुरुआत से ही 150-180 के आंकड़े के आस-पास मरे लोगों की संख्या बतलाई है. लेकिन यह संख्या विश्वास योग्य नहीं है. क्योंकि अगर आतंकी कार्यवाही के स्तर का हिसाब लगाया जाये, और सभी कारकों पर ध्यान दिया जाये तो मरने वालों की संख्या इससे कुछ नहीं, बहुत ज्यादा बननी चाहिये.

बुधवार से लेकर अब तक सरकारी आंकड़े 172 पर ही अटके हैं, जबकी मरने वाले विदेशियों की संख्या 18 से 22 हो गई. क्या हिन्दुस्तानियों की संख्या इसी रेशियो में नहीं बढ़ी होगी (अगर सरकारी आंकड़े सही भी हैं तो)

मुझे लगता है कि चुनाव के साल में सरकार को चिंता है कि अगर मरने वालों की सच्ची संख्या ज्ञात हो, तो देशवासियों का गुस्सा और भी भड़केगा, और खामियाजा बहुत महंगा पड़ेगा. शायद इसी के चलते एक बहुत बड़ा कवर-अप आपरेशन चल रहा है जिससे की मरने वालों की सही संख्या का हिसाब न लगाया जा सके.

आपके लिये कुछ आंकड़े प्रस्तुत हैं: -

  1. ताज में कमरों की संख्या – 539
  2. ओबेराय में कमरों की संख्या – 327
  3. ट्राइडेंट में कमरों की संख्या – 541
  4. नरिमन हाउस में मंजिलों की संख्या – 5
  5. लियोपोल्ड कैफे में सीटें – 60

ताज में इसके अलावा कई और रेस्त्रां और मीटिंग रूम्स हैं. हमले के समय पर ताज में एक शादी भी चल रही थी जहां जाकर आतंकवादियों ने गोलियां चलाई. हिन्दुस्तानी शादी में कितने लोग आते हैं?

तीनों होटलों में कुल कमरों की संख्या – 1407. अगर साठ परसेंट आक्युपेंसी भी हो तो उस समय उन कमरों में से 844 में लोग हो सकते थे. बहुत सारे कमरों में एक से ज्यादा लोग भी हो सकते थे (परिवार, ग्रुप). इसमें शादी, मीटिगों, सेमिनारों के लोग भी जोड़िये जो वहां थे.

दूसरे दिन से ही हमें सुनने को मिला कि धमाकों में लगभग 200 लोग मरे, और सुई यहीं अटक गई. बल्कि एक बार तो official figure 195 से रिवाइज़ होकर 170+ पर पहुंचा और वहीं रुका है.

ताज में फायरिंग बहुत समय तक चली, और निकलने वालों की संख्या ज्यादा नहीं थी (आप में से जो टीवी देख रहे थे, जानते हैं कि कितने लोग बाहर आये, और कितनी बार). बीच में एक बार यह भी सुनने को आया की ताज में हर मंजिल पर लाशें मिल रहीं हैं, और एक बार तो एक कमरे में ही 40 लोग मिले ऐसी खबर थी.

ताज बालरूम में कितने लोग थे? इन आतंकवादियों के पास होस्टेज कितने थे? इन्होंने सउदी अरब के लोगों को तो छोड़ा (जिन्हें अबु आजमी लेकर आये), लेकिन बाकियों को तो नहीं छोड़ा था, वो कहां गये?

सड़क पर फायरिंग में (मेट्रो के पास, कामा हास्पीटल के पास, जीटी हास्पीटल के पास) भी फायरिंग की खबर थी. उसमें लोग मरे? कितने?

कोई भी (सरकार, या मीडिया) आतंक में मरे लोगों का विस्तृत (कहां कितने लोग मरे) ब्यौरा क्यों नहीं दे रहा?

मुझे लगता है कि इस आतंकवादी कार्यवाही में 200 नहीं, उससे कहीं ज्यादा लोग मरे हैं, जो हो सकता है इस संख्या दे दुगुने, या 5 गुने भी हो सकते हैं, क्योंकि एक बार जब आतंकवादी कार्यवाही शुरु हुई उसके बाद बहुत कम लोग बाहर निकले थे.

इस समय मृतकों की संख्या में clarity नहीं है, और

हर कीमत पर खबर,
सबसे आगे
सच दिखाते हैं

…. जैसे स्लोगन देने वाला मीडिया भी इस बात पर conveniently चुप है.

तो कौन बतायेगा की मुम्बई के आतंकी हमलों में मरने वालों की सही संख्या क्या थी? क्या मीडिया में कोई यह सवाल भी उठायेगा?

विलासराव देशमुख देखने गये थे कि आतंकवादियों ने 200 लोगों को कैसे मारा... और साथ ले गये थे राम गोपाल वर्मा को

vilasrao_deshmukh
यही रोकेंगे आतंकियों का अगला हमला.
हमारे महान मुख्यमंत्री

विलासराव देशमुख महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री है, आतंक के जिन 59 घंटो को आपने और मैंने जिया. मौत और खून की जिन तस्वीरों को देखकर हमारी आंखें पानी नहीं खून से भर उठी थीं उस दर्द को विलासराव देशमुख के दिल ने भी महसूस किया था? अपने राष्ट्र और अपने महाराष्ट्र की यह दुर्गति देखकर उसका खून भी खौला था? 200 लोग मरे, 14 जवान मरे, और कितने ही लोग घायल हुये, मुम्बई वीटी का प्लेटफार्म खून से लाल हो गया, यह देखकर विलासराव का खून गरम हुआ होगा?

घटनाक्रम के खत्म होने के एक दिन बाद विलासराव को मृतकों कि याद आई, तो आया वो अपने जिम्मेदारी निभाने. देखने कि किस तरह अपने देश के दुश्मनों ने देशवासियों की हत्या की... और साथ लेकर आया अपने एडवाइज़रों की टीम? वो लोग जो यह देखते और विलासराव कि मदद करते यह सब रोकने में?

यह है विलासराव की संवेदना देश और मृतकों के प्रति

विलासराव देशमुख लेकर आया रामगोपाल वर्मा को
विलासराव देशमुख लेकर आया रितेश देशमुख को

तो अब सुनिये विलासराव की कृपा से रामू की अगली फिल्म के बारे में

रामगोपाल की छब्बीस-ग्यारह!

रितेश देशमुख - संदीप उन्नीकृष्णन के रोल में.

विलासराव देशमुख के पीछे सुरक्षा सलाहकार नहीं राम गोपाल चल रहा था.

विलासराव देशमुख को देश की नहीं, राम गोपाल की अगली फिल्म की चिंता थी

विलासराव देशमुख को देश को नहीं, रितेश देशमुख को आगे बढ़ाना है?

___________________________________________



क्यों रोये हम और आप वो तीन दिन. क्यों हम तड़पे देश के लिये. विलासराव देशमुख को तो यह चिंता थी कि रामगोपाल वर्मा की अगली फिल्म की गोटी फिट हो सके और रितेश देशमुख के लिये धंधा बना पायें.

यह है महाराष्ट्र के मुखिया.
यह है वो आदमी जिसे हमने चुन के भेजा था कि हमारा भला करो, हमारा ख्याल रखो.

अब मत करो इस देश की चिंता, क्योंकि उसका कोई फायदा नहीं. देश को हमने पहले ही कुत्तों के हवाले कर दिया.

Thursday, November 27, 2008

राजू, चल राजू, अपनी मस्ती में तू... कोई जिये या मरे, क्या हमको बाबू

ab

पहले मैं मुम्बई को लेकर परेशान था, इतना की जब भी अपने देश की हालत बारे में सोचता था तो सिर में कहीं दर्द सा हो रहा था. फिर मूझे इस परेशानी का सही हल सूझा, तो आपसे भी शेयर कर रहा हूं.

मैंने न्य़ुज़ देखना छोड़ दिया, अखबार नहीं पढ़ रहा हूं, आसपास जब भी कोई इस बारे में बात करना शुरु करता है मैं फौरन दोनों हाथ कान पर रख कर चिल्लाना शुरु करता हूं - "वां-वां-वां-वां, वां-वां-वां-वां" तो सामने वाला घबराकर दूर हट जाता है.

तो आप भी यही करो. जैसे ही कुछ भी ऐसा सुनने को मिले जिससे आपके अन्दर के हिन्दुस्तानी को कष्ट पहुंचे तो दोनों हाथ कान पर रख के चीखो -- 'वां-वां-वां-वां'

मुझे नहीं सुनना कितने लोग मरे
मुझे नहीं सुनना कितने लोग छूटे
मुझे नहीं सुनना कितनी आग लगी
मुझे नहीं सुनना कितनी गोलियां चलीं
मुझे नहीं सुनना कितने बम फूटे
मुझे नहीं सुनना घायलों की चीख, घबराहट
मुझे नहीं सुननी सायरनों की आवाज़
मुझे नहीं सुनना मरने वालों के परिवार का विलाप
मुझे नहीं सुनना राजनेताओं की भोथरी बातें
मुझे नहीं सुनना न्य़ुज़ एंकरों की भड़काऊ रिपोर्टिंग

मुझे नहीं देखनी भड़कती हुई आग
मुझे नहीं देखना स्टेशन पर बहता खून
मुझे नहीं देखने हत्यारों के भोले मगर दहशतनाक चेहरे
मुझे नहीं देखने कमरों से हाथ हिलाते हुये मजबूर लोग
मुझे नहीं देखना होटल से आते हुये स्ट्रेचर
मुझे नहीं देखना जान के जोखम पर बिल्डिंग में जाते जवान
मुझे नहीं देखने विस्पोटों की आवाज़ सुनकर डर से उछलते एंकर
मुझे नहीं देखना सड़क पर गोलियां बरसातीं जीपें

तो इसलिये कानों पर हाथों के साथ आंखे भी जोर से मींच ली हैं

वां-वां-वां-वां
वां-वां-वां-वां

वां-वां-वां-वां
वां-वां-वां-वां

वां-वां-वां-वां
वां-वां-वां-वां

वां-वां-वां-वां
वां-वां-वां-वां

वां-वां-वां-वां
वां-वां-वां-वा

"जग में जो बुरा है, हम देखें न सुनें,
कांटो को हटा के, फूलों को हम चुनें"
http://www.youtube.com/watch?v=NStDcbAx02w

Saturday, November 22, 2008

शिवराज पाटिल ने कहा, "पुलिस सवालों के जवाब न दे, और चुप रहे, तो समस्या कम हो जायेगी"

आज एक चैनल पर शिवराज पाटिल का बयान सुना, वो बात कर रहे थे हाल के पुलिसिया घटनाक्रम के बारे में. बयान तो अंग्रेजी में था, लेकिन सार यह है.

"अगर पुलिस कोई बात कोर्ट को बताये, और वह कोर्ट से मीडिया तक पहुंचे तो यह जायज है. लेकिन अगर पुलिस मीडिया से लगातार सीधे लीक कर रही है तो नहीं. वो बहुत सवाल पूछेंगे, लेकिन पुलिस सवालों के जवाब न दे, और चुप रहे तो समस्या कम हो जायेगी."

सही नब्ज पकड़ी है समस्या की शिवराज पाटिल ने. समस्या यह नहीं है कि आतंकवाद है. समस्या यह नहीं है कि अत्याचार है, समस्या यह नहीं है कि देश में विभेद हैं. समस्या है जानकारी. समस्या हैं सवाल. अगर लोगों तक जानकारी नहीं पहुंचे तो समस्या ही नहीं रहेगी. क्योंकि जो समस्या इतने ढंग से छुपी हो जिसके बारे में किसी को पता ही न चले तो वह इन राजनेताओं के लिये समस्या है ही नहीं. सोचिये अगर गुजरात में विस्फोट हो, और आपको दिल्ली में पता ही न चले, तो आप बेखबर मजे में समय बिताते रहेंगे. इस खबर की वजह से ही तो आपका दिन खराब होता है. इस खबर की वजह से ही तो आप सोचने पर मजबूर होते हैं.

तो पुलिस को सही बात कही है पाटिल ने. सवालों के जवाब मत दो. यह नहीं कहा कि अत्याचार मत करो. यह नहीं कहा की निर्दोषों को सताओ मत. यह नहीं कहा की मजबूरों की रपटें दर्ज करो. यह नहीं कहा कि जिन्हें मदद की जरुरत है उनकी मदद करो. यह नहीं कहा की अपराधिओं को बचाना बंद करो. कहा की सवालों का जवाब मत दो. जब-जब तुम्हारी जवाबदेही मांगी जाये, जब-जब तुमसे पूछा जाये की बताओ,ऐसा क्यों हुआ तो चुप साध के बैठ जाओ. आखिर जवाबों के अभाव में सवाल भी तो मर जाते हैं. सारे सवाल मर जायेंगे, और तुम बच जाओगे.

पाटिल चाहे कितना ही अकर्मण्य प्रशासनिक हो, राजनीतिज्ञ कुशल है. तभी तो पिछले पांच सालों में उनकी कुर्सी अडिग रही, देश की अखंडता चाहे कितनी ही डिगी हो.

तो जिनके मन में सवाल मंडरा रहे हों, उनके सभी से गुजारिश है कि मर जाने दो हर सवाल को बिना जवाब के और मूक बन के देखो इस नंगे विद्रुप को.

और कुछ सवाल जिनके जवाब नहीं दिये जाने चाहिये.

1. क्यों सरकार नहीं पूछती स्विस बैंको से हिन्दुस्तानी खातेदारे के ब्यौरे? (जिनके बारे में कहा है कि सरकार पूछे तो वे देंगे)
2. जिन बिल्डरों ने पिछले पांच साल में करोड़ों का फायदा बनाया (sez, और उठते भू-दामों के कारण) उन्हें मंदी के आते ही दनादन छूटें क्यों दी गईं, जबकी विदर्भ के मरते किसानों के लिये कुछ नहीं किया?
3. क्यों किसी भी विस्फोट की जांच निष्कर्ष निकालने में हमेशा निष्फल रहती है और अपराधी खुले घूमते हैं, और चैन से जिंदगी काट रहे हैं?
4. सरकारी तंत्र दिन-ब-दिन, और, और क्यों सड़ रहा है?
5. बड़े उद्योगों के पैरों पर लोट लगाने वाला वित्त मंत्रालय छोटे उद्योंगो पर लगातार प्रहार क्यों कर रहा है?
6. जिन सड़कों पर करोड़ों हर साल खर्च किया जाता है, वो बार-बार टूट जाती हैं?
7. सांसद अपनी निधी किस बिना पर खर्च करते हैं? और उसका हिसाब कौन जांचता है?
8. क्यों हर नेता लगातार अमीर, और अमीर होता जा रहा है? इनकी स्कोर्पियो, फोर्ड इन्डीवरों से सड़कें भर गयी है, और पार्टियों के झंडे हर गाड़ी पर लगे हैं. कहां से आ रहा है यह पैसा?

क्यों...
क्यों...

नहीं, इनके भी जवाब मत देना.

Thursday, November 20, 2008

मकोका लगाया इसलिये कि अब पुख्ता सबूत हैं,या सबूत हैं ही नहीं,

कहते हैं कानून की आंखों पर पट्टी बंधी है, कि वो गुनहगारों के बीच फर्क न कर सके. उसके सामने चाहे अमीर आये चाहे गरीब, चाहे हिन्दू या मुसलमान वो उन्हें पहचान न सके. पहचाने तो सिर्फ गुनहगार और बेगुनाह के बीच का फर्क. लेकिन अब इस देश के नागरिकों का इस छलावे भरी बातों पर विश्वास करना नामुमकिन है. हमें पता है कि यह पट्टी तो इसलिये बांधी गई है ताकि इस अंधे कानून को बेवकूफ बनाना आसान हो.

एटीएस ने भी कानून की आंखों पर बंधी इस पट्टी का फायदा उठाया, क्या खूब उठाया. आखिरकार मालेगांव के कथित अपराधियों पर मकोका लगा दिया गया, इसलिये नहीं की एटीएस के पास अब पुख्ता सबूत हैं, बल्कि इसलिये की सबूत हैं ही नहीं, और मकोका का इस्तेमाल कर एटीएस और वक्त खरीद रही है, और इस साजिश में हमारा तीसरा खंबा, हमारा सूचना तंत्र भी शामिल दिखता है. ऐसे माहौल में उम्मीद किसके दम पर की जाये. तो कुछ बेहद नाउम्मीदी भरी बातें ही करते हैं.

1. पुलिस और कानून सत्ताधारीयों के कब्जे में कुछ भी कर सकता है
राजनेता
तो हर पांच साल में बदल जाते हैं, लेकिन पुलिस और अफसरशाही बनी रहती है, पर फिर भी पुलिस और सारा सरकारी तंत्र उन पांच सालों के लिये राजनेताओं का बंधक बन जाता है. मालेगांव धमाकों के मामले में पूरी तरह यह देखने को मिला. पुलिस ने पहले बिना सबूतों के प्रज्ञा ठाकुर को हिरासत में रखा, बार-बार नारको टेस्ट किये, और फिर भी सबूत न मिलने के बावजूद मकोका लगा दिया ताकि रिहाई आसान न रहे.

यह सब एक राजनैतिक दल कांग्रेस के इशारे पर हुआ, क्योंकि उसे एक दूसरे राजनैतिक दल समाजवादी पार्टी से अपने वोट बैंक को छीनना था. इससे कांग्रेस को सचमुच समाजवादी को करारी चोट पहुंचाने में सफलता मिली है.

क्या देश की सेवा की कसम खाकर ड्यूटी ज्वाइन करने वाले हमारे यह जवान इतनी जल्दी अपनी कसम भूलकर नेताओं की सेवा में ऐसे ही लगते रहेंगे?

2. प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी अपने देश नहीं, राजनैतिक दल के हित के प्रति है
सुना है की देश के प्रधानमंत्री ने विपक्ष प्रमुख आडवाणी को फोन करके पूछा की वह प्रज्ञा ठाकुर की हिरासत के विरुद्ध क्यों है. सही है, प्रधानमंत्री आतंकवाद से लड़ने की प्रतिज्ञा ले चुके हैं. लेकिन फोन लगता है तो आडवाणी को, वो भी प्रज्ञा के विरुद्ध, एक ऐसी साध्वी जिसके खिलाफ अब तक तो सबूत भी नहीं मिले.
क्या प्रधानमंत्री ने अपने ही मंत्रीमंडल के सदस्य अर्जुन सिंह जो फोन लगाया था जिसने दिल्ली के बम विस्फोट के आरोपियों को बचाने के लिये खुले कदम उठाये.
इस फोन की खबर से यकीनक एक खास वर्ग के कुछ लोगों को सुकूं पहुंचा होगा. ये तो अपनी पार्टी को फायदा पहुंचाने की कवायद से ज्यादा और कुछ नहीं. क्या एक संवैधानिक पद का जाती फायदे के लिये इस्तेमाल ऐसे ही होता रहेगा?

3. पत्रकार सत्य नहीं खबर और अपने संस्थान के मालिकों के झुकाव के लिए समर्पित है
2 दिन पहले अभिनव भारत की एक सार्वजनिक सभा को एक चैनल पर बार-बार यह कहकर दिखाया गया यह वही सभा है जहां विस्फोटों का षडयंत्र हुआ. पता नहीं वो पत्रकार क्या स्थापित करना चाहते थे, लेकिन वो चिल्ला इस तरह रहे थे जैसे कि उन्होंने उन लोगों को षडयंत्र करते सुना हो.

उससे एक दिन पहले दयानंद पांडेय का एक विडियो दिखाया गया जिसमें वह देश के उन मुद्दों के बारे में वही चिंतायें जाहिर कर रहा था जो हम सभी की हैं. चाहे वो कश्मीर में पनपता अलगाव-वाद हो, देश के बहुसंख्यक नागरिकों के खिलाफ पक्षपात, या एक खास धर्म के आतंकवादियों को आश्रय. यह वही कुछ था जो हमने आपने रोजाना कहा लिखा, लेकिन ऐसा करने के लिये दयानंद पांडेय को बार-बार आतंकवादी ठहराया गया.

क्या देशभक्ती की बातें करना जुर्म है?

4. सत्ताधारी वही कानून देंगे जिसका वह इस्तेमाल कर सकें
यूपी में मायावती, और गुजरात में मोदी ने आतंकवाद के खिलाफ कड़े कानून की मांग की, लेकिन केन्द्र ने उनकी मांग को नकार दिया कि उस कानून का गलत इस्तेमाल होगा. बल्कि उस तरह के कानून को ही मानवता विरुद्ध ठहराया गया. लेकिन फिर भी उसी सत्ताधारी दल का एक हिस्सा वैसे ही कानून का इस्तेमाल लगातार कर रहा है. क्या गुजरात में जो जानें जाती हैं उनकी कीमत महाराष्ट्र में गई जानों से कम है?

5. देश को वर्गों में बांटकर और उनमें दुश्मनी बढ़ाकर राजनैतिज्ञ अपना राज बचाते रहेंगे
जब रहेंगेजब स्वामी दयानंद सरस्वती ने कहा था कि कितने भी अच्छे विदेशी राज से स्वराज हमेशा बेहतर है, तो उन्होंने यह कल्पना नहीं की होगी कि हमारे राजनेताओं के समान निकृष्ट व्यक्ति सत्ता में होंगे. पिछले 60 सालों में हमारे बहुत पीछे से शुरुआत करने वाले देश हमसे बरसों आगे निकल गये, और हम भी देश से ऊपर अपनी जात-धर्म को रखे बैठें है.

असल में यह साजिश राजनेताओं की ही है, जो भूलने ही नहीं देती की कोई भी व्यक्ति किस जाती, किस धर्म का है. अगर वह भूलना भी चाहे तो बार-बार उसे याद दिलाया जाता है, टीवी पर, अखबार में, चुनाव पर, भाषणों में. लोगों को बताया जाता है कि तुम्हारी जाति, तुम्हारा धर्म खतरें में है. उनकी पहचान देशवासी नहीं, जाति और धर्म वालों के तौर पर गहरी की जाती है. फिर क्यों आश्वर्य होता है जब देश के लोग देश पर ही घात करते हैं?

क्या जिस जन्मभूमी को स्वर्ग से भी अधिक महान कहा जाता है, उस पर लगातार वही लोग प्रहार करते रहेंगे जिन्हें उसका पोषक बनाया गया?

Friday, November 14, 2008

तो अच्छा हुआ कि विकास थम गया, और मंदी आ गयी

sales_graph देश और दुनिया के विकास कि वो तेजी, ऐसी की सुधिजन-गुणीजन वाह कर उठे हैं. पिछले 20 सालों में हमारा देश ने क्या सर्रर प्रगति की. शहरों किन-किन तरह की कारें दौड़ उठी हैं. ऐसा ही 20 एक साल और चल जाये तो इंडिया का 2020 हो जाये.

बेरोक-टोक विकाश विश्व का किस कदर दुश्मन हो सकता है, यह जानने से पहले यह जान लिया जाये कि दुनिया का विकास किस कदर हुआ.

विश्व अर्थव्यवस्था का आकार (मिलियन $ में)
1950 - 5336101
1973 - 16059180
1998 - 33725635
2008 - 65000000

मतलब लगभग हर बीस साल में विश्व की अर्थव्यवस्था का आकार दुगुना होता रहा है, और पिछले समय में नये उभरते बाज़ारों के कारण इस गति में किसी कमी के आने के आसार भी नहीं थे. खासकर चीन और भारत में इतने बड़े नये बाजार बन रहे हैं कि आने वाले समय में वो अमेरिका और युरोप के बाजारों से सीधी प्रतिस्पर्धा करेंगे.

लेकिन अर्थव्यवस्था का मतलब सिर्फ उत्पादन ही नहीं, इसका मतलब उपभोग भी है. अर्थव्यवस्था, या उत्पादन के बढ़ने के साथ ही उपभोग भी बढ़ रहा है. मतलब हर बीस साल में उपभोग भी दुगुना हो रहा है.

तो अर्थव्यवस्था के साथ ही हर चीज के उत्पादन की संख्या बढ रही है

कुर्सी, फूलदान, किताबें, डब्बे, दवाईयां, खाद्य, पेय, कपड़े, कारें, जूते, टीवी, बोतलें, विद्युत, गैस, सर पर लगाने का तेल... हर चीज को ज्यादा, ज्यादा, और ज्यादा संख्या में लगातार बनाया जा रह है. और यह सब कैसे बनता है? प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करके.

1998 से 2005 तक प्राकृतिक संसाधनो के इस्तेमाल में 30 प्रतिशत की बढ़त हुई. (http://www.swivel.com/graphs/show/21865778)

सात सालों में 30 प्रतिशत की बढ़त!

तेजी से बढ़ती विश्व अर्थव्यवस्था (याद रखिये, हमारी बढ़त साल-दर-साल है. हर साल 10% की बढ़त से सिर्फ आठ सालों में अर्थव्यवस्था दुगुनी से भी बड़ी हो जाती है) की कीमत हमारी पृथ्वी चुका रही है. हम इतनी तेजी से जमीन, धातुओं, तेल, पेड़, आदी का इस्तेमाल कर रहे हैं की पृथ्वी के लिये इसकी भरपाई कर पाना असंभव है. इस तरह की बढ़त लगातार बनाये रखना तो असंभव है, लेकिन जब तक हम उस मोड़ पर पहुंचेगे कि आगे बढ़त पर संसाधनों की कमी से रोक लगे, तब तक हमारी दुनिया को अपूर्ण क्षति हो चुकि होगी.

हममें से हर किसी का मकसद अपने जीवन स्तर को उठाना है, लेकिन अगर हममें से हर व्यक्ति का जीवन स्तर उतना हो जितना की किसी साधारण अमेरिकी का होता है, तो हमें इस जैसी दस पृथ्वियों के संसाधनों की जरुरत होगी.

कहां से लायेंगे हम ये सारे संसाधन?

आने वाले 100-150 सालों तक यही दोहन चलता रहा तो वैसे भी संसाधनो का उपयोग इतना महंगा हो जायेगा कि वो हर किसी को मयस्सर नहीं होंगे, तो कम संसाधनों में रहना तो विश्व के जनमानस को सीखना ही है. लेकिन उस समय तक अति-दोहन के कारण हम downward spiral में प्रविष्ट कर चुके होंगे. प्रदुषण और संसाधनों को नष्ट करने से बहुत बड़ी crisis भी पैदा होगी.

मतलब, अगर मानवों का जीवन स्तर बढ़ेगा, तो जो बोझ पड़ेगा, उसे पृथ्वी सह नहीं सकती. तो फिर कैसे हम हासिल करें सभी मानवों के लिये सही जीवन स्तर, कैसे सबको प्रदान करें एक अच्छी और गौरवशाली जिंदगी, कैसे जब कि पृथ्वी पर साधन इतने कम है?

तो जवाब है एक सूक्ती

"यह पृथ्वी सभी की जरुरत को पूरा कर सकती है, लेकिन एक भी आदमी के लालच को नहीं"

फिलहाल तो इस मंदी को झेलें, और इसे एक मौका मानें यह समझने का कि कैसे हम विश्व की अर्थव्यवस्था को उत्पादन नहीं, मानव के विकास से नाप पायें.

भूटान की GNH (Gross National Happiness) की तरह.

Monday, November 10, 2008

'हिन्दू' शब्द बोलते वक्त दीपक चौरसिया के मुंह में गोबर का सा स्वाद आता है क्या?

स्टार टीवी के दीपक चौरसिया स्टार बन चुके हैं, जिस फार्मूले का उपयोग कर उनके सामने ही सामने कितने लोग बड़े-बड़े पुरुस्कृत पत्रकार बन गये, उसका उपयोग करके अगर वो एक-दो अवार्ड अपने कन्ने कर लें तो क्या बुरा?

तो आज स्टार पर धमाल मचा रखा है, जुबान अटक गई है - 'हिन्दूवादी नेता', 'हिन्दूवादी नेता'. ऐसा घमासान मचा रहे हैं कि लगता है कि जब बचपन में जब बोलन सीखा तो क-ख की जगह हिन्दूवादी नेताओं से निपटने का ककहरा सीख लिया.

deepakc1 सुदूर क्षितिज की ताक में.
वहीं से अगली खबर निकलेगी जिससे अपने आकाओं को खुश करने का मसाला निकालेंगे.

और ये स्टार (Fox News वाले, अरे वही जो जार्ज बुश के सबसे बड़े चमचे रहे हैं) के सुपर-स्टार जब 'हिन्दू' बोलते हैं तो चेहरे पर भाव बदल-बदल कर, कभी ऐसे जैसे गोबर चख रहे हैं, लेकिन जब साथ में जब 'वादी नेता' बोलते हैं तो ऐसा लगता है कि अभी किसी बिल्ले को दो सेर मलाई चटा दी. बड़ा घणा मौका मिला है इन्हें, सारे रात हिन्दूवादी नेता का भजन करें, तो भी संतुष्टी को प्राप्त नहीं होंगे.

ये वहीं पत्रकार हैं जो 'इस्लामिक अतिवादी' पर अलग ही प्रतिक्रिया देते हैं. जोर देते हैं कि जिन मुस्लिम आतंकवादियों को गिरफ्तार किया जाये उन्हें धर्म से न जोड़ा जाये. लेकिन खुदा-न-खास्ता अगर हिन्दूवादी नेता के हाथ होने का अंदेशा भी मिले तो हिन्दूवाद शब्द बड़े जोर दे-देकर, बड़े अंदाजों-खम के साथ बोला जाता है.

घटिया पत्रकारिता के झंडाबरदार ये बेशर्म लोग चाहे कितनी भी शर्मनाक नौटंकी न करें, इनके लिये ताली पीटने वाले चमचों की भी कमीं नहीं. इसलिये इनकी दुकान चलती रहेगी, चाहे इनके पाखंड पर कितना ही गुस्सा न आये.

Saturday, October 11, 2008

सरकारी औपचारिकताओं और जुल्म से परेशान छोटे व्यापारी, व्यापार बंद न करें, तो क्या करें

जिस अर्थव्यवस्था को छोटे व्यापारियों और उनके कर्मचारियों ने खून पसीना मिलाकर विश्व स्तरीय बनाया, उसका दोहन ठीक ताजा-ताजा ब्याही भैंस की तरह कर लिये पी. चिदंमबरम ने. सारा दूध काढ़कर बाल्टी में अलग रख लिया, और बछड़े को इतना भी न मिला की वो जिंदा रह सके.

तो अब जब industrial growth rate रेट 11% से घटकर 1.3% रह गयी तो कमलनाथ इतना बौखला गये की आंकड़े बदलने की बात कर डाली. अरे मूर्खों पिछले पांच साल में तुमने इस फसल के सारे फल सूत लिये, अब तो बीज के लिये भी कुछ नहीं बचा.

छोटे व्यापारियों पर तो गिन-गिन कर सितम हुये हैं. उनके लिये अब रोजगार चलाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन होने लगा.

1. सर्विस टैक्स
पहले जिन सुविधाओं पर बिल्कुल टैक्स नहीं लगता था, उनपर 5 सालों में 12% टैक्स हो गया. यहां तक की ट्रांसपोर्ट जैसी मूल-भूत सुविधाओं को भी बख्शा नहीं गया. आपके यहां जो दाल-चावल की महंगाई बढ़ी, उसके लिये बहुत हद तक जिम्मेदारी इसी सर्विस टैक्स की है.

असल में चिदंमबरम का उद्देश्य हर तरीके से सरकारी खजाना भरना रहा, लेकिन इस पैसे का उद्देश्य जन-कल्याण के लिये नहीं हो रहा है. अभी भी भारत की शिक्षा और स्वास्थ पर खर्च प्रति व्यक्ति न्यून स्तर पर है.

2. बिल्डर लाबी को बेतहाशा छूट
कांग्रेस और उसकी दोस्त पार्टियां बिल्डरों पर खासा मेहरबान रहीं. जहां-तहां बड़े-बड़े भूमिखंड कभी SEZ, कभी housing projects के नाम पर औने-पौने दामों में बांटे. वहां जो SEZ बन रहे हैं उनमें छोटे उद्योगों के लिये कोई जगह नहीं, असल में वह सिर्फ land prices के speculation का जरिया भर बने.

लेकिन अब उन सारे चोरों को सबक आ रहा है. सब की सब बर्बादी की कगार पर हैं, और उन्हें होना भी चाहिये बर्बाद.

3. मार्केट बंद, मॉल चालू
भारत में मार्केटों का चलन रहा है जहां छोटे-छोटे दुकानदार सस्ता माल लाकर भारत के बहुत बड़े मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग को उपलब्ध कराते रहे हैं. जब मॉल भारत में खुले तो मार्केटों से टक्कर लेना मुश्किल हो गया. लोग मॉल देखने गये, और खाने-पीने, लेकिन खरीदने वही मार्केट में. तो सरकार ने भारत भर में मॉल स्वामियों के दबाव में मार्केट बंद करने की छुपी मुहिम चालू कर दी. कभी किसी, तो कभी किसी कानून का सहारा लेकर मार्केटों और छोटे दुकानदारों पर दबाव बनाना चालू रहा.

4. खुले बाजार के नाम पर विदेशी निवेशकों को बाजार का पटरा करने दिया
बाजार को निवेश के लिये खोलने का बहाना बनाकर विदेशी निवेशकों को न्योता. उन्होंने बड़ी पूंजी के बल पर शेयरों को मन-माफिक उठाने-गिराने का खेल किया और छोटे निवेशकों को फुटबाल की तरह कभी इस पाले तो कभी उस पाले उछाला.

5. FBT, Deposit Tax आदि कानून
पहले कर्मचारियों पर जिन खर्चों पर पूरी टैक्स छूट मिलती थी, उस पर भी कर लगा दिया. मतलब अब व्यापार के लिये फोन और यात्रा पर भी टैक्स देना होगा. इस घटिया कानून के चलते कंपनियों ने कर्मचारियों को दी गई छूटों में कटौती की.

साथ ही यह भी भूलने की बात नहीं की जितने ज्यादा टैक्स जोड़े जाते हैं, उतना ही परेशानी व्यापारियों को झेलनी पड़ती है. उनके लिये आज मुश्किल यह है कि व्यापार के लिये समय लगायें, या टैक्स के झमेलों से निपटने के लिये.

बैंक में जमा खुद की राशी को निकालना पर भी सरकार को टैक्स देना पड़ रहा है. यह तो सिर्फ एक मजाक ही है.

6. विदेशों कंपनियों को सुविधायें, देशी को पेनल्टी
अगर आप विदेशी उद्योग, या बड़े उद्योग के मालिक हैं तो सरकार आपके लिये खास सुविधायें बनायेगी. कानूनों में रद्दोबदल करेगी, और कई जगह तो कानून तोड़ने में मदद भी करेगी. लेकिन छोटे उद्योंगों और व्यापारों को शुरु करने की सरकारी खानापूर्ती ही बहुत सारे उद्योंगों को शुरु होने से पहले ही खत्म कर देती है.

मैकडानल्ड में खाद्य निरीक्षक सलाम बजाने जाता है, और कोने के रेस्तरां को परेशान करने. यही फर्क है बड़े पैसे का.

7. 20 की जगह 10 कर्मचारियों पर PPF
पहले 20 या उससे ऊपर के कर्मचारियों वाली संस्थाओं को ही PPF की सुविधा देनी पड़ती थी, लेकिन इसे 10 कर दिया गया. PPF देने की परेशानी तो छोटी है, बड़ी मुश्किल हैं PPF के रजिस्टर और द्स्तावेजों को बनाना. फिर उन मुफ्तखोर सरकारी अफसरों को झेलना तो और भी मुश्किल है जिन्हें काम नहीं अपने हफ्ते से मतलब है.

इसलिये छोटे उद्योगों के लिये अब भर्ती और कर्मचारियों की छंटनी और भी मुश्किल है.

8. नाना प्रकार के रजिस्ट्रेशन
अगर आप दुकानदार है तों म्युनिसिपाल्टी में रजिस्ट्रेशन कराइये, सेल्स टैक्स में कराइये, सर्विस टैक्स में कराइये, और भी दस जगह दौड़ते रहिये, फिर इन सब जगहों की कागजी खानापूर्ती में साल बीत जायेगा.

पिछले कुछ सालों में इन तरहों की परेशानियों में कमी नहीं, इजाफा हुआ है. इसलिये अब छोटे-छोटे व्यापारियों के लिये राह कठिन होती जा रही है.

9. हर महीने कर का भुगतान
सरकार ने मध्यम स्तर के व्यापारों के लिये बहुत सारे करों का हर महीने भुगतान का प्रावाधान रखा है, और कुछ का quarterly. इन करों का भुगतान करने से पहले बहुत सारी reports का निर्माण करना पड़ता है कि कहीं कमी न छूट जाये. किसी भी व्यापारी के लिये इन सारी reports का निर्माण और analysis का समय अपने व्यापार से निकालना मुश्किल है. महीनावार कर तो बड़ी परेशानी है.

Monday, October 6, 2008

विश्वास धर्म का आधार है, और शत्रु भी

कितनी विरोधाभासी बात है न. विश्वास (Faith) तो धर्म तो वो नींव है जिस पर धार्मिकता की कमजोर इमारत खड़ी है. यहां तो सब कुछ विश्वास भरोसे चल रहा है, तो फिर कैसे यह विश्वास ही धर्म का सबसे बड़ा दुश्मन हो सकता है?

धर्म कि कुछ बातें ऐसी हैं, जो सभी जानते हैं कि कोरी गप्प हैं
पुष्पक विमान के उड़ने की बात, मोसेस के समुद्र फाड़ने की बात, जीसस के पुनर्जीवन की बात, पुल सुरात, हूरें, जिन्नात. ये सारी बकवास अलग-अलग नामों के साथ हर धर्म का हिस्सा हैं. जब कोई पादरी, पंडा या मौलवी इन पर विश्वास करने को कहता है तो किसी समझदार आदमी का दिल कैसे न करे की थप्पड़ बजा दें? लेकिन फिर भी इन गप्पों को सुनना पड़ता है.

कुछ भोले-बकस इन बातों पर यकीं कर भी लेतें हैं, लेकिन उनको भी विश्वास डांवाडोल ही रहता है, वरना जिस तरह इब्राहिम ने खुदा पर विश्वास करके अपने बेटे की बलि दी, उस तरह सभी पूरे ईमान वाले लोग कर सकते थे. यहां राजा बलि भी डाल सकते हैं.

फिर भी इन गप्पों को सच मानने का स्वांग क्यों?
जो बेवकूफियां समाज में न सिर्फ स्वीकार्य हों, बल्कि प्रोत्साहित भी हों, उनको करने में कैसा डर. कुछ समाज में अपनी छवि के लिये, कुछ इस डर से कि 'कहीं ऐसा हो ही न' लोग धार्मिक कथाओं पर विश्वास दिखलाते हैं. यहां वो कहानी सटीक है जिसमें एक आदमी नाक कटने पर स्वांग करने लगता है कि उसे प्रभु दिख गये, और इस चक्कर में पूरे शहर की नाक कटवा डालता है.

धर्म की हानी इसी में है कि उसकी कोशिश हर सवाल का जवाब बनने की है
इन्सान को पहले नहीं मालूम था की पृथ्वी गोल है कि चौकोर, सृ्र्य के चारों और घूमती है, या सूर्य उसके चारों और, उत्पत्ति कैसे हुई. तो जब ये सारे गुनाहों का गुनाहगार कोई न मिला तो खुदा के सर मढ़ दिये. की ले हर बात का तू ही जवाबदेह.

इन सारे सवालों का जवाब ढूढ़ने जब चिलम सुलगाकर अपने धार्मिक मसीहा बैठे तो कल्पना की उड़ानें बहुत दूर तक निकल गईं. तो धर्म-ग्रंथों में पृथ्वी चौकोर हो कर हाथियों पर सवार हो गई, जो खुद एक बड़े कछुये पे सवार थे. फिर तो एक सवाल का जवाब क्या सुझा, गुरुजनों ने हर सवाल के लिये कछुये टाइप के explanation निकाल लिये.

आजकल पादरी, मौलवी, पंडे इन बातों का ज्यादा जिक्र नहीं करते, क्योंकि उन्हें पता है कि पब्लिक हंसेगी. लेकिन शान से कहते हैं कि भगवान बहुत बड़ा है. बेशक यह भी उन्होंने उसी किताब से सीखा है जहां लिखा है की सूर्य पृथ्वी के चक्कर लगा रहा है.

जिस दिन लोग समझ जायेंगे की जिन अकाट्य धर्म-ग्रंथों की एक बात झूठ हो सकती है, उसकी सभी बातें झूठ हो सकती हैं, उस दिन इन पंडो-मौलवियों की दुकान उठ लेगी.

ज्यादातर लोगों को स्वीकार नहीं धर्म के हिसाब से जिंदगी चलाना
बड़ी अजीब बात है, जो लोग खुदा को मानते हैं वो शरियत को नकार देते हैं. मंदिर में चढ़ावा चढ़ाने वाले जनेऊ नहीं पहनते और पंडिज्जी की पालागी भी नहीं करते. वो व्रत नहीं करते, जाति  में शादी नहीं करते, अपने वर्ण के अनुसार काम नहीं करते. ईश भक्त चर्च नहीं जाते, और भी न जाने-जाने किस-किस तरह से अपनी जिंदगी जीते हैं जो परमेश्वर को बिल्कुल पसंद नहीं.

ये सब इसलिये क्योंकि लोग समझने लगें हैं कि यह पसंद परमेश्वर की नहीं, धार्मिक गुरुओं की नौटंकी थी जो समाज को बांधे रखने के लिये बनाई गयी थी. अब खुदा के दलालों की वह इज्जत नहीं जो कभी होती थी. हां अब भी कुछ मूढ़ जरूर उनके हिसाब से चलकर अपनी जिंदगी दागदार कर रहे हैं, लेकिन ज्यादातर लोग उनकी बातों पर ध्यान नहीं देते, और ये बात अब इन धर्म के ठेकेदारों को भी समझ आने लगी है.

इसलिये अब धर्म होता रहेगा अप्रासंगिक
राबर्ट हैनलिन अमेरिका के बहुत मशहूर और बेहद विवादास्पद उपन्यासकार रहे हैं, क्योंकि उन्होंने आज से कई साल पहले समाज की बहुत सारी रूढ़ियों को अपनी कहानियों में चुनौती दी थी. उनकी संकल्पनाओं में से एक है वो समाज जहां इश्वर के लिये कोई स्थान नहीं. लगभग हर मनुष्य नास्तिक है, और जो व्यक्ति ईश्वर उपासक है उसे उसी प्रकार विस्मय से देखा जाता है जिस प्रकार आज नास्तिक व्यक्ति को.

यह बात थोड़ी wishful thinking के समान लगेगी. लेकिन धर्म और धार्मिक लोगों ने जितनी मुश्किलें इस दुनिया के लिये पैदा की है, उनकी वजह से कोई आश्चर्य नहीं अगर सुधी-जनों का धर्म से विमोह जारी रहे और यह दिन भी आ जाये.

लेकिन चाहे ऐसा हो-न-हो, यह तो होना ही चाहिये कि धर्म के दलालों की सुनवाई बंद हो.

Friday, October 3, 2008

अहिंसा नामक हथियार से मुहम्मद गोरी को कैसे मारेंगे?

कहते हैं कि गांधीजी ने अहिंसक आंदोलन का उपयोग करके अंग्रेजो पर विजय प्राप्त की, उन्हें इस देश से खदेड़ दिया. कहते हैं कि गांधीजी का विचार था कि अहिंसा का उपयोग करना है अपने शत्रु को नैतिक रूप से निर्बल कर देना. यह एक ऐसा उपाय है जिससे आपके आक्रांता के पास कोई नैतिक आधार नहीं रह जाता आक्रमण का.

अगर अहिंसक आंदोलन को ही अंग्रेजो के भारत से जाने का इकलौता कारण माने तो यह आजादी जिसे हम अपनी जीत कहते हैं, जीत हमारी नहीं अंग्रेजो की हुई जिन्होंने अपने समाज को इतने ऊंचे नैतिक मूल्यों तक उठा लिया कि उन्हें निर्बलों/निरीहों पर अत्याचार, और उनके शोषण पर शर्म आई, और उन्होंने हमें अपने हाल पर छोड़ देना श्रेयस्कर समझा, हमारी अहिंसा का फायदा उठाकर बड़े स्तर पर genocide करने की जगह.

लेकिन यह बात तब विश्वास योग्य नहीं लगती जब हम देखते हैं कि उन्हीं अंग्रेजो ने साउथ अफ्रीका में शासन और शोषण जारी रखा, और फिर नोर्थ अमेरिका में पिछड़े रेड इंडियन्स का बड़े स्तर पर नरसंहार (genocide) किया. इतना कि कभी नोर्थ अमेरिका में बहुसंख्यक रेड इंडियन वहां के बफैलो की ही तरह अब विलुप्त हैं.

तो निश्चय ही यह अपेक्षा करना मुश्किल है कि अंग्रेज एक पूर्ण रूप से अहिंसक आंदोलन के नैतिक प्रभाव से घबराकर हमें आजादी देने पर मजबूर हुये. हो सकता है कि यह भी एक कारक हो, लेकिन यह इकलौता कारक नहीं हो सकता. जरूर और भी लोग या आंदोलन होंगे जिन्हें इस आजादी का कुछ और श्रेय दिये जानी की जरुरत है.

बहुधा देखा गया है कि आक्रांता वर्ग अक्रांतित वर्ग की कमजोरी, या अहिंस प्रवृत्ति का फायदा उठाता है, न कि उस पर दया करके छोड़ देता है. जैसे क्या अपेक्षा की जाये की अगर मुहम्मद घोरी या चंगेज खान के आक्रमण के वक्त उसका स्वागत दियों और मालाओं से किया जाता तो वह जनसंहार और लूट की बजाय टीका लगवाकर वापस चले जाते? अगर ऐसा होता तो यह उपाय कमजोर वर्ग बहुत पहले ही इस्तेमाल कर लेता और इतिहास में जो वीभत्स नर-नारी संहार हुये हैं, वो नहीं होते.

***

आतंकवादी अहिंसकों पर ही हमला करते हैं. क्योंकि उन्हें पता है कि उन्हें विरोध का सामना करना नहीं पड़ेगा. अगर इन बम विस्फोट करने वालों को तैयारी करनी पड़ती की इस कार्यवाही में मृत्यु भी हो सकती है, तो उनमें से अधिसंख्य जामिया में पढ़ाई जारी रखना ही बेहतर समझते.

वो कोई आंदोलन या नैतिक मूल्य रखने वाले महान क्रांतिकारी नहीं थे. वो तो बहकाये हुये thrill seekers थे, जो अपनी चालाकी से बेहद खुश थे.

***

गांधीजी और लाल-बहादुर शास्त्री के जन्म दिन पर यह सवाल पूछना कठिन काम है कि इस समय वो कितने relevant हैं.

-- ओसामा को अगर शांती संदेश भेंजें तो शांती के लिये उसकी शर्तें क्या होंगी?
-- अगर सभी फिलस्तीनी हथियार छोड़कर इस्राइल में जुलूस निकालें तो क्या इस्राइली settlers घर लौट जायेंगे?
-- अगर कश्मीर से फौजें चलीं जायें तो क्या वहां  'भारत-माता की जय' के नारे लगने लगेंगें?

***

अहिंसा का असर उन्हीं पर होता है जिनके नैतिक मूल्य बहुत मजबूत हों. जहां नैतिक मूल्य का अभाव हो, वहां इस अहिंसा का फायदा बहुत आसानी से उठा लिया जाता है.

शेर का शिकार करने में डर लगता है. कबूतर अगर हाथ चढ़ जाये तो बच्चा भी मार लेता है.

लेकिन हिंसा का जवाब हिंसा बिल्कुल नहीं है, क्योंकि उससे सिर्फ और हिंसा का जन्म होगा. सही जवाब क्या है यह तो मुझे नहीं पता, लेकिन यह पता है कि गलत जवाब क्या होगा.

गलत जवाब होगा एक कमजोर समाज जो कायर आतंकवादियों से सहम कर घर में छुप जाये, या उकसकर सड़कों पर निकल आये.

Tuesday, September 30, 2008

अरे! ये महान वाम-पथ के चैंपियन

कम्युनिस्टों की बातें सुनकर एक अजीब सी उत्तेजना होती है. हां, वो दुनिया भी क्या होगी जहां सब बराबर हों. न कोई अमीर हो, न गरीब, हर साधन पर हर व्यक्ति का समान हक हो. कितनी प्यारी होगी वह दुनिया? और किसकी जिम्मेदारी है ऐसी दुनिया बनाना? आइये उनसे मिलें:

Fidel Castro1

1. फिडेल कास्ट्रो
अमेरिकी छाती पर 1959 से मूंग दल रहे हैं यह. अमेरिकी जमीन से कुछ ही दूर इनका देश है क्यूबा, जहां हर बच्चे को पैदा होते ही पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से नफरत, और अपने नेता फिडेल कास्ट्रो से प्यार सिखाया जाता है.

आये तो थे जिन्दगी पर सभी को बराबर का हक दिलाने. लेकिन 1959 से कुर्सी पर ऐसे बैठे कि उठने का मन फिर नहीं बना. महंगे सिगार पीते हुये सोचते रहे कि किस तरह गरीबों को उनका हक दिलाया जाये. समाधान ढूढंते-ढुंढ़ते बुढ़ा गये तो सत्ता अपने छोटे भाई को दे दी. बिल्कुल लालू यादव की तरह आखिर और कौन होगा उनके जितना जिम्मेदार?

अब शायद कुछ साल इनके भाई रॉल ये कठिन जिम्मेदारी संभालें. जब थक जायेंगे तो यकीनन उनके बाल-बेटे होंगे जिसे यह कठिन जिम्मेदारी वो सौंप पायें.

Robert Mugabe

2. रॉबर्ट मुगाबे
वो महान नेता जिसने गोरों के खिलाफ जिम्बाब्वे में हल्ला बोलकर तहलका मचा दिया, गोरों को खदेड़ दिया तो खुशी के मारे जनता ने इन्हें राष्ट्रपति बना दिया. काम इनको पसंद आ गया. 1980 से शौक फर्मा रहे हैं. बीच में तीन-चार बार नाम के चुनाव भी करवा चुके हैं. अपने दुश्मनों पर बहुत मेहरबान रहे हैं, कहते हैं कि कइयों को उनके बनाने वालों से मिलवा चुके हैं.

अब ये भी बूढ़े हो गये, आखिर बहुत सालों तक जनता को साम्यवाद बांटा है, थक भी गये. पुराने दोस्त अब उतारू हैं कि साहब को आराम करायें, और आगे समानता का अलख खुद जगायें.

hugo-chavez

3. ह्यूगो चावेज
बड़े मुखर वक्ता है. पूंजीवाद की हर बुराई का भरपूर ज्ञान है जिसे वक्त-बेवक्त बांटते रहते हैं. 1998 से वेनेजुयेला के राष्ट्रपति हैं. 1992 में सशस्त्र सत्ता-पलट में असफल रहे थे. पार्टी बनाकर चुनावी पलटी मार दी. साम्यवाद पर इतना भरोसा है कि मजदूर युनियनों के चुनाव भी राज्य के देख-रेख में कराते रहे हैं.

अभी जवान हैं, सिर्फ 10 साल हुये हैं सत्ता में. आगे इनमें बहुत संभावनायें हैं, कम-से-कम 30-35 साल और सत्ता में रहकर पूरी दुनिया के मजदूरों को एक करेंगे.

mao_main

4. माओ जेडोंग
वाम मार्गियों के लिये परम-पिता परमेश्वर से थोड़ा ही उपर रहे. इन्होंने चीन जैसे बड़े देश से पूंजीवाद का इस कदर नाश किया कि बाद में चीन अमेरिका के लिये most preferred investment destination बन गया. इन्होंने गांव के लोगों को गांव में, और शहर के लोगों को शहर में ही रखने का फरमान जारी किया. सभी की भलाई चाहते थे, इसलिये पूछने की जरुरत भी नहीं समझी कि कौन कहां रहना चाहता है.

बाद में इन्होंनें अपने देश को 'बड़ी ऊंची छलांग' (Great Leap Forward) लगवाई, जिसमें लोगों को अपनी खेती-बाड़ी छोड़कर सरकारी बेगार के लिये मजबूर करके पूंजीवादियों द्वारा मजबूर होने से बचा लिया. आज भी आधुनिक चीन तक में उनके सिखाये पाठ पढ़े चीनी नेता मजदूरों को खुद शोषित करके साम्राज्यवादियों द्वारा शोषित होने से बचाते हैं.

Monday, September 29, 2008

खाक चुनौती हैं मुसलमान साम्राज्यवाद के लिये.

साम्राज्यवाद - Imperialism. साम्राज्य - Empire. साम्राज्यवादी राज्य एक ऐसा राज्य जिसका उद्देश्य अपने साम्राज्य, या राज्य का विस्तार हो. कुछ लोगों को यह भ्रांति है कि मुसलमान साम्राज्यवाद के लिये अंतिम या इकलौती चुनौती हैं.

यह जो कथित पश्चिमी साम्राज्यवाद है, उसमें भी मुस्लिम हिस्सेदारी है.

आइये समझे की किस हद तक कुछ मुस्लिम राष्ट्र, और संस्थायें न सिर्फ इस साम्राज्यवाद की में शामिल हैं, बल्कि इसकी पोषक भी हैं.

इस समय दुनिया में अगर कोई देश है जो यह दावा करता है कि वो इस्लाम के उस रूप को मानता है जो शरियत में दर्शाया है, वो है सउदी अरब, जहां मक्का है.

मुसलमानों के लिये इस पवित्र देश में सबसे बड़ी मात्रा में जिस तत्व का उत्पादन और निर्यात किया जाता है, वह है तेल. इस तेल के बल पर विश्व की अर्थ-व्यवस्था चलती है.

तेल का सबसे बड़ा आयातक दुनिया का कथित तौर पर सबसे बड़ा साम्राज्यवादी देश - अमेरिका है. सउदी अरब के शासक शेख तेल का निर्यात करके डालरों का आयात करते हैं. लेकिन यह डालर सउद बैंको में पड़े नहीं रहते, इनका निवेश किया जाता है. कहां? क्या किसी मुस्लिम देश में (हां जरूर, आखिर विश्व के आतंकवाद का सबसे बड़ा फाइनेन्सर भी सउद ही है)? नहीं, इस पैसे को लगाया जाता है और पैसा बनाने के लिये.

जिस अमेरिकी अर्थव्यवस्था के बारे में दावा किया जा रहा है कि वो साम्राज्यवादी है उसमें सउद अपनी सारी आय का 60% निवेश करते हैं, 30% यूरोप में किया जाता है, और 10% बाकी दुनिया में.

सउदी डालरों का ही प्रताप है कि अमेरिकी कंपनियों के पास किसी भी उद्यम के लिये पैसे की कमी नहीं. अमेरिका में होने वाले कुल सलाना निवेश का 35% सउदी अरब से आता है, यह हिस्सेदारी किसी भी और देश से ज्यादा है. सउदी अरब के $860 अरब अमेरिका में निवेशित हैं (जो की अमेरिकी अर्थव्यवस्था का 6‍% है). और बहुत सारी बड़ी कंपनियां जिन्हें आप अमेरिकी मान बैठे हैं (और जो यकीनन साम्राज्यवादी लगेंगी) असल में अब सउदी अरब की हैं. कुछ कंपनियां जिनमें सउदी अरब ने बहुत बड़ा निवेश किया है - Apple computers, AOL, News Corp, Saks Inc. अमेरिकी बैंक Citibank (याद रखिये यह इस्लामिक बैंकिग के खिलाफ बैंकिग करती है) में भी अबु-धाबी के शेख अल-वालिद का majority stake है.

मतलब बहुत सारी 'साम्राज्यवादी' कंपनियां जिन्हें आप अमेरिकी मान बैठे हैं, असल में अपने मुसलमान आकाओं का ही साम्राज्यवाद फैला रहीं हैं.

साथ ही यह न भूलें की कथित साम्राज्यवादी अमेरिका की तरह इन सउदी देशों में भी दौलत कुछ ही हाथों में फंसी है. यहां के राज परिवारों पर आरोप है कि इन्होंने लगभग $800 अरब देश से बाहर छुपा रखा है.

इन देशों में एक तिहाई से आधी जनसंख्या बेरोजगार है. इन्हीं का ध्यान अपने द्वारा बनाई गई समस्याओं से हटाने के लिये सउदी राजनीतिज्ञ शोषण-शोषण चिल्ला कर आतंकवाद को हर-संभव मदद पहुंचा रहे हैं. साफ बात है, जिस भी व्यक्ति में क्रांति पैदा करने की ताकत और हिम्मत हो, उसे आतंकवादी बना कर देश से बाहर एक फालतू के डर से लड़ने भेज दो. अब देश में जो बच गया, उस पर सउद राजा आसानी से शासन कर लेंगे.

साम्राज्यवाद सिर्फ सउदी अरब के मुसलमान ही नहीं फैला रहे, दुबई में तो हालात इससे भी बदतर हैं. दुबई कि कंपनियां सारे विश्व में मशहूर है अपने न्याय विरोधी तरीकों के लिये. इनका लक्ष्य कुछ भी करके कान्ट्रेक्ट हासिल करना रहा है, और मौका मिलने पर यह लोगों को बेवकूफ बनाने की हर संभव कोशिश करती हैं.

अभी थोड़े ही दिनों पहले दुबई की एक कंपनी Emaar MGF ने भारत में पब्लिक इश्यु निकाला. इसे स्टॉक बूम का फायदा उठाने के लिये इतना महंगा रखा गया कि यह इस कंपनी की parent company की कुल कीमत से भी बड़ा रहता. लेकिन भारतीय निवेशक बेवकूफ नहीं बने, और यह असफल रहा.

बाकी कौन से मुस्लिम देश बचे? विश्व का सबसे बड़ा मुस्लिम देश - Indonesia. यहां का सलेम ग्रुप भी भारत-भूमि पर वाम-मार्गियों से सांठ-गांठ करके बहुत सी उपजाऊ भूमि हथिया चुका है जिसका विरोध भी हुआ है. यहां पूरी तरह से मार्केट अर्थ-व्यवस्था हैं.

मलेशिया में मुस्लिम बहुल आबादी की एक ही आकांक्षा है, उनसे अमीर चीनी व्यापारियों को खदेड़ कर व्यापार पर कब्जा करना. चीनियों को तो दमदार चीन की वजह से नहीं दबा पाये, लेकिन भारतियों को एकदम साम्राज्यवादी तरीकों से कुचल रखा है. (कुछ ही दिन पहले भारतीयों से विरोध का भी हक छीन लिया गया, याद कीजिये वो खबरें जिसमें अत्याचार विरोधियों को आतंकवादी बताया गया).

***

असल में यह भूल भोले लोग करते हैं फिलिस्तीन, अफगानिस्तान, इराक आदी को देखकर.

सच तो यह है कि उक्त सारे देश साम्राज्यवाद से नहीं, अमेरिका, या पश्चिम से लड़ रहे हैं. इसलिये नहीं की इनको साम्राज्यवाद से कोई परेशानी है, बल्कि इसलिये की सिक्का इनका नहीं चल रहा. (इराक तो खासा साम्रज्यवादी रहा है, और इरान भी -- इन देशों के आपसी, और कुवैत से होने वाले युद्ध याद करें)

जो एकाध देश छूट गये उन पर दया कीजिये, उनके लिये साम्राज्यवाद विरोधी होने के अलावा कोई चारा नहीं, क्योंकि उनके पास तो खाने-पीने की ही समस्या है. मतलब अगर वो साम्राज्यवादी होने का दावा करते तो बात यूं रहती - जेब में नहीं दाने, अम्मां चली भुनाने.

क्या अब भी आप इस सपने में जी रहें हैं कि मुसलमान साम्राज्यवाद के लिये अंतिम चुनौती हैं?

Friday, September 26, 2008

क्या क्रिश्चियन आतंकवाद भी कभी था

अमेरिकन लोगों में यह बात प्रचलित है कि उनकी सरकार को नये-नये terms गढ़ने का शौक है, जैसे collateral damage, ऐसी ही एक देन है islamic terror, मतलब आतंकवाद को धार्मिक जामा पहनाना.

यह बहुत सुविधाजनक उपाय है. किसी भी कौम के खिलाफ नफरत भरने का. लोगों की जबान पर शब्द चढ़ा दीजिये, और धीरे-धीरे उनकी सोच भी वही बन जायेगी. इसी बात के बारे में जार्ज आर्वेल ने अपनी किताब 1984 लिखी थी.

लेकिन अगर आतंकवाद धार्मिक हो, तो christian terror इस्लामिक आतंकवाद से कुछ कम टेरेराइज़िंग नहीं था. आइये शुरुआत करें बाइबिल की कुछ आयतों से.

1. Ezekiel 9:6 "Slay utterly old and young, both maids, and little children, and women . . ."

2. Isaiah 13:16 "Their children also shall be dashed to pieces before their eyes; their houses shall be spoiled, and their wives ravished."

3. They entered into a covenant to seek the Lord, the God of their fathers, with all their heart and soul; and everyone who would not seek the Lord, the God of Israel, was to be put to death, whether small or great, whether man or woman. (2 Chronicles 15:12-13 NAB)

4. Suppose a man or woman among you, in one of your towns that the LORD your God is giving you, has done evil in the sight of the LORD your God and has violated the covenant by serving other gods or by worshiping the sun, the moon, or any of the forces of heaven, which I have strictly forbidden. When you hear about it, investigate the matter thoroughly. If it is true that this detestable thing has been done in Israel, then that man or woman must be taken to the gates of the town and stoned to death. (Deuteronomy 17:2-5 NLT)


ये सारी लाइनें बाइबिल के संस्करणों से हैं. यह सिर्फ तीन या तीस नहीं हैं. अगर आप उन लाइनों की पूरी सूची देखना चाहते हैं जो इन्सानियत के खिलाफ हैं तो इस पन्ने पर जाइये - http://www.evilbible.com/

क्रिश्चियन धर्म के कुछ पोप धार्मिक क्रूरता के मामले में ओसामा से भी मीलों आगे रहे हैं. ओसामा तो सिर्फ एक घटना में 5 हजार लोगों की हत्या कर सका लेकिन क्रिश्चियनों के जेहाद की एक बानगी यह देखिये : -

अर्नाड ने पोप Innocent III (innocent मतलब निर्दोष?) को लिखा
"आज के दिन, ऐ पुण्यात्मा, बीस हजार काफिरों (heretics) को तलवार के घाट उतारा. बिना परवाह किये स्थिति, उम्र, या लिंग के."

रोम के कैथोलिक चर्च ने हर उस उपाय का उपयोग किया जिससे दूसरे धर्मों का नाश, और स्वधर्म का प्रसार हो सके. चाहे वह हों: -

1. धार्मिक जेहाद (Crusades)
2. दूसरे मत वालों की हत्या (Trials & burning of heretics en masse)
3. धर्म की रुढ़ीयों को न मानने वालों की हत्या (Death of Galileo & Socrates, and millions others)


कहते हैं कि हिटलर द्वारा यहूदियों के संहार को मिलाकर कई करोड़ लोग क्रिश्चियन चर्च की धार्मिक हिंसा का शिकार हुए. यह संख्या कोई छोटी-मोटी नहीं है. इन हत्याओं में चर्च की सहमति, उसका आदेश, और प्रोत्साहन था. धर्म के नाम पर कत्ल करना पोप के कथनानुसार सबाब दिलवाता था, जिससे निश्चित ही स्वर्ग में जगह मिलती.

उस समय चर्च की स्थिती राजा से भी शक्तिशाली थी. और धार्मिक सत्ताधारी पोप और उसके गुर्गे आज के कुछ इमामों और मौलवियों की तरह लोगों को भड़काकर कुछ भी करवा लेते थे.

यीसू ने अपना खून बहाकर हम सबको बचा लिया. यह कहता है क्रिश्चियन धर्म. एक ऐसा मसीह जो इस कदर दया से भरा थी कि खुद जान दी इन्सानों के लिये. ऐसे धर्म के मानने वाले सबका खून बहाने में लगे थे.

तो फिर जो चर्च पहले पूरे समाज को हत्या के लिये उकसा पाता था, आज ऐसा क्यों नहीं कर पाता?

दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना.

क्रिश्चियन धर्म में बदलाव दूसरे धर्म के लोगों की समझाइश, या जोर आजमाइश से नहीं, उसी धर्म के भीतर पैदा होने वाले समझदार लोगों की वजह से हुआ.

कैथोलिक चर्च के खूनी खेल की वजह से बहुत सारे क्रिश्चियन वहां से अलग होने लगे, और नये समुदाय गठित होते रहे. इनमें से कूछ का तो कैथोलिक चर्च के द्वारा समूल नाश भी किया गया. लेकिन प्रोटेस्टेंट मजबूत हो गये, साथ ही राज्य जब समझ गया की चर्च के रहते राजा के पास पृर्णाधिकार नहीं है, तो उसने चर्च को राज्य से अलग करने की मुहिम चलाई.

परिणाम स्वरूप आज चर्च दया और प्रेम की बात करता है. जब साइंसदां कहते हैं कि सूर्य पृथ्वी के नहीं, पृथ्वी सूर्य के चारों और घूमती है, तो उनके जलाने के बजाय बाइबिल में सुधार की बाते करता है.

यह कैसा बदलाव, कैसा अबाउट टर्न आया?

***

आज जो लोग 'इस्लामिक आतंकवाद' डर रहे हैं उन्हें भी पता चले की इतिहास खुद को दोहरा रहा है.

जो कट्टरपंथी हैं इस्लाम के, उनका इलाज इस्लाम के ही बुद्धजीवी, इस्लाम के moderates, इस्लाम के heroes के पास ही है.

अगर christian terrorism काबू में आ सकता है, तो islamic terrorism भी.

आप सड़ें चाहे गलें, लेकिन अगर हमारा साथ छोड़ा, तो मिटा देंगे

हिन्दू धर्म की रक्षा हेतू निकल पड़े हैं तेजोमय वीर. ओत-प्रोत है वो भग्वद-भक्ती के भाव में. माने बैठें है खुद को श्रीकृष्णावतार जो संकल्पित है धर्म की ग्लानी और अधर्म के अभ्युत्थान को रोकने के लिये. निकल पड़े है ले-ले लट्ठ, पेट्रोल, तमंचा, चाकू धर्मांतरण के खिलाफ.

बांके वीर, जिनकी छवि देखते ही बने.

धर्मांतरण के खिलाफ इस हिंसक घटनाओं को सिर्फ हालिया घटनाओं का प्रतिफल समझ लेना गलती होगी. यह परिणाम है धर्म के ठेकेदारों की लंबी मुहिम का जिसमें बेकार बैठें हुये नौजवानों को brain-wash करके इस्तेमाल किया जा रहा है. (यही कुछ मौलवी भी कर रहे हैं, और पादरी भी). क्रिस्तानी नक्सलियों द्वारा हिंदू साधू का कत्ल तो बहाना मात्र था इस योजना पर अमली जामा पहनाने का.

बहुत सही खेल है यह. हर धर्म का ठेकेदार जुटा है इसमें कि कहीं लोग धार्मिक रूढ़ियां तोड़ कर आजाद न हो जायें.

***

किस भी व्यक्ति को अगवा करना गलत है. उसे अपनी मर्जी के बिना आचरण के लिये मजबूर करना गलत है. यह सरकारी नहीं, इन्सानी कानून की बात है. तो फिर किस बिना पर किसी भी व्यक्ति को कोई भी धर्म छोड़ कर दूसरा धर्म अपनाने से रोका जा सकता है?

ये बांके वीर जो धर्मांतरण के खिलाफ चर्च फूंकने में लगे है, क्या आपके उसी परम-पिता परमेश्वर के आदेश पर ऐसा कर रहे हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि वह हर मानव का कल्याण चाहता है?

***

किसी भी चर्च को जलाने से पहले.
किसी भी नव-क्रिस्तानी को सताने से पहले.
किसी भी किस्तानी पादरी को धार्मिक प्रचार से रोकने से पहले.

हम ये क्यों नहीं सोचते कि क्यों धर्म परिवर्तन करते हैं लोग.

क्या देते हैं यह पादरी उस परिवार को जो चला जाता है 'येसू मसीह' की शरण में?
क्यों धुंधले पड़ जाते है आपके पीढ़ीयों के संस्कार?
क्यों लोग छोड़ने को तैयार हो जाते हैं अपने उस समाज, और परिवार को जिसमें से निकाला जाना बहुत बड़ी सजा है?

जवाब है -
एक बेहतर कल.

इस देश में सारी प्रशासनिक सेवाओं, व्यापार, व नौकरियों में हिन्दू ही भरे हैं. देश के बड़े अमीरों में भी अधिसंख्य हिन्दू हैं. फिर भी हिन्दुओं को 'पैसे, और शिक्षा' के द्वारा अपने धर्म के प्रसार करने वाले क्रिस्तानी संगठनों से खतरा महसूस होता है?

क्या हिन्दू धार्मिक संगठन सिर्फ मंदिर और मूर्ति ही बना सकते हैं?
क्या पुजारी-पंडे सिर्फ भजन, श्लोक और दक्षिणा ही जानते हैं?

जिन्हें चर्च के स्कूलों से डर लगता है, उन्होंने गुरुकुलों को क्यों नष्ट होने दिया?
क्या इस्तेमाल होता है उन करोंड़ो अरबों रुपयों का जो हर साल छोटे बड़े मंदिरों में दान के स्वरूप आते हैं?
क्या यह रकम चर्च के हिन्दुस्तान के सलाना बजट से कम है?

तो फिर क्यों चर्च के स्कूल ज्यादा हैं?
क्यों उनकी कल्याणकारी संस्थान ज्यादा हैं?
क्यों वो बेहतर तरीके से खुद को प्रचारित प्रसारित कर पाते हैं?


जो हिंदू 200 करोड़ का मंदिर बनवा कर गौरवान्वित महसूस करते हैं, वो देखें की उसके बगल में दो कमरों का स्कूल भी नहीं. लेकिन हर दो-कमरे के चर्च के साथ दस कमरों का स्कूल बनाया जाता है.

कैसे करेंगे आप उनसे मुकाबला?

***

धार्मिक कदाचारी वह नहीं हैं जो धर्म परिवर्तन करवा रहे हैं, या वह जो कर रहे हैं.

धार्मिक कदाचारी वह हैं जो अपने धर्म की कमजोरियों (जो नींव है इस समस्या का) की जगह सतही समाधान में जुटे हैं.

ये अपने मकसद में तो क्या सफल होंगे, बस इस देश के देशवासियों को थोड़ा और अलग-थलग कर देंगे.

Thursday, September 25, 2008

'नरेन्दर मोदी को अगर सजा मिल गया होता, तो आज टरेरिस्ट बने हैं जो नौजवान... वो नहीं होता'

lalu

सरकार किनकी धर-पकड़ कर रही है? काहे का पोटा, और काहे का सुरक्षा बल, इस पूरी समस्या का हल तो लालू प्रसाद यादव ने बता दिया है. सीधे नरेन्द्र मोदी को पकड़ कर फांसी पर चढ़ा दो, आतंकवाद की समस्या हल है जी!

शीर्षक के उद्गार लालू प्रसाद ने जी-टीवी को दी गई अपनी बाइट में कहे हैं. मौका था जस्टिस नानावटी के छ: साली जांच की शुरुआती रपट का. जिसमें बताया गया है कि उस घटना के लिये नरेन्द्र मोदी नहीं, गोधरा का ही एक मौलवी जिम्मेदार है. 140 लीटर पैट्रोल खरीदा गया था उन मर्दों, औरतों और बच्चों को जिंदा जलाने के लिये. क्या कूवत थी उस आग में. इतनी सही जगह लगी की पूरा गुजरात जल उठा.

बहरहाल बात करें लालू के 'नरेन्दर मोदी' की. क्या बात कही है बिहारी बाबू ने. नाहक मोहन चन्द्र शर्मा ने जान गवायीं आतंकवादियों को पकड़ने में. कह देते - नहीं भाई, आप तो नरेन्द्र मोदी को पकड़िये, सारे आतंकवादी खुद ही आत्म समर्पण कर देंगे.

लालू जैसे देशहित के चिंतक हैं हमारे देश में, जो मामले की तह तक जाते हैं. ये अदालतें, पुलिस, जांच एजेंसियां सब बेबात हैं. दुख है कि लालू रेल मंत्री हुये, गृह मंत्री न हुये. वरना अब तक करवा देते 'नरेन्दर मोदी' का एनकाउन्टर की लाओ, टंटा ही समेटें.

कृपा है लालू जी की इन 'नौजवानों' का इलाज उन्होंने बता दिया. अब आप सबसे पढ़ने वालों से विनती है कि जरा लालू जी से अपील करिये कि ये भी बता दें की कश्मीर में जो 'नौजवान' आतंकवाद में लगे हैं, उन्हें सही राह पर लाने के लिये किसको सजा 'मिलना' चाहिये. किसे चढ़ायें फांसी पर? अटल बिहारी को? आडवाणी को?

***

मन की कड़वाहट शब्दों से क्या बयां कर पाऊंगा. कौन से शब्द लाऊं, कहां से लाऊं जो उस घृणा, उस वितृष्णा, उस बेचारगी, उस कसक को बयां करें जो इस समय महसूस हो रही है.

***

पता नहीं नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में क्या किया. पता नहीं कितना दोषी है वह. बस यह पता है कि इस तरह आतंकवादियों के कृत्यों का औचित्य निकाल कर उन्हें शह देना दर्दनाक है.

Tuesday, September 23, 2008

सुनिये पुण्य प्रसून बाजपेयी से मुठभेड़ का आंखों देखा हाल

pp_bajpayee

"और उसने जिसे मोबाइल से फोन किया खून से लथपथ इंसपेक्टर शर्मा थे..जो सिग्नल का इंतजार कर रहे थे। जिन्होंने दरवाजा खुलते ही गोलियां दागी । और उन लडकों ने भी गोलिया दागीं ।" (लेख यहां है)

ये किसी बौराये हुये आतंकवाद समर्थक की कल्पना नहीं है, यह है एक बेहद जिम्मेदार कहे जाने वाले पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी का चित्रण, उस घटना का जिसने दिल्ली को अंदर तक हिला दिया.

पुण्य प्रसून को दिल के किसी कोने में विश्वास है कि वो पुलिस वाला जो मारा गया दरवाजा खुलते ही गोलिया चला रहा था. लेकिन वो जिसने 35 आतंकवादियों को मारा, घुस गया गोलियां चलाते हुआ बिना बुलेटप्रूफ वेस्ट के (जिसका साथ शायद ही कोई एनकाउंटर के लिये जाने वाला आफिसर छोड़े), और कैसा कच्चा निशानेबाज निकला की हर वार चूका, और खुद ही गोलियों का शिकार हुआ.

उन भोले लड़कों की गोलियां का जो 'होनहार' विद्यार्थी थे, और जिनके साथियों के समर्थन में एक विश्वविद्यालय का वाइस-चांसलर खड़ा है.

पुण्य प्रसून को विश्वास है कि पुलिस का हर आदमी कमीना है, क्योंकि वो आने-जाने वाले लोगों को रोकते हैं. उनसे सवाल करते हैं.

उन्हें शौक है न सवाल करने का? घर में लेट के खटिया तोड़ने से बेहतर उन्हें बारिश-गर्मी-सर्दी-रात में राह किनारे खड़े होकर आने-जाने लोगों को परेशान करना लगता है. पुण्य प्रसून के लेख से साफ है कि वो चाहते हैं कि राहगीरों से सवाल न किये जायें. किसी को रोका न जाये.

क्यों इतने सारे पुलिस वाले खड़े हैं जामिया नगर में? सब घर जायें.  आराम करें. यकीनन वो पुलिस वाले भी यही चाहते होंगे.

उस घर का दरवाजा खटखटाते वक्त मोहन चन्द्र शर्मा शायद जानता होगा कि अन्दर से जो गोलियां बरसेगीं, वो लेमनचूस की नहीं होंगी, बंदूक की होंगी. फिर भी उसने खटखटाया वो दरवाजा, क्योंकि उसे शौक था गोलियां का सामना करने का. और उसे शौक था मरने के बाद अपनी फजीहत उन पत्रकारों से कराने का जिन्हें क्रिमिनल्स पास बिठाकर, कोला पिलाकर, फोटो खिंचाकर, इंटरव्यू देते हैं.

पुण्य प्रसून कश्मीर के शोपायां इलाके में हो आये, पूरी तरह सेना के प्रोटेक्शन में. और भी दस जगह हो आये होंगे. उन्हें क्या मुश्किल? आतंकवादी भी उन्हें कहवा पिलायेंगे, कि चलो अपना ये यार अपना नाम करेगा चैनल पर. मुश्किल है उस बाशिंदे की जो किसी बड़े चैनल से जुड़ा नहीं. जिसको रोजाना रिजक कमानी है उसी बाजार में जिस में बम फटा.

उसे तो अच्छे लगते होंगे वो पुलिस वाले जो खड़े हैं हर मुश्किल सह कर, कि आगे कोई बम न फूटे, आगे निर्दोष न मरें.

पुण्य प्रसून का क्या? उनका काम तो बम फटने के बाद शुरु होना है न?

तो फिर धर्मांतरण भी जायज है

क्या इन्सान के जीवन की सबसे बड़ी जिम्मेदारी अपने मजहब को मौलवीयों और पंडो के बनाये हुये standards पर चला कर दिखाने की है? नहीं, बिला शक नहीं. किसी भी मानव की सबसे बड़ी जिम्मेदारी खुद को, अपने परिवार को, और अपने देश के प्रति है. उसकी जिम्मेदारी है खुद को अपने परिवार को, और देश को इज्जत की existence देना. उनके लिये बेहतर भविष्य का निर्माण करना.

लेकिन आज के समाज में धर्म को इतना ऊंचा दर्जा दे दिया गया है कि इस पर सब कुछ कुर्बान है. ऐसे समाज में जब धर्मांतरण का मुद्दा उठता है तो कुछ लोगों का खून खौल उठता है, और वो सब होने लगता है जिसकी इजाजत किसी धर्म में नहीं.

आइये, इस बाबत कुछ सवाल पूछें जायें.

1 - कोई भी व्यक्ति धर्म न बदले यह उसका चुनाव है. इसी तरह जो व्यक्ति धर्म बदले वह उसका चुनाव है, तो उसे किस बिना पर रोका जाये?
2 - उसे रोकने से पहले इस बात की खोज क्यों न की जाये की धर्मांतरण क्यों चुना?
3 - जो लोग प्रलोभन के चलते धर्म बदलने को तैयार हो, निश्चित ही उन्हें अपने खुदा पर यकीन नहीं. तो ऐसे लोगों कि इस धर्म को क्या जरुरत है?
4 - क्या उस धर्म में ऐसा कुछ होगा जिसकी वजह से किसी व्यक्ति को लगे की धर्म बदल लेना चाहिये?

हां, चौथा सवाल सबसे सामयिक है. क्या है उस धर्म की कमजोरियां जिनकी वजह से कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन चुनेगा.

अ. अगर उस धर्म में जाती प्रथा हो जिसकी वजह से किसी तबके को लगातार हेय समझा जाये तो क्या वह तबका धर्म नहीं छोड़ना चाहेगा?
आ. अगर वह धर्म व्यक्ति को वह सब न दे जिसकी उसे जरुरत है (शिक्षा, अच्छी जिन्दगी, संतोष), और सिर्फ ढकोसले में ही डूबा रहे तो क्यों वह धर्म नहीं बदले?
इ. अगर उस धर्म में अतंर्कलह हो, जो उस धर्म को कमजोर करे, तो कैसे रोका जाये धर्मांतरण?

जब कभी धर्मांतरण होता दिखे तो क्यों न हम दूसरे तरीके से सोचें -- क्यों न हम सोचें की ऐसा क्या था जो उस व्यक्ति को हमारा या आपका धर्म खराब दिखा जो वह दूसरे धर्म में गया. क्यों न हम सोचें की हम धर्म में जनकल्याण कैसे सम्मिलित करें जिससे दूसरे धर्मों के व्यक्तियों को लगे कि इस धर्म में जाना है?

अगर इस धर्म के लोगों को धर्मांतरण रोकना है तो पहले कुछ संकल्प करें

-- जाती छोड़िये (यह जाती प्रथा में विश्वास न करने से बड़ा कदम है)
-- धर्म का उद्देश्य पंडा-मौलवी कल्य़ाण नहीं, जन कल्याण को बनाइये
-- हर धार्मिक स्थल के साथ स्कूल का निर्माण करिये
-- यह अपेक्षा न करिये की जिनका आपका समाज शोषण कर रहा है, वह आपका साथ दे.
-- धर्म को जीवन का लक्ष्य नहीं, हिस्सा बनाइये.

या इससे भी अच्छा रहेगा:

इन्सान बनें, धार्मिक नहीं. धर्म छोड़िये.

Monday, September 22, 2008

जब सब कुछ साफ-साफ दिखे, तो अंधेरे में तीर चलाने की जिद क्यों?

terrorist

जब बात देश से जुड़े मुद्दों की आती है, तो कुछ लोग क्रियटेविटी (रचनाशीलता) की हर हद पार कर जाते हैं. अपने पूर्वाग्रह और छुपे एजेंडे को सही साबित करने के लिये वो किसी भी सच को झूठ बना सकते हैं.

सच बड़ा delicate होता है. एक खरोंच भी उसकी खूबसूरती नष्ट कर देती है. बहुत आसान है सच को नुक्सान पहुंचाना, बस थोड़े विश्वसनीय से सुनाई देने वाले बेवकूफी के प्रश्न उठा दिये जायें. साथ ही एकाध जुमला जोड़ दिया जाये मानवहित, या ऐसे ही किसी उंचे आदर्श का. बेशक आप उस आदर्श से कोसों दूर हों.

ऐसी कुत्सित बातें किसी की शहादत को भी धूमिल कर देती हैं.

जैसे मोहन चन्द्र शर्मा के साथ किया जा रहा है. जिन लोगों के गले आतंकवाद का सच नहीं उतर रहा, वो लगे हैं अपना कलुषित एजेंडा लागू करने. इसलिये मोहन चन्द्र शर्मा के लिये कहा जा रहा है कि उनकी हत्या आतंकवादियों ने नहीं, उन्हीं के साथियों ने की. इसलिये नहीं कि मोहन चन्द्र शर्मा को इन्साफ दिलाना है, बल्कि इसलिये की वो कैसे भी करके उन आतंकियों कि घिनौनेपन को भोलेपन की चादर से ढांप सकें.

इसलिये दरकिनार कर दिया जाता है उस गवाही को जिसके दम पर हत्यारे सैफ का स्केच बना. इन अंधो को वो असला, वो शूटिंग नहीं दिखी जो उस दिन वहां घटित हुई, उन्हें दिखे आतंकियों के मां-बाप जो कसमें ले रहे थे कि उनके बच्चे तो बछड़े थे, जो सिर्फ घास को ही नुक्सान पहुंचा सकते थे.

क्यों ये घृणित एजेंडे वाले घृ्णित लोग मानव व्यवहार के बारे में ऐसी नासमझी दिखाते हैं? कौन से ऐसे मां-बाप हैं जो कहेंगे कि हां, हमने भरा अपने बच्चों के दिल में धार्मिक पूर्वाग्रह, हमने बताया हर मोड़ पर उन्हें की दूसरे धर्म वालों से हम नफरत करते हैं, डरते हैं उनसे, और उनकी संस्कृति हेय लगती है हमें.

और अगर आपको लगता है कि मां-बाप ऐसा नहीं करते, तो आप मूढ़ होने का नाटक कर रहे हैं. क्योंकि कोई भी इतना मूढ़ नहीं हो सकता.

अगर इसी तरह हर शाहादत पर शक पैदा किया जाता रहा, आतंकवाद के खिलाफ हर कदम को धर्म से जोड़ा जाता रहा, और मजहब के नाम पर आतंकवादियों को शह देनें की कोशिश की जाती रही तो आतंकवाद इस समाज के ऐसे दो फाड़ करेगा जो आपस में कभी नहीं मिलेंगे, ठीक नदी के दो किनारों की तरह.

आप जो तीर अंधेरे में चला रहे हैं... आपको नहीं दिखता, लेकिन निशाने पर आप ही का सीना है.

Saturday, September 20, 2008

भुला दो ये बाइबल, ये कुरान, ये गीता, ये पुराण #2

Img11

ये भी भूलने की बात नहीं कि ज्यादातर धर्म जिनकी आज बड़ी हैसियत है, पिछले तीन-चार हजार सालों के अंदर बनाये गये. हिन्दू धर्म भी इसका अपवाद नहीं, चाहे इसके मानने वाले इसे कितना ही पुराना मानें, किंतु पिछले चार हजार सालों में ही इसने वह संगठित (organized) स्वरूप प्राप्त किया जिसमें यह आज है.

यह वक्त इन्सानी सभ्यता में एक महत्वपूर्ण बदलाव का था. इस समय तक इन्सान खेती की कला अच्छी तरह सीख चुका था, और उसका बसेरा जंगलो की जगह गांवो में होने लगा था.

लगता है कि जो फुर्सत इन्सान को काम-काज और अपने बचाव से मिली, उसका इस्तेमाल नई-नई इजादों को लाने में किया, और शायद इन्हीं सब इजादों के बीच उसने खुदा के नये स्वरूप की भी इजाद कर डाली.

अब गौर करें की खुदा का जन्म कैसे हुआ

1. खुदा डर के समय अनजान सहारे की ख्वाहिश थी
बहुत उम्दा ख्याल है. जब आप मुसीबत में हो तब कोई सुपरमैन आपको बचा लेगा. खुदा का जन्म ऐसे ही हुआ होगा. एक तूफानी रात को अपना घर बचाने किसी बशर ने किसी अनजान खुदा से अर्ज की होगी की बारिश रोक दे. फिर तो ये परिपाटी चल निकली होगी, और हर मर्ज की दवा दुआ बन गई होगी.

2. खुदा डर भी था
उस समय शायद वक्त को भी खुदा की ख्वाहिश थी. कमजोर लोगों की लाठी था खुदा, और मजबूतों के लिये डर. एक ऐसी हस्ती जो सबसे जोरदार हो, जिसकी निगाह सब पर हो, जिससे कोई गुनाह छिपा न हो, जो सबका फैसला करे.

जब कानून का सहारा न हो, तो खुदा का डर ही जालिमों को फिक्रमन्द करता होगा.

3. और ईनाम भी
वह वक्त ऐसा था जब मानव कुदरत से ज्यादा ताकतवतर साबित हो रहा था. कुदरत उस समय अपनी दुश्मन नहीं, अपने लिये ईनाम लगने लगी, और इस ईनाम को अता करने का श्रेय भी खुदा को दे दिया गया.

यह तो जायज ही है, आखिरकार सजा की जिम्मेदारी भी खुदा की थी तो गिजा भी वह ही क्यों न दे.

क्रमश: (अगली किश्त में जारी)

नोट: आप सबके कमेन्ट्स का शुक्रिया. आपका रिसपोन्स उम्मीद से ज्यादा सकारात्मक रहा. क्योंकि यहां तो यह हालत है कि धर्म में अगर पांखड के भी खिलाफ कुछ कहा जाये तो मोर्चा खुल जाता है.

बहरहाल, यह मुहिम जारी रहेगी.

Friday, September 19, 2008

शहीदों की उम्र कम होती है पर जिंदगी बड़ी

दिल्ली पुलिस के इन्सपेक्टर मोहन चन्द्र शर्मा आज आतंकवादियों से मुकाबला करते हुये शहीद हो गये. वो इस एनकाउन्टर को आगे से लीड कर रहे थे, आतंकियों की संख्या और असले की फिक्र करे बिना भिड़ गये, और चार गोलियों झेलीं.

इस जाबांज सिपाही ने अब तक 35 आतंकवादियों को ढेर किया, और 85 आतंकियों को कानून के हाथों तक पहुंचाया. इनके बारे में कहते थे कि इन्हें आतंकियों को पकड़ने में महारत है.

ऐसे शानदार आफिसर का जाना दिल्ली और देश के लिये बड़ा दुख है.

हमीं जांनिसार हैं हिन्द के, हमीं दिलफिगार हैं हिन्द के
हमें पास महरो-वफा का है, उन्हें जान दे के दिखा दिया
(खलीक)

इन्हें नमन.

कुछ ज्यादा कह नहीं पा रहा. शब्द नहीं मिलते.

भुला दो ये बाइबल, ये कुरान, ये गीता, ये पुराण #1

picture128lz1

अपने मनोहारी अतीत के मुगालते में हम उन बुर्जुआ विचारकों की लीद ढो रहे हैं जो बर्बरता से सिर्फ दो सीढ़ी ऊपर थे. उनकी याद में हम जाति, सम्प्रदाय, रंग, धर्म और न जाने किस-किस पर भेद कर लेते हैं.

फिलहाल दुनिया की सबसे बड़ी परेशानी धर्म है. दुनिया भर का हर धार्मिक व्यक्ति को पूरी तरह विश्वास है कि उसका धर्म ही आखिरी सत्य है और विश्व के बाकी 500-करोड़ बाशिंदे सीधे दोजख/नर्क/Hell/Your version में जाने वाले हैं.

सभी को विश्चास है कि दुनिया को परमात्मा के उनके संस्करण ने बनाया, और सभी मनुष्यों का रचेयता वो शक्तिशाली खुदा सभी मनुष्यों का फैसला करेगा.

लेकिन कोई धर्म हो, दुनिया के अधिसंख्य लोग उसके विधर्मी होंगे. फिर क्या मजाक है वह परमात्मा जिसपर दुनिया के ज्यादातर लोगों को यकीन नहीं?

कोई साधारण बुद्धी रखने वाला मनुष्य भी थोड़ा सोच-विचार कर इस असलियत को समझ सकता है. फिर क्या कारण है इस अंध-विश्वास का?

1. हम हैं खुदा की भेड़ें/गैयां
हर धर्म का जोर है निश्शंक भरोसे (unquestioning faith) पर. आपको आदेश है ईश्वर की भेड़े बनने का, जिन्हें जहां मर्जी हो धर्म के ठेकेदार हांक ले जायें. जहां आपने सवाल किया आप काफिर, हेरेटिक, धर्मच्युत, और न जाने क्या-क्या हो जायेंगे. जब-जब सवाल पैदा होता है, तब-तब धार्मिक ठेकेदार धर्मांध मूढ़ों द्वारा दमन करवाते हैं (आगे के लेखों में जानेंगे इसके उदाहरण).

सबसे पहले तो धर्म पर शंका करो, खुदा पर शंका करो, पूज्य किताबों पर शंका करो.

2. बचपन से ब्रेनवाश
हर बच्चा खुला (या खाली) दिमाग लेकर पैदा होता है. उसमें आप जो रंग भर दें वही खिल उठेगा. किसी को यीशू पर यकीन दिलाया, तो किसी को मुहम्मद पर, बाकी जो बचे राम, कृष्ण, शिव और न जाने कितनों में बंट गये. सबको बचपन से सिखाया कि खुदा है, बैठा है आपके सरों पर, इनसे डर के रहना! तो सब ने कर लिया विश्वास. बड़े होकर अपने बच्चों के सामने भी दोहरा दिया.

बचपन से चूहा दिखाकर किसी को कहा जाये कि बेटा यह हाथी है, तो वह बच्चा उसे हाथी ही कहेगा, चूहा नहीं. और जब बड़ा होकर कोई अनजाना उसे कहेगा कि ये तो चूहा है तो बच्चा चौंक उठेगा, सहसा विश्वास नहीं करेगा. जब 10-15 लोग यही बात दोहरायेंगे तब समझेगा कि परिवार वालों ने उसका पप्पु बना दिया.

यही हाल धर्म का है. फर्क इतना है कि आस-पास के सभी लोगों का पप्पु बन चुका है, और कोई यह बताने वाला नहीं कि जिसे तुम हाथी समझे बैठे हो, वह तो चूहा है. एकाध जो आवाजें उठतीं हैं वो 'हाथी! हाथी!' चिल्लाने वालों में दब जातीं हैं.

पप्पा ने बताया इसलिये पप्पु मत बनो. शक करो, क्योंकि वो भी इन्सान हैं, उनसे गलती हो सकती है.

क्रमश : (आगे कि किश्त में जारी)

Wednesday, September 17, 2008

एक सच्चा मुसलमान ऐसा नहीं लिख सकता

आल इंडिया शिया काउंसिल के प्रमुख मौलाना जहीर अब्बास रिजवी ने कहा कि ब्लास्ट वाली जो ई-मेल चैनलों को भेजी गयी वो नकली है, क्योंकि उसमेम लिखा है - 'बिस्मिल्ला रहेमान रहीम', और एक सच्चा मुसलमान इस पवित्र वाक्य को लिखते समय गलती नहीं. कर सकता.

बहुत माकूल दलील दी है मौलाना साहिब ने. एक सच्चा मुसलमान 'बिस्मिल्लाह-अर-रहमान-अर-रहीम' को लिखने में गलती नहीं कर सकता. लेकिन क्या एक अध-पढ़, धर्मांध, मूढ़, जिसे खुदा नहीं समझाया गया, सिर्फ दहशत समझाई गयी है यह गलती कर सकता है?

कातिब की भूलों पर भी माजरत की तलब 
उनकी इंसानियत के क्या कहने

आसिम की हिमायत, खुदा का लेके नाम  
वो भोली हिकमतों के क्या कहने
(विश्व)

अच्छा लगता अगर जहीर साहिब ने इसकी जगह यह कहा होता कि एक 'सच्चा मुसलमान' बम विस्फोट जैसा अपवित्र काम नहीं कर सकता.

अगर उन्होंने आह्वान किया होता कौम का, और फतवा दिया होता कौम से उन खूनियों को निकालने का, ठीक उसी तरह जिस तरह फतवा दिया गया सलमान के अब्बा सलीम के खिलाफ, क्योंकि उनके यहां गणेश पूजा हुई.

किसी भी दुर्घटना के बाद धर्म के हाकिम (चाहे हिन्दू हों, या मुसलमान) हमेशा गलत संदेश ही क्यों भेजते हैं ?

---

कातिब - लेखक
माजरत - मुआफी
आसिम - पापी
हिकमत - तरकीब

दीनो-धरम कुछ और नहीं, एक बुरी आदत हैं

अगर किसी बच्चे का खुदा से तआरुफ न कराया जाये, तो उसके लिये परमात्मा नाम की किसी चीज का वजूद भी नहीं रहेगा. वो जियेगा अपनी जिन्दगी, आजाद, बिना जाने की दोजख क्या होती है, और स्वर्ग क्या. पुल-सिरात के नाम से भी उसका दिल नहीं दहलेगा.

दीन-धरम कुछ और नहीं एक बुरी आदत है जो हमारा परिवार हमें विरासत में दे जाता है, कि लो बेट्टे, अब झेलो खुदा की खुदाई. रोजाना सुबह उठकर जनेऊ डालकर घंटा बजाओ, दिन में पांच बार अपने घुटनों पर जोर आजमाइश करो, और अगर फिर भी सेहत बांकी न हो तो खुदा के नाम पर महीने भर का व्रत करो. और होना क्या हासिल है? पंडिज्जी का कहना है कलजुग में वैसे भी सभीने नर्क में जाना है.

एक बात याद रखने वाली है, धर्म और खुदा के अस्तित्व कर किसी को यकीं नहीं. सभी दिल ही दिल में इस झूठ की असलियत समझ रहे हैं, वह भी जो हाजी बने बैठें हैं, और वह भी जिन्होंने 12 तीरथ कर रखे हैं. वरना सच मानिये, अगर परमात्मा पर जिसे जरा सा भी यकीन है, क्या वो कोई भी ऐसा काम कर सकता है जिससे खुदा नाराज हो?

अगर आप झूठ बोल सकते हैं, छोटी-मोटी बेईमानी कर सकते हैं तो समझ जाईये की आप भी इस enlightened समाज का हिस्सा हैं जो भगवान की सच्चाई जान चुके हैं.

लेकिन फिर भी हमारे समाज में लोग धार्मिक होने का ऐसा भीषण स्वांग क्यों रचे बैठे हैं?

जवाब है - आदत.

-- बचपन में देखा की मम्मी-डैडी दो पैरों पर चल रहे हैं. मम्मी ने कहा, बेट्टा घुटनों पर नहीं पैरों पर चलो. बस चलना सीखा और तब से दो पैरों पर ही चल रहे हैं, और सही मान बैठे हैं.

-- थोड़ा बड़ा हुये तो स्कूल जाने लगे. पप्पाजी ने रस्ते में हनुमान मंदिर के सामने से गुजरते हुये कहा, मुन्ना हनुमान जी को नमस्कार करो, हमने कर दिया. इसी तरह अब्बाजी के साथ में मज्जिद में जाकर दुआ भी मांग आये. करत-करत अभ्यास यकीन हो गया की खुदा बैठा है कहीं ऊपर, ले तराजू बांट अपने इंतजार में, कि ये आये तो बेट्टाजी का हिसाब करुं.

असलियत में इन्सान की बेसिक फितरत धार्मिक होने की नहीं. लेकिन जिन भाई लोगों ने धर्म और भगवान का आविष्कार किया, उन्होंने कुछ को पटाकर, और बाकियों को डराकर खुदा का नाम बढ़ा दिया, और बस सदियों के लिये अपना उल्लू चला लिया.

और हां, ये भाई लोग बड़े चंट चिलाक हैं. इन्हें खूब समझ है कि परमात्मा के विचार भर से काम नहीं चलने का, अगर लोगों को गुलाम बनाना है तो इस विचार को जीवन का उतना ही अभिन्न अंग बनाना होगा जितना की पोट्टी जाना. इसलिये दुनिया भर के कर्मकाण्ड रच डाले, जिसको लोगों ने बिना सोचे समझे इतनी बार किया की बन गये आदत.

अगर आप तस्बीह या माला फेर-फेर कर बौरा गये हैं, और सोच रहे हैं कि अब तो मेरी सीट पक्की सुरग में, क्योंकि मैं लिये बैठा हूं 1000348 बार श्री राधेकिशन जी का नाम, तो भैया आप वही माल हो जिसके भरोसे मौलवी और पंडत अपनी-अपनी दुकानें खोले बैठें हैं.

एक बार भगवान से की तहे-दिल से शिकायत
या खुदा, तुझे दिन-रात मैंने पूजा
तेरी शान में कसीदे पढ़े, तेरे नाम जपता रहा
लेकिन तूने कभी पलट के खबर न ली
तकते-तकते तेरी बांट अब मेरा समय गुजर गया
अब आने को हूं तेरे पास, पूछूंगा तुझसे खुद
खुदा, तू इतना संग-दिल क्यों निकला

पता नहीं वो खुदा था, ये मेरी पिनक-ए-अफीम
लेकिन जो सुना वो बयां करता हूं
खुदा ने कहा, बेटा रामपरसाद, तू सही कहे है
तू बड़ा भकत है मेरा, ये ले टोकन, लाईन में आजा
तेरे जैसे और भी लगे हैं यहां आगे तुझसे
बारी-बारी से सभी को निपटा रहा हूं

मैंने टोकन पर लिखा नम्बर देखा - 1354853489
सच ही कहा है किसी ने, मैं बुदबुदाया
खुदा के घर देर है, अंधेर नहीं

दूसरे दिन पड़ोसी ने कहा
चच्चच... बड़ा धार्मिक बंदा था बेचारा

Tuesday, September 16, 2008

क्यों भारत सरकार फैसले की घड़ी पर हमेशा खुद को असहाय पाती है ?

leader

हर तस्वीर के दो पहलू होते हैं, एक दिखाने के लिये, और दूसरा छिपाने के लिये. राजनीतिज्ञ से ज्यादा perception की महत्ता कोई और नहीं समझता, इसलिए इनके लिये करने से ज्यादा जरूरी है दिखाना की हम कर रहे हैं.

सच्चाई ये है  कि अगर कोई राजनीतिज्ञ दिखावे से ऊपर उठकर अपनी विचारधारा, या बताई हुईं नीतियां लागू करने पर आ जाये तो शर्तिया वो राजनीति में कुछ ही रोज़ का मेहमान रहेगा.

इसलिये आपकी-हमारी सरकार चिल्लाती रहेगी - हम कर रहे हैं-हम कर रहें हैं, लेकिन एक भी असरदार कदम आपको नहीं दिखेगा.

आज dissect करते हैं कि ऐसा है, तो क्यों.

1. विविधता वाले जनतंत्र में हर मत के लिये पर्याप्त विरोध मौजूद है.

पूंजीवादी, समाजवादी, माओवादी, नस्लवादी, राष्ट्रवादी, मानवतावादी, ... हर तरह के वादी के लिये इस देश में पर्याप्त जगह है. क्योंकि इस देश में इतनी विविधता है, कि हर रंग, हर ढंग के लोग और विचार हैं यहां.

इसलिये पूरे देश के लिये समान नीति बनाना असंभव सी बात हो जाती है. मुद्दा चाहे हेल्मेट पहनने जैसी छोटी सी बात का हो, वैट जैसे वित्तिय प्रावाधानों, या फिर मकोका जैसे अपराध-निरोधी कानून, पूरे देश में हर नीति के विरोधी हैं, और विरोधी भी प्रबल और अधि-संख्यी, जिन्हें दबाना या समझाना मुश्किल हो.

साथ ही जब भी कोई नीती या मुद्दा उठता है, अवसरवादी लोग उसपर अपनी रोटियां सेंकने आ जाते हैं. इसलिये कोई आश्चर्य नहीं की आतंकवाद जैसे खतरनाक मुद्दों के साथ भी राजनीति चल रही है.

2. भारतीय सरकार का उद्देश्य राज्य नहीं, सरकार की रक्षा है

अजीब विडम्बना है कि वर्तमान भारत सरकार परमाणू करार जैसे अमुद्दे पर गिरने को तैयार है, लेकिन आतंकवाद जैसे बड़े खतरे का मुकाबला करने के लिये अप्रिय निर्णय लेने को तैयार नहीं.

इसका कारण यह है कि हमारी सरकार का उद्देश्य राज्य नहीं, अपने राज की रक्षा करना है. अपने वोट बटोरने के लिए कुछ पार्टियों ने मुस्लिम वर्ग को लगातार मुख्य धारा से अलग रखने के लिये कुटिल चालें चलीं और कामयाब रही.

एक पूरे वर्ग को programmed paranoia का शिकार बनाया गया ताकी उन्हें अपने मतलबानुसार वोट देने पर बाध्य किया जा सके. लेकिन इस paranoia का प्रभाव ये राजनीतिक दल भी नियंत्रण में नहीं रख पाये और उन्हें इस शक्तिशाली वोटबैंक का बंधुआ बनना पड़ा.

इसलिये अब सरकार परमाणू परिक्षण के नाम पर गिरना स्वीकार कर सकती है, क्योंकि कांग्रेस को पता है कि उसके वापस आने की संभावनायें बनीं रहेंगी, लेकिन अगर वो अपने मुख्य वोट बैंक को अगर वे नाराज करते हैं तो उनके वापस आने की कोई संभावना नहीं. इसलिये आतंकवादियों के खिलाफ उस स्तर के combing operations नहीं होते जिनकी जरुरत है.

3. राजनेता की योग्यता कर्मवीरता नहीं वाकवीरता से नापी जाती है

किसी कार्यालय के निचले स्तर के कर्मचारियों तक की भर्ती में योग्यता मापी जाती है. देखा जाता है कि व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों का कितनी अच्छी तरह से निर्वाह कर पाता है. लेकिन राजनेताओं की योग्यता मापने का कोई मानदंड नहीं है.

ज्यादातर कोई व्यक्ति राजनेता इसलिये बनता है क्योंकि वो किसी खास जाती, समुदाय, परिवार का है, वाक्पटु है, या अपने समाज में किसी कारण से लोकप्रिय है. इस बात का ख्याल नहीं रखा जाता की सामने वाला राजकर्म में कितना कुशल है. इसलिये आज व्यापारी पैसों के बल पर, गुंडे बाहुबल पर, और फिल्मी कलाकार अपनी प्रसिद्धी के बल पर राजनेता बन रहे हैं.

यह लोग जब सरकार में जाते हैं तो राज्यकर्म में खुद को असहाय पाते हैं. या तो यह फैसला नहीं ले पाते, गलत फैसला लेते हैं, या अगर फैसला सही भी हो तो उसे कार्यान्वित नहीं कर पाते.

4. राजनैतिक पार्टियां काम करने वाले नहीं, चुनकर आने वालों को टिकट देती हैं.

यह लोकशाही की बुनियादी असफलता है कि उसके चुने गये राजकर्मियों की सफलता का मानदंड उनके द्वारा लागू नीतियों के कल्याणकारी प्रभाव नहीं, बलकि लोकप्रियता है. इसलिये कोई भी ऐसा फैसला कैसे लिया जाये जो लोकहित में हो, लेकिन लोकप्रिय नहीं?

अगर कोई राजनेता अपने कार्य का अच्छी तरह से निर्वाह करेगा तो कम-से-कम short-term में तो वो बहुत से लोगों को नाराज़ कर देगा, और उसका दोबारा चुनकर आना संदिग्ध हो जायेगा. इसलिये पार्टियां ऐसे उम्मीदवार चुनती हैं जो काम चाहे न करें, लेकिन लोगों को यकीन दिला दें की वो उनके भले में लगे हैं.

कौम के गम में खाते हैं डिनर हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत है, मगर आराम के साथ

देने दिलासा उनको, जो बम से खूनो-ख्वार हुये 
नई पोशाक में आयेंगे, दुख तमाम के साथ
(विश्व)

Monday, September 15, 2008

बदलाव कैसे आता है # 1 - उस काली औरत ने बस के पीछे वाली सीट पर बैठने से इंकार कर दिया

rosa किसी वर्ग को पूरी तरह दबाने के लिये जरूरी है उसका आत्मसम्मान खत्म कर देना. जब अपने लिये खुद के दिल में ही सम्मान न हो तो बहुत मुश्किल है किसी दूसरे के हाथों अपना अपमान रोकना.

ऐसे माहौल में बदलाव की उम्मीद भी महंगी जान पड़ती है. लोग सोचते हैं बदलाव के लिये भीड़ इकट्ठी करनी पड़ेगी, भाषण देने होंगे, जुलूस निकालने होंगे. लेकिन बदलाव के बीज तो इस सबसे बहुत पहले बोये जाते हैं. जिस तरह रोसा पार्क्स ने बोये.

अमेरिका में रंगभेद के दौर में रोसा का जन्म हुआ. जब उत्तर में तो काले व्यक्तियों को उनके कुछ हक मिलने लगे थे, लेकिन दक्षिण के कुछ प्रांत अब भी काले व्यक्तियों को बराबर का इन्सान मानने को तैयार न थे.

दिसंबर 1, 1955 की सुबह अलबामा में बस से सफर करते हुये रोसा ने बस के आगे वाली सीट एक गोरे के लिये खाली कर पीछे की तरफ बैठने से इंकार कर दिया जो कि कानून के अनुसार काले व्यक्तियों के लिये जरूरी था.

इस पोलीसि को अमेरिका के दक्षिणी प्रांतो में नाम दिया गया था "बराबरी, लेकिन अलग". याद करिये ओर्वैल की एनिमल फार्म - "All animals are equal, but some animals are more equal than others."

यह घातक वार था दक्षिण की अलगवादी नीति पर, और इस घटना के बाद बसों का बायकाट का आंदोलन शुरु हुआ. वह संघर्ष पूरे एक साल चला. बाद में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया कि काले व्यक्तियों को बस के पीछे वाली सीटों पर बैठने को विवश करना गलत है.

इस तरह रोसा और काले लोगों ने जीता बस के आगे की तरफ बैठने का अधिकार.

जाद:-ए-हुब्बे-वतन (देशप्रेम) में पेंचो-खम का खून क्या
चलने वाला चाहिये, यह राह कुछ मुश्किल नहीं

(सुखदेव प्रसाद)